विकास की बाट जोह रहे लाभार्थियों को हम पांच श्रेणियों मे रख सकते हैं | पहली श्रेणी मे वे लोग आयेंगे , जो केवल पूंजी की कमी के कारण आगे नहीं बढ़ पाते है | यदि उनको पूंजी उपलब्ध हो जाए तो वे विकास की राह पर स्वयं चल पड़ेंगे | बैंक अपनी रूढ़िवादी कार्यशैली के कारण पर्याप्त जमानत रखने वाले ऐसे लाभार्थियों को ऋण देकर सहायता करने तक के लिए तैयार नहीं था | बैंको द्वारा इस सम्बन्ध में सरकार के निर्देशों की उपेक्षा किये जाने पर बैंको का राष्ट्रीयकरण किया गया और बैंक सरकारी नियंत्रण मे आ गए | इससे पहली श्रेणी के लाभार्थियों को बहुत लाभ पहुँचा |
दूसरी श्रेणी में ऐसे लाभार्थी थे , जिनके पास बैंक ऋण प्राप्त करने हेतु बैंक की अपेक्षानुसार जमानत देने को न तो कोई सम्पति थी और न ही उनके पास मार्जिन मनी ही थी | गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों के लिए सरकार द्वारा बिना जमानत मांगे ऋण देने और मार्जिन मनी की व्यवस्था अनुदान देकर कर दी गई थी | इससे दूसरी श्रेणी के लाभार्थियों के विकास की भी व्यवस्था हो गयी थी |
तीसरी श्रेणी में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले वे व्यक्ति थे, जिनका ऋण और अनुदान मिल जाने के बावजूद विकास नहीं हो सकता है , क्योंकि वे कुछ करना ही नहीं जानते | अतयव उन्हें कोई न कोई काम को सिखाने हेतु प्रशिक्षण दिलाने की भी व्यवस्था की गयी |
चौथी श्रेणी मे गरीबी रेखा के नीचे का वह व्यक्ति था जिसे कुछ सिखाया भी नहीं जा सकता | अतयव उसे फावड़ा टोकरी सहित मजदूरी का रोजगार देकर ही लाभान्वित किये जाने की व्यवस्था की गयी | आज कल मनरेगा की इस योजना पर बड़ा जोर है |
पांचवी श्रेणी मे वह व्यक्ति आता है जो इतना अशक्त है कि वह मेहनत मजदूरी भी नहीं कर सकता | इस व्यक्ति को यदि कुछ नहीं मिला तो यह भूख से मर जायेगा | अतयव इसे अन्तोदय अन्न योजना , बृद्धावस्था-विधवा-विकलांग पेंशन योजनाओं से लाभान्वित किया जाता है |
अब सवाल यह उठता है कि गरीबी उन्मूलन की यह सभी योजनाये असफल क्यों हुईं हैं और इनका वास्तविक लाभ क्यों नहीं पहुंचा है ? वस्तुतः इन योजनाओं की संरचना ही गलत ढंग से की गयी थी | इन योजनाओं की संरचना कदाचित भारतीय परिवेश से भिन्न परिवेश मे की गयी प्रतीत होती है और इनकी संरचना ऐसे लोगों द्वारा की गयी प्रतीत होती है , जो भारतीय मिटटी , सोंच ,सभ्यता - संस्कृति , आवश्यकता व अपेक्षाओं से अनभिज्ञ रहें हैं | एक आम आदमी ही एक आम आदमी की जरुरत एवं क्षमता को समझ सकता है |
लाभार्थी चयन मे भी गलत मापदंड अपनाया गया | अन्तोदय मापदंड पर ऐसे लाभार्थिओं का चयन किया गया, जिनमे आत्म विश्वास बिलकुल नहीं था और जोखिम उठाने की क्षमता तो बिलकुल ही नहीं थी | शून्य इच्छा शक्ति वाला यह व्यक्ति मामूली ठोकर लगते ही धराशायी होकर ऐसा बिखरता है कि फिर नहीं संभल पाता है | परिणाम यही होता है कि लाभार्थी की स्थिति बद से बदतर हो जाती है और योजना अपने उद्देश्यों मे असफल हो जाती है | होना ये चाहिए था कि सबसे गरीब को चुनने की प्रक्रिया मे आत्म विश्वास तथा जोखिम उठाने की क्षमता वाले व्यक्ति को ही लाभार्थी के रूप में चयनित किया जाना चाहिए था | योजना मे जोखिम की कमी की प्रतिपूर्ति किये जाने की व्यवस्था भी होनी चाहिए थी ,भले ही इस उद्देश्य से स्वयंसेवी संगठनो एवं बिचौलिओं की मदद लेनी पड़े |
यहाँ मै अपने द्वारा किये गए एक प्रयोग की चर्चा करना चाहूँगा | 1981-82 में मैं फतेहपुर जनपद मे अपर जिलाधिकारी ( परियोजना ) के रूप मे तैनात था | उस समय आई आर डी योजना के लोहार कार्य जानने वाले लाभार्थिओं के एक समूह को दराती वाली हंसिया बनाने का प्रशिक्षण दिलाया, फिर पैटन टैंक का स्क्रैप मंगाया और कुशल कारीगार की देख रेख मे दराती वाली हंसिया बनवा कर स्थानीय बाजारों मे बिकवाने की व्यवस्था कराई थी | इस प्रकार लाभार्थी मे जोखिम की कमी की प्रतिपूर्ति एक बिचौलिए के द्वारा प्रशिक्षण, कच्चा माल तथा मार्केटिंग की व्यवस्था कराई गयी थी | यह बिन्दु ऐसी योजनाओं की सफलता के लिए बहुत ही आवश्यक है |
अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा
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