Tuesday, September 21, 2010

अयोध्या मे " राम दर्शन " मंदिर का निर्माण

  इस समय सारा देश सशंकित और स्तंभित है कि २४ सितम्बर को उच्च  न्यायालय का क्या फैसला होगा और फैसले के बाद क्या होगा ? यह कुछ दिन बड़े कठिन व  संवेदनशील तथा भारत के लिए परीक्षा की घडी के समान है | यह बड़े संतोष की बात है कि संघ परिवार तथा बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी दोनों  का  अभी तक का रुख सकारात्मक व सुर भी बदले हुए प्रतीत होते हैं | यह भी बड़ा सुखद है कि आम हिन्दू व मुसलमान इस बार भावावेश मे आने वाला नहीं है , इस तथ्य को दोनों वर्गों के नेता समझते हैं कि इस बार अफवाहों का बाज़ार ठंढा रहेगा | पर धर्म व राजनीति की रोटी सेकने वालों तथा अमेरिका मे अँगरेज़ पादरी द्वारा पवित्र कुरान को जलाने की घोषणा के बाद कश्मीर दुनिया भर मे सबसे अधिक  प्रतिक्रिया कश्मीर के मुसलमानों मे होने वाली घटना के परिप्रेक्ष्य मे  इस विशाल  भारत मे कुछ भी होने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है |
                        खैर यहाँ मै कुछ और कहने जा रहा हूँ जो प्रासंगिक तो है ही उपयोगी भी है | भगवान राम मर्यादा पुरुषोतम तो थे ही , वे  समाज के प्रत्येक क्षेत्र मे आदर्श स्थापित करने वाले एक व्यवस्थाकार भी थे | भगवान राम ने आदर्श पुत्र , आदर्श भाई , आदर्श शिष्य , आदर्श पति , आदर्श शासक , आदर्श मित्र , आदर्श शत्रु के प्रतिमान स्थापित किये थे और व्यावहारिक जीवन मे इन समस्त आदर्शों को चरितार्थ किये थे | ऐसे सैकड़ों प्रसंगों से राम चरित मानस भरा पड़ा है | भगवान राम के जीवन के इन प्रसंगों , जिनसे राम के आदर्श , राम की शिक्षाएं तथा राम के दर्शन की जानकारी लोगों को हो सके , ऐसा प्रयास करने की आवश्यकता है | ताकि अयोध्या , जहाँ कोई युद्ध नहीं होता , मे आने वाले लोगों को राम के दर्शन हो सके और उन्हें राम के दर्शन की वास्तविक जानकारी मिल सके | अयोध्या मे ऐसा राम दर्शन मंदिर निर्मित कराये जाने की अत्यधिक उपयोगिता और  आवश्यकता है | यह उपयोगितावाद पर आधारित अवधारणा है और इससे किसी का विरोध हो ही नहीं सकता |
                मै चित्रकूट मे जिलाधिकारी था और संयोगवश नानाजी देशमुख के साथ बैठा था | उसी समय कुछ लोग नाना जी से मिलने आ गए | उन लोगो ने नाना जी से पूछा कि अयोध्या मे राम मंदिर कब बनेगा ? नानाजी ने उनसे पूंछा कि तुम सब चित्रकूट भ्रमण कर चुके हो , तो क्या तुम्हे राम के दर्शन हुए ? मै चाहता हूँ कि चित्रकूट मे आने वाले प्रत्येक श्रद्धालु को राम के दर्शन हों और राम के दर्शन की जानकारी हो सके | अतयव मै ऐसा मंदिर बनवाने जा रहा हूँ , जिसका नाम होगा "राम दर्शन " | राम दर्शन के शिल्पकार थे सुहाश बहुलकर और वास्तुकार थे पुनीत सुहैल | मै तो केवल राम दर्शन के निर्माण का प्रत्यक्षदर्शी मात्र  था कि नाना जी कैसे रामायण के महत्वपूर्ण और शिक्षाप्रद  प्रसंगों को चयनित करते थे ? उन्होंने अपने कुशल  निर्देशन मे विभिन्न पगोडा मंदिरों मे रिलीफ , पेंटिंग और डायोरमा के माध्यम से राम दर्शन को निर्मित कराया था | नाना जी की सोच बहुत व्यापक थी और उसी सोच से प्रभावित होकर मैं इस मत का हूँ कि अयोध्या मे भी विशाल राम दर्शन बनवाये जाने की बहुत बहुत आवश्यकता है , ताकि अयोध्या आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को राम के दर्शन हो सके और उन्हें राम के दर्शन की सम्पूर्ण जानकारी हो सके | यह दक्षिण भारत के मंदिरों की भांति बहुत विशाल और भव्य हो और इसकी व्यवस्था भी तदनुसार हो |


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

बाढ़ : दैवी आपदा से अधिक मानव कृत समस्या

 इधर काफी बड़ा भूभाग तथा क्षेत्र बाढ़ से परेसान चल रहा है | बाढ़ग्रस्त लोगों की तकलीफों की कल्पना केवल वही व्यक्ति कर सकता है जो ऐसी स्थिति से गुज़र चुका हो | बाढ़ प्रलय की स्थिति का थोड़ा बहुत आभास देता है , क्योकि बाढ़ के दौरान ऐसा लगता है कि अब सब कुछ समाप्त होने ही  वाला है , घर -परिवार के लोग तथा जानवरों से नाता छूटने वाला है तथा जीवन लीला बस समाप्त होने वाली है | मुझे भी इस सम्बन्ध मे थोड़ा -बहुत अनुभव इस कारण है कि यस ड़ी यम , ए ड़ी यम , सी ड़ी ओ तथा ड़ी यम के रूप मे मेरी तैनाती गोरखपुर , सिद्दार्थनगर ,कुशीनगर तथा सीतापुर अत्यधिक बाढ़ग्रस्त जनपदों मे रही है और इन सभी जनपदों मे मेरी तैनाती के दौरान भयंकर बाढ़ आई थी और मै बाढ़ राहत व बचाव कार्य से गंभीरता से जुड़ा था | इस प्रकार से बाढ़ की भयावहता , राहत तथा बचाव कार्य का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ |
           प्रकृति हमारे ऊपर सदा सर्वदा मेहरबान रही है | यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हम इन मेहरबानियों से अनजान बने हुए रहते  हैं | प्रकृति ने पृथ्वी पर इस प्रकार की ढलान रखी है  कि कहीं जल भराव की स्थिति न उत्पन्न होने पाये | सर्बे आफ़ इंडिया ने बड़ी मेहनत करके विभिन्न स्थलों की  ढलान को दर्शाते हुए कंटूर लाइन मैप बनाया गया है | यदि इस नक़्शे का उपयोग सड़कों , नहरों , भवनों के अलायमेंट के समय किया जाता तो जल निकासी की समस्या से बचा जा सकता था , पर दुर्भाग्य की बात यह है कि किसी के पास सर्वे आफ इंडिया का मैप ही नहीं होता | जिले के अधिशाषी अभियंता लोक  निर्माण विभाग के पास ऐसा एकमात्र मैप अवश्य होता है जो उनकी  तिजोरी मे सुरक्षित रखा जाता है , ताकि वी आई पी के आगमन  के समय हेलीकाप्टर का अक्षांश का पता लगाने के लिए उक्त मैप तिजोरी से बाहर निकाला जाता है और काम के बाद उसे फिर तिजोरी मे रख दिया जाता है | इसके अलावा इस अत्यधिक उपयोगी मैप का कभी भी कोई अन्य उपयोग सड़क  , नहर तथा भवन निर्माण हेतु नहीं होता | इसका परिणाम यह होता है कि पूरे देश की ही जल निकासी की व्यवस्था बद से बदतर हो जाती है | यह भी जल भराव तथा बाद की स्थितियां उत्पन्न कर देता है |      
           इस सम्बन्ध मेरा दृढ़ मत रहा है कि बाढ़ दैवी आपदा नहीं है , वरन यह मानवीय कृत्यों का प्रतिफलन है और एक तरह से बाढ़ के लिए मनुष्य ही जिम्मेदार है | पहले भी बाढ़ आती थी , पर शीघ्र ही  बाढ़ का पानी उसी रफ़्तार मे उतर जाता था , जिस रफ़्तार मे बाढ़ आती थी | नदियाँ जहाँ एक ओर बाढ़ लाती थी , वही दूसरी ओर नदियाँ ही जल निकासी का श्रोत भी साबित होती थी | पर आज बाढ़ का पानी कई कई दिनों तक ठहरा रहता है और नदियाँ अब जल निकासी का पहले की तरह काम नहीं कर पाती | मानवीय प्रयासों ने इस दृष्टि से भी नदियों को बहुत अक्षम बना दिया है |
           नदियों पर बांध निर्माण करके मनुष्य द्वारा  नदी को पालतू बनाने जैसा कार्य किया जाना प्रतीत होता है | बांध निर्माण का मुख्यतः दो उद्देश्य होता है | बांध बना कर वस्तुतः नदी  का अधिकांश जल बांध के जलाशय मे रोक लिया जाता है , जिससे नहरे निकाली जाती है  और बिजली पैदा की जाती है | जिससे विकास का मार्ग तो अवश्य प्रशस्त होता है , परन्तु इस प्रकार होने वाले   विकास की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है |
            बांध निर्माण से होता यह है कि नदी का अधिकांश जल जलाशय मे रोक लिया जाता है और नदी मे नाम मात्र का ही जल आ पाता है | इसके परिणाम स्वरूप नदी मे तेज प्रवाह व बहाव लायक जल तो आ ही नहीं पाता | इससे नदी का पेटा पटने लगता है | परिणाम स्वरूप दस लाख क्यूसेक धारक क्षमता वाली नदी की धारक क्षमता घटते घटते दस साल मे मात्र दो लाख क्यूसेक रह जाती है | वर्षा काल मे बांध को बचाने के लिए मजबूरन २ ० सी ५ ० लाख क्यूसेक पानी नदी मे छोड़ना पड़ता है | नदी की धारक क्षमता घट जाने के कारण नदी का यह पानी दूर दराज़ क्षेत्रों मे फ़ैल जाता है और काफी देर तक पानी रुका रहता है , क्योकि धारक क्षमता घटने के कारण नदी जल निकासी का काम भी नहीं कर पाती | इस प्रकार हम नहर से सिचाई करके तथा बिजली बनाकर जितना लोगों को लाभान्वित कराते हैं ,  बाढ़ का हर दृष्टि से तकलीफ झेलकर लोग उक्त लाभ की कई  कई गुनी कीमत चुकाते हैं | इस प्रकार बांध  निर्माण एक घाटे का सौदा सिद्ध होता है |
            प्रकृति सर्बशक्तिमान एवं सर्बभौम सत्ता है और प्रकृति यह नहीं बर्दास्त कर सकती कि  मनुष्य प्रकृति को पालतू बनाये | ऐसा होने पर प्रकृति की प्रतिकूल प्रतिक्रिया का होना स्वाभाविक है | आज अनेक अवसरों पर हम महसूस करते हैं कि प्रकृति हमसे नाराज है और हम प्रायः इसे  दैवी आपदा अथवा प्रकृति का कोप समझ बैठते हैं | यह दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति है कि हम अपने को इस बात के लिए दोषी नहीं मानते हैं कि अपने कारनामो की वज़ह से कहीं हमने प्रकृति को कुपित तो नहीं कर दिया  है ? बाढ़ , सूखा , अवर्षण , ग्लोबल वार्निंग , सुनामी तथा भूकंप आदि के लिए कदाचित मनुष्य ही जिम्मेदार होते हैं | आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य को  तात्कालिक लाभ के लिए प्रकृति का अप्राकृतिक और अनियंत्रित दोहन करके प्राकृतिक संतुलन को बिगड़ कर प्रकृति को  कुपित करने का काम नहीं करना चाहिए , ताकि उसके गलत कार्यों की वज़ह से पूरी मनुष्यता को प्रकृति का कहर न झेलना पड़े |
               बांध निर्माण के बाद अब नदियों को जोड़ने की योजना पर विचार हो रहा है जो मनुष्यता के लिए आत्म हत्या करने जैसा कार्य है , क्योकि यह प्राकृतिक व्यवस्था मे बहुत बड़ा हस्तक्षेप माना जाना चाहिए | मनुष्यों को प्रकृति के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिए और प्रकृति का आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए और ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए , जो प्रकृति के प्रतिकूल हो |           



अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Tuesday, September 14, 2010

हिंदी दिवस का आयोजन पितरपक्ष की तरह

प्रति वर्ष १४ सितम्बर को हिन्ही दिवस तथा पूरे पक्ष हिंदी पखवारे का आयोजन किया जाता है | १४ सितम्बर को ही संबिधान सभा मे हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप मे अंगीकार करते हुए इसे १५ वर्ष तक के लिए संपर्क भाषा बनाया गया था | इसी उपलक्ष मे हिंदी दिवस मनाया जाता है और पूरे पखवारे तक समस्त कार्यालयों , विशेषकर केन्द्रीय कार्यालयों व सार्बजनिक उपक्रमों मे अनेक आयोजन होते हैं | ऐसे आयोजन का मुख्य अतिथि सामान्यतया ऐसा व्यक्ति होता है जो प्रायः हिंदी बोलने व हिंदी मे काम करने से परहेज करता है और अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों मे पढ़ाता है | ऐसा लगता है कि हिंदी दिवस व पखवारा एक रश्म अदायगी के तौर पर मनाया जाता है , जिसमे हिंदी के पक्ष मे भाषणबाजी  व बयानबाजी तो खूब होती है किन्तु हिंदी के हित मे कुछ भी नहीं होता |
             राष्ट्र भाषा किसी देश मुख होता है , जिसे सजा - संवार कर रखा जाता है | राष्ट्र भाषा प्रेम का एक सजीव उदाहरण हमारे समक्ष है | तुर्किस्तान  के आजाद होने पर वहाँ के शासक कमाल पाशा ने जब लोगो की इस सम्बन्ध मे राय ली तो सभी ने तुर्की को १० से ५० वर्ष तक राष्ट्र भाषा बनने की सम्भावना जतायी थी , परन्तु कमाल पाशा ने अपने मत्री भाषा प्रेम तथा दृढ़ इच्छा शक्ति के चलते घोषित किया कि कि दूसरे दिन सूर्योदय से ही तुर्की  राष्ट्र भाषा घोषित कर दिया था | इतना ही नहीं उन्होंने एक वर्ष तक सारे कार्यालय व शिक्षण संस्थाएं बंद सारे देश वासियों को लोगों को तुर्की परगने के काम मे लगा दिया था | भारत मे भी इसी प्रकार की इच्छाशक्ति की दरकार थी | तभी तो आज़ादी के ६३ साल बाद भी अशिक्षा का बोलबाला आर अंगूठे का वर्चश्व बरक़रार है | भारत मे  न तो किसी को हिंदी से उतना प्यार ही था और न ही ऐसी कोई इच्छा शक्ति ही दृष्टिगोचर हुई है  | यही कारण है कि  हिंदी की स्थिति डांवाडोल बनी हुई है | बिना संज्ञा के कोई प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर सकता और देश की मजबूती के लिए भाषाई एकता बहुत जरुरी है , अतयव देश हित मे पूरे देश को एकजुट होकर भाषाई एकता को प्रदर्शित करना चाहिए और अपनी अपनी मातृभाषा का पुरजोर प्रयोग एवं विकास करना चाहिए | हिंदी से किसी भाषा को न तो कोई खतरा है और न ही कोई प्रतिद्वंदिता | तो फिर आखिर हिंदी का विरोध क्यों ?
               हिंदी को सबसे अधिक खतरा २% अंग्रेजी दा लोगों से है जो हिंदी को उसका असली हक़ दिलाने के कभी पक्षधर नहीं रहें हैं | आज़ादी के बाद आज भी हिंदी को सबसे ज्यादा खतरा अंग्रेजी और अंग्रेजों से ही है | अंग्रेज अंग्रेजी के जरिये भारत मे अब तक अपनी वापसी की उम्मीद लगाये बैठे हैं | अंग्रेजो का कुत्ता प्रेम प्रसिद्ध है और कदाचित इसी कारण उनमे श्वान वृति आ गयी प्रतीत होती है | कुत्ते की सूंघने का स्वभाव अद्भुत होता है और उसकी जीवन वृति इसी गुण से संचालित होता है | इसलिए कुत्ता जब भी कभी बाहर जाता है तो रास्ते की स्थायी बस्तुओं पर पेशाब करता हुआ जाता है , ताकि सूंघते सूंघते वह वापस आ सके | अंग्रेज भी इसी स्वभाव व विचार से लोक सभा , उच्चतम न्यायालय , लोक सेवा आयोग ,नौकरशाही तथा विश्व विद्द्यालयों मे अंग्रेजी को स्थापित कर गए थे , ताकि कुत्ते के स्वभानुसार उनका पुनरागमन संभव हो सके |  
                देश के गौरव की स्थापना तथा राष्ट्र -प्रेम का तकाजा है कि राष्ट्र भाषा को उसके वास्तविक स्वरूप मे स्थापित किया जाय और हर एक भारतवासी इस दिशा मे अपने दायित्व बोध का प्रदर्शन करे | तभी हिंदी दिवस के आयोजन की सार्थकता होगी |


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Monday, September 6, 2010

शिक्षक दिवस पर विशेष : शिक्षक तथा शिक्षाविदों के दायित्व

शिक्षक दिवस एक महत्वपूर्ण अवसर होता है , जब पूरा देश शिक्षकों का सम्मान कर रहा होता है | इस दिन कुछ चयनित शिक्षकों को उनके सराहनीय प्रयासों के लिए राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित भी किया जाता है | विभिन्न स्तरों पर अनेकानेक आयोजन होते हैं , जिसमे डा सर्ब्पल्ली राधाकृष्णन ,जिनके जन्मदिन को ही शिक्षक दिवस के रूप मे मनाया जाता है तथा गुरु शिष्य की गौरवशाली परंपरा का स्मरण करते हुए शिक्षकों के योगदान व उनकी समस्यायों पर चर्चा की जाती है और लम्बे चौड़े भाषण देकर शिक्षा दिवस का समापन कर दिया जाता है ,पर शिक्षा के स्वरूप व अपने मूल उद्देश्यों से भटकी मूल्यविहीन शिक्षा की सार्थकता तथा शिक्षा व शिक्षकों के गिरते स्तर पर कोई चिंता नहीं की जाती है | जबकि शिक्षा दिवस के आयोजन की सर्वाधिक प्रासंगिकता इसी बात की ही है | यहाँ हम कुछ इन्हीं विषयों पर चर्चा करेंगे |              
आज हमारी शिक्षा व्यवस्था अशिक्षा की ओर ले जा रही है ,क्योंकि आज का क्षात्र शिक्षा प्राप्त करता हुआ जैसे जैसे उच्च मानसिक अधिमान को प्राप्त करता जाता है ,वह तदनुसार अपनी भौतिक आवश्यकताओं को भी बढाता जाता है ,परन्तु शिक्षा व्यवस्था उसकी मनो - भौतिक जरूरतों को पूरा करती हुई प्रतीत नहीं होती | इस प्रकार शिक्षा प्राप्ति से उसे समस्या प्राप्त होती है , जिसके लिए उसे जीवन के यथार्थ मूल्यों (अनुशासन ,चरित्र ,नैतिकता ,विश्वास पात्रता  आदि मूल्य ) की कीमत चुकानी पड़ती है | इस प्रकार शिक्षा से मिलती है समस्या ,वह भी जीवन के यथार्थ मूल्यों को खोकर | यदि ऐसा है तो शिक्षा व्यवस्था मे कहीं न कहीं कोई खामी तो ज़रूर है और शिक्षक भी इसके लिए उत्तरदायी माने जायेंगे | तो क्या आज शिक्षक दिवस के महत्वपूर्ण अवसर पर इतने जीते जागते मुद्दे के बारे मे नहीं बिचार किया जाना चाहिए ?
             हमारी शिक्षा व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष यह है कि यह मानकर चलती है कि बच्चे को पढाया जाता है और सारा पाठ्यक्रम तथा शिक्षण पद्दतियां तदनुसार ही होता हैं | जबकि वास्तविकता इससे बिलकुल भिन्न है | वस्तुतः बच्चा पढाया नहीं जाता वरन वह पढता है | वह सबसे पहले अपनी मा को पढ़ता है , इसके बाद अपने पिता -भाई -बहन -परिवारजनों व संपर्क मे आने वालों को पढता है | इसके बाद वह अपने दोस्तों व पड़ोस को पढ़ता है और स्कूल जाने पर अध्यापक व सहपाठियों को पढ़ता है | सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि सभी इस तथ्य से अनजान रहते हैं कि बच्चा उन्हें या उनसे निरन्तर पढ़ रहा होता है | इस प्रकार वांछनीय व अवांछनीय जो भी उसके समक्ष आता है , बच्चा उसे पढ़ जाता है | इस परिप्रेक्ष्य मे पढ़ाने की आवश्यकता माता - पिता - अध्यापक - पड़ोसियों को है कि बच्चे के अनवरत पढने की प्रवृति के कारण सभी लोग ,जिन्हें बच्चा पढ़ रहा है , बच्चे के समक्ष कोई अवांछनीय बात व व्यवहार न करें , ताकि बच्चा उनसे अवांछनीयता न पढ़ जाय | वस्तुतः पढ़ाने की आवश्यकता बच्चे को बिलकुल ही नहीं है और अच्छा व स्वस्थ परिवेश मिलने पर वह स्वतः पढ़ जावेगा | व्यक्ति अपने बच्चे के बारे मे इस दिशा मे  अवश्य सतर्क रहता है और अपने बच्चे के समक्ष कोई अवांछनीय कार्य व्यवहार नहीं आने देता है ,पर वह अन्य सभी बच्चों के बारे मे बिलकुल उदासीन रहता है | यदि अध्यापक की हस्तलिपि ख़राब है तो ब्लेक्बोर्ड पर उसके लिखने पर बच्चे की हस्तलिपि ख़राब होना स्वाभाविक है | यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि शिक्षा जगत की लाखों सालों की यात्रा के बाद भी हम इतना नहीं समझ पाये हैं कि अध्यापक की ख़राब हस्तलिपि का खामियाजा बच्चा क्यों भुगते ? अभी तक हमारी शिक्षा व्यवस्था इतना निषेध नहीं लगा पायी है कि क्षात्र जब तक लिखना पूर्णतया सीख नहीं जाता है , अध्यापक को ब्लेकबोर्ड पर नहीं लिखना चाहिए |
              शिक्षा जगत मे छात्र - अनुशासन हीनता की बहुत सारी बातें होती रहती हैं , जबकि लोग अनुशासन का सही मतलब ही नहीं जानते | आटोमिक फालोइंग कमांड आफ द सुपीरियर बाई द इन्फीरियर इज अनुशासन | यहाँ जोर जबरदस्ती का कोई स्थान नहीं और स्वयमेव प्रक्रिया का स्थान प्रमुख है | अब यह विचार करना है कि कौन श्रेष्ट व कौन  निम्न है | वरिष्टता क्रम मे सत्वगुण  श्रेष्टतम , रजोगुण श्रेष्टतर व तमोगुण श्रेष्ट होता है | तदनुसार सत्वगुणी दूध का भोजन करने वाला बच्चा सबसे शक्तिशाली व श्रेष्टतम  होता है | राजसिक यानि अनाज का भोजन करने के कारण उसमे रजोगुण यानि क्रियाशीलता का प्रादुर्भाव हो जाता है ,पर वह श्रेष्टतम से श्रेष्ट्तर स्थिति मे पहुँच जाता है | जवानी के बाद रजोगुण यानि क्रियाशीलता मे कमी व तमोगुण मे अभिबृद्धि का दौर शुरू होता है और श्रेष्ट स्थिति को दर्शाता है | इस प्रकार अध्यापक को छात्रों की अपेक्षाओं का पूर्ण संज्ञान लेकर उन्हें पूरा करने का प्रयास करना चाहिए | ऐसा न करने पर अध्यापक को ही अनुशासनहीन माना जावेगा | ऐसी अवस्था मे अध्यापको द्वारा कभी कभी छात्रो पर   बलप्रयोग भी किया जाता है और कभी कभी छात्र समूह , जो शक्ति का आगार होता है , द्वारा उक्त बल प्रयोग के बिरुद्ध आक्रोश अभिव्यक्त कर बैठता है | जिसे लोग अनुशासनहीनता की संज्ञा दे बैठते हैं | बस्तुतः यह अनुशासन हीनता न होकर अनुशासनहीन लोगों द्वारा किये बलप्रयोग के बिरुद्ध आक्रोश का अभिप्रकाशन मात्र है |
             शिक्षको द्वारा आज शिक्षक दिवस पर डा सर्वपल्ली राधाकृष्णन , चाणक्य , डा कलाम , रविन्द्र नाथ टैगोर , विस्वामित्र ; संदीपनी आदि प्रमुख शिक्षकों का आदर्श अपनाने  और चन्द्रगुप्त , राम , कृष्ण सरीखे शिष्य तैयार करने की कोशिश करने का संकल्प लेना चाहिए |  
 
अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Thursday, August 19, 2010

स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का अपमान : जगन्नाथ सिंह

राष्ट्रकुल खेलों के परिप्रेक्ष्य मे नई दिल्ली तथा आसपास के क्षेत्रों को चमकाया जा रहा है, ताकि इस आयोजन के दौरान भ्रमण आने वाले विदेशी भारत के बारे मे अच्छी धारणा लेकर अपने देश वापस जांय | राष्ट्रीय गौरव और आत्म सम्मान के लिए ऐसा करना बहुत आवश्यक और औचित्यपूर्ण है | परन्तु इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि विदेशियों को अपनी गौरवशाली विरासत वाले  स्मारकों ही दिखाया जाना और गुलाम भारत के दौरान अंग्रेजी हुकूमत के कारनामो और उपलब्धियों को दिखाने से परहेज किया जाना चाहिए | यदि आजादी से पहले के  ब्रिटिश शासनकाल की गौरव गाथा व उपलब्धियों को दिखाया जाता है तो यह हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का घोर अपमान होगा |
       भारत मे इंडिया गेट एक ऐसा ही स्थल है, जिसे हम प्रत्येक विदेसी को सबसे पहले दिखाते हैं, क्योंकि स्थापत्य कला की दृष्टि से यह अत्यधिक सुन्दर एवं महत्वपूर्ण स्थल है | इंडिया गेट की दीवारों पर प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध मे शहीद हुए जवानो के नाम अंकित हैं जो गुलामी के दौरान अंग्रेज शासन की गौरव गाथा के अतिरिक्त कुछ नहीं कहते | इसे सबसे बड़ी गौरव गाथा के रूप मे दर्शाना स्वतन्त्र भारत मे कहाँ तक औचित्यपूर्ण है ? इस समय इंडिया गेट की दीवार पर अंकित नामो को और अधिक चमकाने और उभारने का काम भी चल रहा है जो निःसंदेह उचित नहीं प्रतीत होता है | वस्तुतः इंडिया गेट की दीवारों पर हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का नाम प्रदर्शित किया जाना चाहिए था | हमारे स्वतन्त्र भारत के लिए यह बड़े गौरव की क्या बात होती यदि इसपर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद , राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक, राजेंद्र लाहिड़ी, मदन लाल धींगरा, खुदी राम बोस तथा १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, मंगल पाण्डे, नाना फंडनवीश, गॉस खान आदि समस्त स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का नाम अंकित होता | यह हमारी अस्मिता, राष्ट्रीयता और देश प्रेम का तकाजा भी है | तब इंडिया गेट पहुँच कर इसे देखकर तथा विदेशियों को इंडिया गेट दिखाकर उन्हें इस सम्बन्ध मे बताने मे प्रत्येक भारतीय को गर्व होता | तभी हम राम प्रसाद बिस्मिल की इस ऐतिहासिक कविता को सही अर्थों मे सम्मानपूर्बक स्थापित कर सकते हैं :           
    " शहीदों  की मजारों पर  लगेंगे  हर बरस  मेले,
      वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशाँ होगा "|  
इंदिरा गाँधी द्वारा इंडिया गेट पर अमर जवान ज्योति की शुरुवात करके अज्ञात शहीदों की स्मृतियों को श्रधान्जली देने का सराहनीय प्रयास किया था , पर बिस्मिल की कविता को सार्थकता प्रदान करने के लिए इंडिया गेट से अच्छी दूसरी कोई जगह नहीं हो सकती है | 


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

नेताजी सुभाष के बलिदान का अपमान : जगन्नाथ सिंह

नागालैंड की राजधानी कोहिमा मे एक अत्यधिक एवं महत्वपूर्ण स्मारक है, पर्यटक जिसे देखने मे काफी रूचि लेते हैं | यह स्मारक बहुत सुन्दर तो है ही, इसके रख रखाव की व्यवस्था बहुत उत्तम कोटि की है | कोहिमा मे यह स्मारक दिल्ली के इंडिया गेट की तरह ही है | यहाँ एक बहुत बड़ी दीवार पर पीतल की बड़ी चादर पर इंडिया गेट की तरह शहीदों का नाम अंकित है, जिसे बराबर चमकाए रखा जाता है | इस स्मारक पर शहीदों के रूप मे उन सैनिकों के नाम अंकित हैं, जिन्होंने नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फ़ौज से हुई अंतिम लडाई मे लोहा लेकर उन्हें हराया था |
      यह बड़े दुःख और लज्जा का विषय है कि हमारी ही धरती पर नेताजी को उनके आखिरी युद्ध मे शिकश्त मिली थी और उन्हें पराजित करने वाले कोई और नहीं अपने ही भारतीय सैनिक थे, जिन्होंने अंग्रेज आकाओं के हुक्म पर  नेताजी से युद्ध किया था | आज अपने स्वतन्त्र भारत मे ऐसे स्मारक का होना नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तथा उनकी आज़ाद हिंद फौज के क्रांतिकारियों के बलिदान का घोर अपमान तो है ही, भारतीयों के दिलों पर राज्य करने वाले नेताजी के बलिदान और योगदान को ही मुह चिढ़ाता हुआ सा प्रतीत होता है |
        यह भी जानकारी मे आया है कि इस स्मारक का रखरखाव आज भी ब्रिटेन द्वारा ही होता है और इसके रख रखाव हेतु इंग्लॅण्ड से पौंड मे धन सीधे आता है | इससे यह भी प्रमाणित होता है कि आज़ादी से पूर्व अंग्रेजो द्वारा स्थापित परम्पराएँ आज भी यथावत निभायी जा रही है | ऐसी स्थिति मे इस सम्बन्ध मे संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि क्या हम वास्तविक अर्थों मे पूर्णतया स्वतन्त्र हो गए हैं अथवा नहीं ? कुछ भी हो एक स्वतन्त्र नागरिक के रूप मे हमारी सोंच अभी तक विकसित नहीं हो पाई है | 
      यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय सेना की बिभिन्न इकाईयों मे ऐसे अनेक विजय चिन्ह अनुरक्षित अथवा प्रदर्शित हैं जो ब्रिटिश शासनकाल मे उनके नज़रिए से गौरव के प्रतीक हो सकते थे , पर आज स्वतन्त्र भारत मे उक्त विजय चिन्ह राष्ट्रीय विरासत के रूप मे माने जायेंगे और उन्हें राष्ट्रीय संग्रहालयों मे होना चाहिए | एक उदाहरण से मै इसे स्पष्ट करना चाहूँगा |  गोरखा रेजीमेंट की रानीखेत इकाई मे रानी लक्ष्मीबाई की शिकस्त एवं अंग्रेजो के झाँसी विजय के प्रमाणस्वरूप झाँसी का राजदंड अनुरक्षित और प्रदर्शित है | यह रानी  लक्ष्मीबाई और समस्त क्रान्तिकारियों का घोर अपमान है |       
     इस दर्द को समझाने के लिए भारत के देश भक्त नागरिकों से पूछना चाहता हूँ कि जलियांवाला बाग मे जनरल डायर के हुक्म से चली गोलियों से मरने वालो के नामो का उल्लेख अब तक क्यों नहीं हुआ है ? यदि वहाँ जनरल डायर की भव्य मूर्ति बनवाकर उस पर फूल माला पहनाया जावे, तो भारत के राष्ट्र भक्तो को कैसा महसूस होगा | ऐसी स्थिति मे कोहिमा जैसे स्मारकों का ब्रिटिश सरकार के धन से रखरखाव हमारे देशवासियों को कैसे स्वीकार हो सकता है | राष्ट्र भक्तों को इस दिशा मे गंभीरता पूर्बक विचार करके सक्रिय होना आवश्यक है | 


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Tuesday, August 10, 2010

शाकाहार बनाम मांसाहार : जगन्नाथ सिंह

 सभ्यता के प्रारंभ से ही यह सवाल उठता आया है कि मनुष्य को शाकाहारी होना चाहिए अथवा मांसाहारी ? दोनों मे से सही क्या है ? यह प्रारंभिक तथा आदि प्रश्नों मे से एक रहा है | अलग अलग देश काल पात्रगत सापेक्षिक परिवेश मे इसके अलग अलग उत्तर आते रहें हैं | वैसे सापेक्ष जगत मे भी सार्बभौम उत्तर होते हैं ,जिनका भिन्न भिन्न देश काल पात्रगत परिवेश मे मतलब व व्याख्याएँ बदल जाती है |
       "जीव जीवस्य भोजनम " अर्थात जीव ही जीव का भोजन है | यह सृष्टि ही उपयोगितावाद पर अवस्थित है | सृष्टि मे कुछ भी अनपेक्षित नहीं है | एक का त्याज्य दूसरे का भोज्य है | प्रत्येक जीव एक दूसरे का भोजन है | मनुष्य केवल वही खाता है , जिनमे जीवन होता है और निर्जीव वस्तु को नहीं खाया जाता | जीव भी तीन श्रेणी मे आते हैं | 
       पहले श्रेणी मे वे जीव आते हैं , जिनमे केवल भौतिक अभिप्रकाशन होता है | अनाज इसी श्रेणी मे आता है | दूसरी श्रेणी मे वे जीव आते हैं , जिनमे भौतिक और मानसिक अभिप्रकाशन होता है | पशु इसी श्रेणी का जीव होता है | तीसरी श्रेणी मे वे जीव आते हैं , जिनमे भौतिक और मानसिक के अतिरिक्त आध्यात्मिक अभिप्रकाशन भी होता है | इस श्रेणी के जीव मे मनुष्य आता है | इन जीवो का वरिष्टताक्रम भी तदनुसार ही निर्धारित होता है , यानि मनुष्य श्रेष्ठ, जानवर निम्न तथा अन्न निम्नतर श्रेणी मे आते है | श्रृष्टि मे कोई जीव निकृष्ट व बेकार मे नहीं होता | इस प्रकार प्रत्येक जीव की कोई न कोई उपयोगिता अवश्य है | 
        अब प्रश्न उठता है कि अमुक श्रेणी का जीव किस श्रेणी के जीव को खाए और प्रकृति व श्रृष्टि का सिद्धांत इस सम्बन्ध मे क्या कहता है ? इस प्रश्न का सीधा और सरल सा उत्तर है कि अस्तित्व रक्षा के लिए भोजन आवश्यक होता है और यह शरीर का धर्म भी है | वस्तुतः उच्च श्रेणी का जीव अपने से निम्नतर श्रेणी के जीव को खा सकता है बशर्ते उससे निम्नतर श्रेणी का जीव उपलब्ध न हो | इस प्रकार जब तक निम्नतम श्रेणी का जीव यानि अन्न उपलब्ध रहता है, तब तक किसी मनुष्य को जानवर नहीं खाना चाहिए | किन्तु जहाँ अन्न पैदा ही नहीं होता या बिलकुल उपलब्ध ही नहीं होता, वहाँ अस्तित्व रक्षण के लिए मनुष्य पशु को खा सकता है | भोजन की आवश्यकता अस्तित्व रक्षण के लिए ही है और अपने अस्तित्व रक्षण के लिए यदि अपरिहार्य हो जाय तो एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को भी खा सकता है | युद्धों के दौरान बहुधा ऐसा देखने मे आ चुका है कि जनरल सिपाही को खा गया और यह पूर्णतया औचित्यपूर्ण भी ठहराया गया था , क्योंकि ऐसा न करने से जनरल , जिसका जीवन अधिक मूल्यवान होने के कारण श्रेष्ट्तर है, का जीवित रहना अपेक्षाकृत आवश्यक था |
     इस प्रकार भोजन के सम्बन्ध मे उपरोक्तानुसार सार्वभौम उत्तर व सिद्धांत मे इतना लचीलापन है कि विभिन्न देश काल पात्रगत सापेक्षिकता से इसका स्वतः समायोजन हो जाता है | इस प्रकार हमारे अनुत्तरित चले आ रहे इस आदि प्रश्न का उत्तर मिल जाता है |