Monday, August 2, 2010

झाँसी का राजदंड : जगन्नाथ सिंह

हाल मे ही मेरे एक मित्र ने मुझसे सवाल किया कि आप झाँसी के जिलाधिकारी रह चुके हैं तो आपको पता होगा कि झाँसी का राजदंड कहाँ है ? मेरे द्वारा अनभिज्ञता व्यक्त किये जाने पर उनके द्वारा बताया गया कि झाँसी का राजदंड गोरखा रेजिमेंट की रानीखेत यूनिट मे एक वार मेमोरिअल (विजय चिन्ह )के रूप मे रक्खा है जो यह प्रमाणित करता है कि इस यूनिट ने झाँसी राज्य पर फतह हासिल किया था और झाँसी पर कब्ज़ा किया था | वार मेमोरियल सेना की सबंधित यूनिट के लिए अत्यधिक गर्ब की वस्तु हुआ करती है और उक्त यूनिट के जवान इससे उत्साहित होते हैं , अतयव इसे प्रदर्शन की वस्तु भी माना जाता है | मेरे मित्र को रानीखेत भ्रमण के अवसर पर उन्हें झाँसी का राज दंड इसी रूप मे  दिखाया गया था , जिससे वह काफी दुखी हुए थे |  
      आजाद भारत  मे अब तथ्यों तथा वस्तुओं के मायने बदल गए हैं | झाँसी राज्य पर विजय प्राप्त करना और राज दंड को कब्जे मे लेकर उसे वार मेमोरियल के रूप मे प्रदर्शित करना तथा इस कारनामे पर सेना की अमुक रेजिमेंट तथा यूनिट को गर्ब करना आज स्वतन्त्र भारत मे अराष्ट्रीय और राष्ट्रद्रोह के समान है | एक अन्य उदाहरण लेते हैं | जलियावाला बाग़ मे गोली चलाने का हुक्म जनरल डायर ने दिया था ,पर गोली चलाने वाले हाथ भारतीय थे | ऐसी बर्बरतापूर्ण कार्यवाही पर भारतीय सेना की संबंधित इकाई को गर्ब करना और वहाँ हासिल हुई वस्तुओं को विजय चिन्ह के रूप मे प्रदर्शित करना कहाँ तक उचित है ?    
       झाँसी के राज दंड की तरह सेना के पास बहुत सारे प्रतीक तथा बस्तुएं हो सकते हैं , जिन्हें आज विजय चिन्ह के रूप मे प्रदर्शित किया जाता है ,जबकि वे आज स्वतन्त्र भारत मे विजय चिन्ह के बजाय  कायरता ,बर्बरता ,अत्याचार और राष्ट्रद्रोह के प्रतीक ही माने जावेगे | अतयव सेना तथा संस्कृति विभाग को चाहिए कि वे ऐसे मामलों की गहन छानबीन करके उन्हें तलाशें और ऐसे राष्ट्रीय प्रतीकों को उनके उचित स्थानों पर रखवाने की व्यवस्था करे और संग्रहालयों मे उन्हें ससम्मान  प्रदर्शित किया जावे | अतयव यह उचित प्रतीत होता है कि झाँसी के राज दंड को झाँसी  संग्रहालय मे शीघ्रातिशीघ्र रखवा दिया जाय |   
 
अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

1 comment:

  1. आदरणीय श्री जगन्नाथ सिंह जी,
    नमस्कार।

    आशा है आप स्वस्थ होंगे। वास्तव में आपका लेखन, इस आजाद देश के लिये एक प्रकाश स्तम्भ की तरह से दिशा दिखाने वाला है, लेकिन समस्या ये है कि देखने वाला भी तो कोई होना चाहिये। आपका यह लेख या या विचार बिन्दु आपने 2 अगस्त, 10 को प्रदर्शित किया है, लेकिन हम में से किसी की भी नजर इस पर नहीं गयी। जो इस बात का प्रमाण है कि समय के बदलाव के साथ-साथ लोगों का पढने का स्वाद भी बदल रहा है।

    आपने जलियाँ वाला बाग का उदाहरण सामने रखकर ऐसी स्थिति पेश कर दी है कि जिसका कोई काट नहीं ढूँढ सकता है। आपने इसे राष्ट्रदोह की संज्ञा दी है, लेकिन इसके लिये दोषी कौन है? किसे सजा मिलेगी? किसी को भी नहीं! क्योंकि इस देश में जवाबदारी की कोई व्यवस्था नहीं है। लोक सेवक (जनता के नौकर) स्वयं को लोक स्वामी मानकर काम करते हैं।

    ऐसे में बजाय दण्ड या अन्य किसी भी विषय में माथापच्ची करने के हमें इस बात पर विचार करना चाहिये कि गुलामी की इन शर्मनाक जंजीरों को तोडा कैसे जाये, जिससे कि इतिहास के स्वर्ण बिन्दुओं को गुलामी की कोठरी से आजाद करवाया जा सके?

    इस प्रकार के मामलों को प्रकाश में लाने या उनका समुचित समाधान करवाने में समय एवं संसाधनों की सबसे बडी जरूरत होती है। यदि ये दोनों व्यवस्थाएँ हों जायें तो न्यायिक सहयोग से बहुत कुछ सम्भव है।

    शुभकामनाओं सहित।

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