प्राकृतिक , शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक कार्य व्यवहार के सम्बन्ध मे सम्यक जानकारी न होने तथा कमजोर इच्छाशक्ति के कारण प्रायः बीमारियाँ मनस्तरीय आधार पा जाती हैं | इसके बिपरीत समुचित ज्ञान एवं प्रबल इच्छाशक्ति के चलते मानसिक स्तर पर उत्पन्न बीमारी का शारीरिक स्तर पर अभिव्यक्त होना संभव नहीं होता | इसको निग्रह शक्ति या प्रतिरोधक क्षमता भी कहते हैं | यह जिसमे जितना अधिक होगा , वह उतना ही स्वस्थ रहेगा और कम बीमार होगा |
यहाँ एक उदाहण रखना उपयोगी होगा | काफी उम्र पर पुत्र पैदा होने के कारण एक व्यक्ति अपने पुत्र से अतिशय लगाव रखता है | जिसके कारण पुत्र के मामूली जुकाम से वह बहुत परेशान हो जाता है और वह डाक्टर के पास जाकर बेटे को दिखाता है | दवा दिलाने के बाद बेटे पर टकटकी लगा कर दवा का असर देखने लगता है | थोड़ी देर बाद ही बेटे को पुनः छींक आने पर वह पुनः घबडा उठता है और बेटे को दूसरे डाक्टर को दिखाता है | इस प्रकार अपने बेटे के प्रति अतिशय प्रेम वं सहानुभूति के कारण वह धीरे धीरे अपने बेटे की प्रतिरोधक क्षमता को समाप्त करके उसका बहुत बड़ा अहित करता है |
वस्तुतः बीमारियाँ इस शरीर उद्योग के अवांछित उप उत्पाद के बहिर्गमन की स्वाभाविक प्रक्रिया मे उत्पन्न होती हैं | उदाहरणार्थ शीरा चीनी उद्योग का उप उत्पाद है , जिसकी बदबू के कारण फैक्ट्री वाले तथा आसपास के लोग शीरे को बिलकुल नहीं चाहते | किन्तु हकीकत यह है कि बिना शीरा बने चीनी बनाने की कल्पना नहीं की जा सकती | इसी तरह मानव शरीर मे स्वशन , पाचन , रक्त परिवहन आदि अनेक क्रियाएं चल रही हैं | जुकाम स्वशन क्रिया का स्वाभाविक उप उत्पाद है | इस तथ्य का सम्यक संज्ञान रखने वाला व्यक्ति इसे शरीर की स्वाभाविक क्रिया मानते हुए वह जुकाम से नहीं घबराएगा | वहीँ दूसरी ओर व्यक्ति जुकाम को बीमारी मान कर दवा लेकर बलगम बाहर निकलने की स्वाभाविक प्रक्रिया पर अवरोध लगा देता है | दवा लेने के फलस्वरूप जुकाम तो ठीक हो जाता है , पर बाहर निकलने से रुका हुआ बलगम ब्रेन कंजेशन पैदा करके सरदर्द उत्पन्न करता है और वह जुकाम से ज्यादा परेशान हो जाता है | फिर सरदर्द से निजाद पाने के लिए वह सरदर्द की दवा लेता है | इसके बाद वही बलगम मवाद बनकर फोड़ा बनकर उसकी परेशानी और बढा देता है | फिर वह फोड़े की दवा लेता है | इस दवा के फलस्वरूप फोड़ा तो ठीक हो जाता है पर इसके साथ कैसर की बीमारी से ग्रसित करा देता है | इस प्रकार मामूली जुकाम उस व्यक्ति को डाक्टर तथा बीमारियों के कुचक्र मे डालकर कैंसर तक पहुँचा जाता है | यह है हमारी चिकित्सा पद्यति की असली हकीकत| इस स्वस्थ बोध से उसकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ेगी | वह यह भी समझ जायेगा कि सहानुभूति उसके लिए अस्वास्थ्य कर एवं हानिकारक ही है |
मोटे तौर पर यदि देखा जाय तो स्वस्थ रहने के लिए शारीर के दो अवयवो का ठीक रहना अत्यावश्यक है | यह दोनों अंग हैं दांत और दिल | दांत के ठीक व् स्वस्थ होने की दशा में खाने का भरपूर चबाना संभव हो जाता है | यदि खाने को खूब चबा चबा कर खाया जाय तो खाना पूरा पूरा पच जाता है | ऐसी दशा में उदर की कोई बीमारी नहीं हो सकती | इसी प्रकार दिल दूसरा अंग है , जिसके ठीक ठाक होने से हम अधिकांश बीमारियों से बचे रह सकते हैं | इस प्रकार यदि दांत और दिल पूरे - पूरे स्वस्थ और ठीक होते हैं तो हम ७०% बीमारियों से बचे रहते हैं | इस प्रकार लोगो को दांत और दिल को ठीक रखने के सम्बन्ध में कुछ अधिक गंभीर एवं सतर्क होना चाहिए |
पहले हम दांत को लेते हैं | दांत से हम खाना चबाने का काम करते हैं | सारे जीवों को हम शाकाहारी और मांसाहारी दो श्रेणियों मे विभक्त कर सकते हैं | आसानी से समझने के लिए यहाँ हम जानवरों का उदाहरण लेते हैं | शाकाहारी भोजन करने वाला जानवर फल, घास एवं पत्तियों को उसी रूप मे खाता है और बाद मे जुगाली करके भोजन को पचाता है | इसी प्रकार मांसाहारी जानवर शिकार करके कच्चा ही खा जाता है | इस प्रकार j खाने की प्रक्रिया मे ही जानवरों के दांतों का व्यायाम एवं साफ़ सफाई स्वयमेव हो जाती है | यही कारण है कि किसी जानवर का दांत अपरिवक्व रूप मे न तो ख़राब होता है और न ही टूटता है |जानवर कभी ब्रश भी नहीं करते और न ही ठंढा - गरम व् मसालेदार खाना ही करता है | इस प्रकार यदि हम भोजन मे जानवरों से सीख लें तो मनुष्य के दांत हमेशा - हमेशा के लिए ठीक रह सकता है | उसके लिए आवश्यक है कि जब फल (सेब) खाना हो तो उसे चाक़ू से काटकर खाने के बजाये जानवरों की तरह सीधे दांतों से खाया जाए | इस प्रकार भोजन करने मे जानवरों का अनुसरण कर प्रकृति के निकटस्त रह कर ठंडा - गरम के बेमेल व् मसालेदार खाने से बचना चाहिए , तभी दांत पूर्णतया स्वस्त रह सकेगा |
अब हम दिल को लेते हैं | मोटे तौर पर समझे तो दिल एक मशीन की तरह है | किसी मशीन के समुचित रख रखाव के उद्देश्य मशीन को उसकी औसत गति पर चलाना जरुरी होता है और २४ घंटे मे लगभग आधे घंटे के लिए उस मशीन को औसत से अधिक गति से चलाना चाहिए | तभी उक्त मशीन को बिलकुल ठीक ठाक रखा जा सकता है | इसे समझने के लिए हम एक स्कूटर का उदाहरण लेगे | एक भारी शरीर का सेठ अपनी गद्दी जाने आने का काम अपने स्कूटर से करता था | वह डरते हुए २० -२५ किलोमीटर रफ़्तार से स्कूटर चलाता था , जिससे उसके स्कूटर की तेल वाहनियाँ सिकुड़ गयीं थी और इससे अधिक पेट्रोल जाने पर तेल नलिकाओं के फटने की सम्भावना बनी रहती है | अधिक रफ़्तार होने पर इंजिन और कारबोरेटर भी फेल हो सकता था , क्योंकि उनका समयोजम इसी गति से हो गया था | सेठ जी को एक संकटकालीन स्थिति मे अपनी जान बचाने के लिए ७० - ८० किमी रफ़्तार से स्कूटर भगाना पड़ता है | ऐसी स्थिति मे उक्त स्कूटर की तेलवाही नलिकाएं या तो फट जाएगी अथवा इंजन या कारबोरेटर बुरी तरह फेल हो जायेगा और सेठ जी की जान को गंभीर खतरा भी उत्पन्न हो जायेगा | अतयव दिल को ठीक रखने के लिए दिल से औसत गति से काम लेना चाहिए , यानि शारीरिक श्रम करते रहना चाहिए | इतना ही नहीं , २४ घंटे मे आधे घंटा दिल को औसत से अधिक गति से काम कराना चाहिए | यानि आधे घंटा हांफने वाला काम करना चाहिए | तभी दिल ठीक ठाक रह सकेगा | फौजी तथा खिलाडी को कभी हार्ट अटैक नहीं होता | अतः दिल को उपरोक्तानुसार ढंग से ठीक एवं स्वस्थ रखना आवश्यक है |
अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा
अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम डॉ. सिंह के ब्लॉग को श्रेष्ठ समसामयिक लेखन के लिए ढ़ेरों बधाईयां...बुंदेलखंड को अगर एक शरीर माने तो नागरिकों की जागरूकता ही उनकी इच्छाशक्ति है, जिसको जगाने का काम आपकी संस्था कर रही है। आरटीआई फाउंडेशन और विकास की जंग वहां के दांत है जिनको मजबूत करना है, महत्वपूर्ण बात है कि इस मजबूती से न सिर्फ बुंदेलखंड बल्कि पूरा राष्ट्र सबल हो। ऐसे प्रयासों से स्वस्थ्य और सम्यक बुंदेलखंड का निर्माण हो सकेगा।
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