Saturday, October 23, 2010

खुद अपने को बचाना : एक घातक कदम

 सामान्यतया लोग असफलताओं, दुर्घटनाओं या गलतियों के लिए स्वयं को कभी दोषी नहीं मानते और अपने प्रति पक्षपाती रवैये के कारण अपने को साफ साफ बचा जाते हैं | प्रत्येक दुर्घटना व गलती होने की स्थिति मे दूसरों पर दोष मढ़ने की प्रवृति प्रायः सबमे दिखाई पड़ती है | यह निःसंदेह अत्यधिक   घातक और अस्वस्थ स्थिति व प्रक्रिया होती है और इससे किसी का भला होने की बिलकुल सम्भावना नहीं होती |

                 वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति का अपने ऊपर ही पूरा- वश होता है और वह अपने बारे मे ही पूरी पूरी जिम्मेदारी ले सकता है | शराब पीकर खतरनाक ढंग से वाहन चलाता हुआ व्यक्ति यदि आप से टकरा जाता है अथवा  अचानक आई खराबी के कारण वह अपने वाहन पर नियंत्रण न रख सकने के कारण दर्घटना कर देता है,  तो ऐसी स्थिति मे हम सभी सामान्यतया उक्त वाहन चालक को दोषी मान बैठते हैं और अपने को इस सम्बन्ध मे दायित्व बोध से पूरा- पूरा मुक्त साबित करते अथवा  समझ लेते हैं | ऐसी सोंच ही दुर्घटनात्मक और अत्यधिक घातक होती है |

              वस्तुतः प्रत्येक दुर्घटना के सन्दर्भ मे हर हाल मे व्यक्ति को दूसरों पर दोषारोपण दोषी समझने के बजाय स्वयं अपने आप को ही दोषी व जिम्मेदार मानना चाहिए कि हमने इस सम्भावना को ध्यान मे रखकर वाहन क्यों नहीं चलाया कि दूसरा वाहन चालक शराब पीकर वाहन चला रहा हो सकता है और  उसके वाहन मे अचानक आई तकनीकी खराबी की सम्भावना के दृष्टिगत रखते हुए  हमें स्वयं सतर्क रहना चाहिए था | अर्थात दूसरे वाहन चालकों की गलतियों के लिए भी स्वयं को ही जिम्मेदार समझना चाहिए | ऐसी भावना और मनोवृति हमें हमेशा दुर्घटनाओं से बचाती रहेगी |

              ऐसी परिस्थियों मे हमें सोचना चाहिए कि हमारा उद्देश्य वाहन चलते समय दुर्घटना से बचना है और यह तभी संभव है,  जब हम प्रत्येक दुर्घटनात्मक परिस्थियों के लिए खुद अपने को ही जिम्मेदार माने और  दूसरों पर दोषारोपण करने की प्रवृति छोड़ें | अन्यथा हम दुर्घटनाओं से नहीं बच सकते | अर्थात वाहन चलाते वक्त विचार करना चाहिए कि हमने क्यों नहीं सोंचा कि अन्य वाहन चालक ने शराब पी रखी हो या उसके वाहन मे अचानक ब्रेक फेल होने जैसी तकनीकी खराबी भी आ गयी हो | इन सभी सम्भावनाओं का पूर्वानुमान करके वाहन चलाने की जिम्मेदारी खुद आपकी अपनी ही है , तभी आप दुर्घटनाओं से बच सकेगें | अच्छा चालक वही है जो प्रत्येक आसन्न या घटित दुर्घटना के लिए दूसरे को दोषी ठहराने के बजाय अपने को ही जिम्मेदार समझता है, क्योंकि दूसरों की गलती का खामियाजा तो आपको ही भुगतना होता है  | ऐसी सोंच वाला व्यक्ति हमेशा दुर्घटना से बचा रहता है और जीवन मे कभी भी दुर्घटना का शिकार नहीं होता |

             दुर्घटना के अलावा अन्य सभी क्षेत्रों मे भी यह मनोवृति काफी लाभदायक सिद्ध हो सकती है और हम जीवन की अनेकानेक दुर्घटनाओं से बच सकते हैं | ऐसी परिस्थियों मे व्यक्ति दूसरों को उत्तरदायी मानने के बजाय सबसे पहले यदि खुद अपने बारे मे सोंचने लगे कि वह प्रकरण मे कहीं वह स्वयं तो जिम्मेदार नहीं है अथवा वह स्वयं किस अंश तक जिम्मेदार है ? इसके बाद दूसरों की जिम्मेदारी के सम्बन्ध मे विचार करना चाहिए | इस मनोवृति से जीवन की तमाम समस्याएं खेल खेल मे सुलझ जावेंगी और तनाव मुक्त जीवन का लक्ष्य भी प्राप्त करना संभव हो सकेगा |

Saturday, October 16, 2010

राष्ट्रमंडल खेलों की सफलता तथा इससे मिलती सीख व अनुभव

राष्ट्रमंडल खेलो की सफलता व गौरवपूर्ण परिसमाप्ति के तुरंत बाद इसका श्रेय लेने की राजनेताओं मे होड़ मची हुई है | राजनेता भले ही अपने मुह मिया मिट्ठू बनकर खुद अपनी पीठ थपथपा लें , देश की जनता किसी राजनेता को इसका श्रेय देने से रही , क्योकि लोगो को बखूबी पता है कि राजनेताओं ने खेलों तथा खेल आयोजनों के सम्बन्ध मे न तो समय से निर्णय लिए और इसकी तैयारियों मे काफी घपलेबाजियां की गयी थी, भ्रष्टाचार का नंगा नाच हुआ और पूरे देश की साख को बट्टा लगाया | इन नेताओं और व्यवस्थाकारों ने खिलाडियों को अभ्यास के लिए आवश्यक साजो समान तक समय से नहीं मुहैया कराया , उदाहरणार्थ निशानेबाजों को अभ्यास के लिए समय से  कारतूस तक नहीं उपलब्ध कराये गए थे | ऐसी स्थिति मे राजनेताओं को श्रेय देने का प्रश्न नहीं उठता | आज की जनता बहुत होशियार हो गयी है और देश की जनता को यह भली भांति पता है कि इस सम्बन्ध मे किसी भी प्रकार का श्रेय राजनेताओं , खेल प्रशासन , खिलाडियों , प्रशिक्षकों तथा कोच मे से किसको मिलना चाहिए | 

                  इस गौरवशाली सफलता मे सबसे पहला श्रेय खिलाडियों को मिलना चाहिए, जिन्होंने जी तोड़ मेहनत करके इतने अधिक पदक जीते | यदि खिलाडियों को समय से प्रचुर सुविधाएँ उपलब्ध करायी जाती, तो स्वर्ण पदकों तथा जीते गए पदकों की कुल संख्या काफी अधिक होती | इस खेल महाकुम्भ के आयोजन का  सर्बाधिक लाभ यही रहा है कि देश मे खेल पुनर्जागरण के अभिनव युग का सूत्रपात हो चुका है और अब खेल यात्रा विश्व विजय के बाद ही थमेगी , जिसका प्रमाण एक माह बाद ही आयोजित होने वाले एशियन खेलों से मिलना शुरू हो जावेगा और अगले ओलम्पिक तथा राष्ट्रकुल खेलों मे व्यापक प्रभाव परिलक्षित होगा, ऐसी उम्मीद बनी है |

                 खेल के क्षेत्र का सबसे बड़ा कार्य यही है कि प्रारंभिक स्तर पर खेल प्रतिभाओं की  पहचान करने की धरातल स्तर की व्यावहारिक योजना बनायीं जाय और इसका पूरी ईमानदारी से कार्यान्वित किया जाय | राजनीति को कमसे काम इस स्तर पर पूर्णतया अलग थलग रखा जाय , क्योंकि राजनीति और भाई भतीजाबाद वस्तुतः खेल को बिगाड़ते हैं और प्रारंभिक स्तर पर हुई गड़बड़ी को आगे किसी तरह ठीक नहीं किया जा सकता | प्रारंभिक चयन के बाद उनका सर्बश्रेष्ट  प्रशिक्षण देकर उनकी क्षमता तथा कौशल का सुधार करना और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाडियों के साथ खेलने का अवसर दिलाना काफी लाभदायक हो सकता है | उपयुक्त स्तरों पर तत्क्रम पर समीक्षा करना भी आवश्यक होगा | राज्यों को इस सम्बन्ध मे सर्बाधिक दिलचस्पी लेने का बहुत अच्छा लाभ मिलेगा , जैसा कि हरयाणा सरकार ने करके अनुकरणीय उदाहरण अन्य राज्यों के समक्ष रखा है , जिसके चलते छोटे से हरयाणा राज्य के खिलाडियों ने हर राज्य से अधिक पदक जीते | इसके अलावा  खेल को कैरियर के रूप अपनाने  का अवसर उपलब्ध कराने के आशय से तकनीकी संस्थानों की तर्ज पर बड़े पैमाने पर खेल संस्थान खोलने की भी जरुरत होगी | तत्क्रम मे सरकारी नीति निर्धारण की  भी आवश्यकता होगी |     

Friday, October 8, 2010

समाज एवं सामाजिक प्रगति

            नैतिकता के प्रथम अभिप्रकाशन से समाज का जन्म होता है और यही समाज यात्रा का प्रारंभ बिंदु होता है | जंगल मे अकेले पूर्णतया स्वेच्छाचारी  जीवन व्यतीत कर रहे आदि मानव के मन मे जब पहले पहल  समूह हित मे निजी स्वार्थ को त्यागने का विचार उत्पन्न हुआ होगा  , वह समाज यात्रा का प्राम्भ विन्दु था और तभी समाज का जन्म भी हुआ था | वसुधैव कुटुम्बकम, जहाँ सारी संकीर्णताओं से रहित होकर मन का कोण ३६० डिग्री का बन जाता है , समाज यात्रा का चरम विन्दु होता है | यह सामाजिक पूर्णता का परिचायक और समाज का अंतिम लक्ष्य बिंदु भी होता है | 

              नैतिकता के प्रथम अभिप्रकाशन से प्रारंभ होकर वसुधैव कुटुम्बकम के चरम लक्ष्य की ओर गतिमानता ही सामाजिक प्रगति होती है | इस सार्बभौम लक्ष्य के बिपरीत गत्यात्मकता  को हम सामाजिक अवनति या समाज विरोधी भावधारा समझ सकते हैं | सामाजिक प्रगति मार्ग मे तरह तरह के प्रलोभनों और आकर्षणों के साथ अलग अलग खेमा जमाये बैठे हुए अनेक समूह लोगो को अपने खेमे मे लेने हेतु प्रयासरत रहते हैं | उनका कहना होता है कि वही ईश्वर के सबसे खास और प्रिय जन हैं और केवल वे ही ईश्वर के बताये रास्ते पर चलने वाले लोग हैं | उक्त समूह विशेष के कतिपय के विधि निषेध भी होते हैं , जिनका अनुपालन सदस्यों को अवश्यमेव करना पड़ेगा , जिसके एवज मे उन्हें कतिपय संरक्षण व लाभ की गारंटी भी दिया जाता है | इन विशिष्ट समूहों को हम मजहब के  नाम से जान सकते हैं | अब प्रश्न उठता है कि कहीं मजहब सामाजिक प्रगति मे बाधक तो नहीं होता  हैं ? इसका उत्तर निःसंदेह  नकारात्मक है | मजहब व्यक्ति को अनेकानेक अच्छाइयों का बहुमूल्य तोहफा तो देता है , पर इसके साथ ही उनकी सोंच को संकुचित भी  कर देता है , जिसके फलस्वरूप उनके मन का कोण ३६० डिग्री कभी नहीं बन पाता |  ऐसी दशा मे समाज बसुधैव कुटुम्बकम के अपने चरम लक्ष्य यानि पूर्णता  को कभी  नहीं प्राप्त कर सकेगा  | इस प्रकार मजहब निश्चित रूप से सामाजिक प्रगति का विरोधी है |
                व्यक्तियों का वह समूह , जो समाज को उसकी पूर्णता व लक्ष्य बिंदु की ओर ले जाने और समाज के प्रारंभ व पूर्णता के अन्तराल को कम करने हेतु सक्रिय व प्रयासरत होते हैं , समाज के नाम से जाने जावेगे |


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

गति और प्रगति

           हर गति प्रगति नहीं है | गति के बहुत अधिक या सर्वाधिक होने के बावजूद यह आवश्यक  नहीं कि यह प्रगति ही हो |  किसी गति की दिशा और दशा के आधार पर ही आकलन करके यह कहा जा सकता है कि अमुक गति प्रगति है अथवा नहीं ? लक्ष्य की ओर गतिमानता ही वस्तुतः प्रगति है | गति लक्ष्याभिमुखी अथवा लक्ष्याविमुखी  दोनों ही प्रकार की हो सकती है | सामान्य से दस या सौ गुना रफ़्तार वाला वाहन भी , यदि उसका रुख लक्ष्य की विपरीत दिशा मे है , तदनुरूप रफ़्तार मे लक्ष्य से दूर होता जायेगा |

             विश्व के पश्चिमी देशों की गति तो बहुत है , पर लक्ष्य विहीन अथवा लक्ष्य के बिपरीत रुख होने के कारण उतनी ही तेज रफ़्तार से वे जीवन के वास्तविक लक्ष्यों से दूर होते जा रहे हैं | जीवन का वास्तविक लक्ष्य है प्रफुल्लता , आनंद , नीद , संतोष और मानसिक शांति | जिसे पश्चिमी देशों के लोग खोते जा रहे हैं | प्रफुल्लता और आनंद की विचारधारा से ही वे सर्वथा अनभिग्य हैं और इनसे उनका नाता एकदम टुटा हुआ है , उनके जीवन मे मानसिक शांति तो बिलकुल है ही नहीं  और संतोष से उनका पूर्ण अपरिचय ही होता है | नीद की गोलियों के बिना वहां  किसी को नीद नहीं आती | उनके पास तो होती है बस मानसिक अशांति और फ्रस्ट्रेशन | ऐसी स्थिति मे पश्चिम की अति तीव्र गति को  हम प्रगति कदापि नहीं  कह सकते हैं ? तभी तो पश्चिम के लोग भारत के अध्यात्म , योग और भारतीय दर्शन की ओर झुक रहे हैं और भारत को एक बार पुनः विश्व गुरु बनने का वातावरण बन गया है | परन्तु यहाँ एक बड़ा खतरा भी उत्पन्न हो गया है कि बाबा रामदेव सरीखे कतिपय अपवादों को छोड़कर भारत के बहुत सारे योग व अध्यात्म गुरु विदेशियों की इस भावना का भरपूर शोषण व दोहन भी कर रहे हैं और भारत की छवि धूमिल करने कर सकते हैं |
            इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र मे लक्ष्य का निर्धारण किया जाना अत्यावश्यक है तभी प्रत्येक क्षेत्र यथा शिक्षा , स्वास्थ्य , विकास , राजनीति , विज्ञानं आदि क्षेत्र  की गति को प्रगति अथवा अन्यथा समझने की स्थिति बन सकेगी और तदनुसार प्रत्येक क्षेत्र के क्रिया कलापों का सम्यक मूल्याकन करना भी संभव हो सकता है |  
             यह तो एक पक्ष है | केवल पश्चिमी देशों का जीवन दर्शन एवं जीवन शैली ही दोषपूर्ण है और भारत के लोग सही व दूध के धुले हैं | यह एक अर्धसत्य है | भारत के लोग भी उतने ही गलत हैं , जितने कि पश्चिमी देशों के लोग | भारत के लोग पश्चिम का अन्धानुकरण करके उनके जैसा बनते जा रहे हैं | पश्चिम के लोग जिन बातों को बहुत पहले छोड़ चुके हैं , भारत के लोग उन्हें ही अपनाने मे गर्ब महसूस करते हैं | उनकी भाषा , रहन सहन व संस्कृति को अपनाने मे हम बहुत आतुर रहते हैं और अपनी अच्छाइयों , जिन्हें आज विदेशी लोग अपनाना चाह रहे हैं , हम उन्ही अच्छाइयों को भूलते और छोड़ते चले जा रहे हैं | अब हमारी स्थिति भी पाश्चात्य लोगों की तरह होती जा रही है और अब हमें भी नीद के लिए नीद की गोलियों की ज़रूरत पड़ने लगी है और उन्ही की तरह अनिद्रा , मानसिक अशांति तथा फ्रस्ट्रेशन के शिकार होते जा रहे हैं |   


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

भारत की सुरक्षा और अस्मिता से जुडी विशिष्ट पहचान संख्या योजना


          भारत के नागरिको की अस्मिता एवं पहचान की समस्या निरंतर बनी रहती थी , जिसका खामियाजा नागरिको को समय - समय पर भुगतना पड़ता रहा है | संविधान मे प्रदत्त मौलिक अधिकारों के बावजूद इस पहचान के संकट के चलते भारत का नागरिक अपने को पूर्णतया स्वतन्त्र महसूस व साबित करने मे अपने को सक्षम नहीं पाता था | व्यक्ति प्रायः एकाध बार पुलिस के हत्थे अवश्य  चढ़ चुका होता है और उसे बेतुके सवालों का सामना करना पड़ चुका होता है अथवा पड़ सकता है | यां सवालात हैं कि  तुम कौन हो , कहाँ से आ रहे हो , क्या नाम है , तुम अवश्य कोई चोर हो , तुम्हारे अन्य चोर साथी कहाँ हैं ? ऐसी स्थितियों मे हम अपने को बड़ी असहाय स्थिति मे पाते हैं और पुलिस को पूर्णतया संतुष्ट करने मे समर्थ नहीं महसूस करते | इस पहचान के संकट के कारण हम कभी कभी अपने देश मे ही बेगानापान महसूस करने हेतु बाध्य होते  हैं | 
              भारत सरकार नागरिकों को पहचान पत्र प्रदान करने की दिशा मे काफी समय से चितित रही है और अंततः वह समय आ ही गया , जब देश  के प्रत्येक नागरिक को विशिष्ट पहचान पत्र देने का निर्णय लेकर नागरिकता को सम्मान प्रदान किया जा रहा है | प्रधान मंत्री एवं यु पी ए अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने महाराष्ट्र के नान्दुवर जिले के तेंभली गाँव , जिसकी ९७% जनसँख्या आदिबासी है , मे २९ सितम्बर  को विशिष्ट संख्या वाले पहचान पत्र योजना का शुभारम्भ करते हुए उदघाटन कर चुके हैं | सरकार का यह निर्णय स्वागत योग्य है और आजादी के ६३ साल बाद ही सही , इस सबसे जरुरी काम को अंजाम दिया जा रहा है | अब किसी भारतीय को रोककर कोई पुलिस कर्मी कोई ऊल जलूल सवाल नहीं पूछ  सकेगा और अब कोई अपने को असहाय स्थिति मे नहीं महसूस करेगा |
            विशिष्ट संख्या वाले पहचानपत्र मिलने के बाद अब किसी को बैंक व अदालतों मे अपनी  पहचान के लिए वकीलं तथा गवाहों  की जरुरत नहीं होगी | अब प्रत्येक भारतीय संविधान मे प्रदत्त मौलिक अधिकारों का सम्यक एवं पूर्ण उपयोग कर सकेगा तथा सरकारी योजनाओं का लाभ प्राप्त करने से अब कोई बंचित नहीं होगा | यह पूरे विश्व की सबसे अभिनव एवं महत्वाकांक्षी योजना है | अतयव प्रत्येक भारतवासी को चाहिए कि वह इस यूनिक आइ यु डी अर्थात विशिष्ट संख्या वाले पहचान पत्र प्राप्त करने हेतु जागरूक रहकर स्वयं भी प्रयासरत हो जाये | सरकार को भी इस अत्यधिक उपयोगी परियोजना को युद्ध स्तर पर शीघ्रता से पूर्ण कराना चाहिए | 
              इस परियोजना मे बायोमीट्रिक डाटा इस्तेमाल किया जावेगा | इस बायोमीट्रिक डाटा मे अँगुलियों के निशान तथा आँख की पुतली का स्कैन किया जायेगा | अपराध नियंत्रण , आतंकबाद तथा देश की सुरक्षा की दिशा मे इससे बहुत मदद मिल सकेगी | इस प्रकार संचार क्रांति तथा आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करते हुए यह विश्व की सबसे बड़ी और अभिनव परियोजना बन गयी है |  
           १२ अंको वाला यह पहचान पत्र पूरे देश एवं पूरी दुनिया में व्यक्ति की पहचान को प्रमाणित करेगा और बिना कुछ बोले बताये इससे जाना जा सकेगा कि अमुक व्यक्ति भारतीय है और भारत के अमुक प्रान्त , अमुक जनपद , अमुक थाना , अमुक गाँव का अमुक नामधारी व्यक्ति है | इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि एक भारतीय विदेश के किसी दूरस्थ स्थान पर यदि वेहोश हो जाता है , तो इस पहचान पत्र से ही यह पता चल जायेगा कि अमुक बेहोश व्यक्ति भारतीय है और भारत के अमुक प्रान्त , अमुक जनपद , अमुक थाने  के अमुक गाँव का अमुक नामधारी व्यक्ति है | इससे यह सहज ही समझा जा सकता है कि यह परियोजना  व्यक्ति तथा देश के लिए कितना उपयोगी है |r अब कोई विदेशी आतंकवादी द्वारा मुंबई मे ताज होटल जैसी घटना को अंजाम देने की बात दूर है , देश मे घुसकर अपनी पहचान बिलकुल ही नहीं छुपा पावेगा | 


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

वृद्ध भ्रान्ति : अंतर्राष्ट्रीय वरिष्ट नागरिक दिवस पर विशेष

       प्रत्येक वर्ष १ अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय वरिष्ट नागरिक दिवस का आयोजन किया जाता है | इस अवसर पर अपने वरिष्ट नागरिको का सम्मान करने एवं उनके सम्बन्ध मे चिंतन करना आवश्यक होता है | मेरी समझ मे एक दिन के सम्मान से अधिक वरिष्ट नागरिकों के बारे मे चिंतन करना अपेक्षाकृत उपयोगी होता प्रतीत होता है | आज का वरिष्ट समाज अत्यधिक कुंठा ग्रस्त है और सामान्यतया इस बात से सर्बाधिक दुखी है कि जीवन का विशद अनुभव होने के बावजूद कोई उनकी राय न तो लेना चाहता है और न ही उनकी राय को महत्व ही देता है | इस प्रकार अपने को समाज मे एक तरह से  निष्प्रयोज्य समझे जाने के कारण हमारा वृद्ध समाज सर्बाधिक दुखी रहता है | वृद्ध समाज को इस दुःख और संत्रास से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी जरुरत है | मेरा उद्देश्य इसी दिशा मे प्रयास करना है | 

                      बृद्ध समाज सामान्यतया एक बीमारी का शिकार है , जिसका इलाज करना आवश्यक है | इस बीमारी का नाम है वृद्ध भांति | प्रत्येक वृद्ध के मन मे यह विचार बैठा हुआ होता है कि उसके बाल धूप मे नहीं सफ़ेद हुए हैं अर्थात अपने सुदीर्घ जीवन मे उन्होंने बहुत सारा अनुभव अर्जित एवं संग्रहीत कर रखा हैं , जो बहुत मूल्यवान एवं उपयोगी है और जिसे वह अपने परिवार तथा समाज को निःशुल्क देना चाहता है | पर वह तब बहुत निराश व दुखी महसूस करता है , जब उसे पता चलता है कि कोई यहाँ तक कि परिवार वाले भी उनके इस अनुभव का कोई लाभ नहीं उठाना चाहता , जबकि अनुभव का यह विशाल आगार घर मे ही संग्रहीत और सहज ही सुलभ होता है  | यही प्रत्येक वृद्ध के मन की पीड़ा होती है और इसी पीड़ा से वह आजीवन कुंठाग्रस्त रहता है |
                      इस परिप्रेक्ष्य मे हमें इस प्राकृतिक एवं नैसर्गिक तथ्य का समुचित संज्ञान लेना आवश्यक प्रतीत होता है कि त्रिगुणात्मिका शक्ति की अवधारणा प्रकृति का सबसे बड़ा सिद्धांत है और तदनुसार गुण श्रेष्टता भी स्वतः प्रमाणित  है | सत्वगुण श्रेष्टतम , रजोगुण श्रेष्ट्रतर तथा तमोगुण श्रेष्ट होता है | भोजन भी तदनुसार तीन श्रेणियों मे विभक्त किया जा सकता है और भोजन के अनुसार ही गुण विकसित होता है | दूध सात्विक भोजन होता है और दूध का सेवन करने वाला बच्चा सत्वगुण संपन्न यानि श्रेष्टतम होता है | थोड़ा बड़ा होकर वही बच्चा अनाज का राजसिक भोजन करने लगता है और तदनुसार रजोगुण संपन्न यानि क्रियाशील हो जाता है | जवानी तक यही क्रम चलता रहता है , यानि सत्वगुण घटता और रजोगुण बढ़ता जाता है | प्रौढ़ावस्था के बाद तमोगुण यानि निष्क्रियता की स्थितियां प्रारंभ हो जाती है | इस दौरान सत्वगुण तो समाप्तप्राय हो जाता है , रजोगुण उत्तरोतर कम होता जाता है और तमोगुण का वर्चश्व बढ़ता जाता है | बालक , युवा तथा वृद्ध की तदनुसार स्थितियां होती है , जिसे लोग समझ नहीं पाते |  इस नैसर्गिक तथ्य से हमें वृद्ध भ्रान्ति को समझने मे सहूलियत होगी |   
            जीवन मे और वरिष्ट नगरको की दृष्टि मे विशेषकर अनुशासन का बहुत महत्व होता है | वरिष्ट के आदेशों व निर्देशों का स्वयमेव कनिष्ट द्वारा पालन करना ही अनुशासन होता है | वरिष्टता क्रम उपरोक्तानुसार नैसर्गिक नियम के अनुसार स्वतः निर्धारित हो चुका है कि बच्चा वरिष्तम , युवा श्रेष्ट्तर तथा वृद्ध श्रेष्ट होते हैं | इस प्रकार निम्न श्रेणी (बृद्ध ) द्वारा उच्च श्रेणी के युवा व बच्चों की भावनाओं व अपेक्षाओं को दृष्टिगत रखते हुए उनके निर्देशों का अनुपालन किया जाना चाहिए , ताकि अनुशासन का वातावरण बन सके और नैसर्गिक नियमो का  पालन भी हो सके | अन्यथा अनुशासनहीनता की स्थिति उत्पन्न होगी , जिसका सम्पूर्ण उत्तरदायित्व बृद्ध समाज पर ही होगा | इस प्रकार वृद्धों को युवा तथा बच्चों की भावनाओं तथा अपेक्षाओं को भली भांति समझकर तदनुसार कार्यविधि अपनाना चाहिए | तदनुसार दायित्व बोध से अधिक उन्हें कोई अपेक्षा नहीं करनी चाहिए | तभी अपने को सबसे श्रेष्ट समझने की बृद्ध समाज के त्रुटिपूर्ण चिंतन मे सुधार आ सकेगा और तभी बृद्ध भ्रान्ति समाप्त हो सकेगी | मात्र  इससे ही उनकी कुंठा तथा संत्रास का निवारण और अनपेक्षित मनस - विकार भी दूर हो सकेगा |                       
--          इसके साथ साथ अपने अर्जित और संग्रहीत वेशकीमती अनुभवों को कूड़ेदान मे फेकने के बजाय उन्हें उपयोग मे लाने की दिशा मे चिंतन करते हुए क्रियाशील हो जाना चाहिए | बृद्ध समाज अपने आप मे इस दिशा मे अपनी सक्षमता को पहचानना चाहिए और इस नए परिवार को शक्तिसंपन्न करने की दिशा मे सक्रिय हो जाना चाहिए | वृद्ध समाज  इसे ही अपने वर्तमान का संकल्प बना लेना चाहिए , तभी यह अति मूल्यवान तबका समाज मे अपना वर्चश्व व उपादेयता पुनः स्थापित कर पायेगा |  


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Thursday, September 30, 2010

चिकित्सा का अधिकार बनना चाहिए मौलिक अधिकार

     घरेलु कामगरों , मजदूरों तथा ग्रामीणों के संपर्कों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि ९०% जनता का न तो कोई चिकित्सक होता है और न ही उन्हें किसी प्रकार की चिकित्सकीय सुविधा ही मुहैया हो पाती है | यह बेचारे सामान्यतया झोला छाप डाक्टरों तथा नीम हकीमो से अपना इलाज कराने को विवश होते हैं | यही उनके एकमात्र सहारा होते हैं और गंभीर बीमारियों मे यही उनकी जान लेवा भी साबित होते हैं | अधिकांश निजी चिकित्सक शहरों मे ही रहकर इलाज करते हैं और उनकी मरीजों को देखने की फीस भी बहुत अधिक होती है | उनकी फीस देने और उनके परामर्श पर दवा खरीदने की क्षमता इन ९०% लोगों के सामर्थ्य से बाहर होती है | सरकारी अस्पतालों पर लोगो का विश्वास नहीं बन पा रहा है और वे लोगो की अपेक्षाएं पूरी करने मे सफल होते नहीं दिखाई देते हैं | 

                   अभी कुछ महीनो पहले शिक्षा के अधिकार का अधिनियम बना था और इस समय खाद्य सुरक्षा पर और बड़ी गंभीरता से बहस चल रही है और निकट भविष्य मे खाद्य सुरक्षा पर अधिनियम  बन जाने की उम्मीद है | बस्तुतः सबसे ज्यादा जरुरत स्वास्थ्य सुरक्षा की है , क्योकि स्वास्थ्य के लिए व्यक्ति पूर्णतया चिकित्सक पर निर्भर होता है , जबकि उत्पादक होने के कारण  खाद्य सुरक्षा के सन्दर्भ मे व्यक्ति काफी हद तक स्वावलंबी होता है | हकीकी यह भी है कि बिमारिओं  से मरने वालों की सख्या सबसे अधिक होती है , जबकि भूख से मरने वालों की संख्या नाम मात्र की ही होती है | इस प्रकार खाद्य सुरक्षा से पहले स्वास्थ्य सुरक्षा के सन्दर्भ मे कार्यवाही किये जाने की आवश्यकता है | आम व्यक्ति को सरकार से सबसे बड़ी अपेक्षा स्वास्थ्य सुरक्षा की है , अन्यथा उनके लिए सरकार की कोई खास जरुरात नहीं है | अतयव आम आदमी की सबसे बड़ी जरुरत पर विशेष और सबसे पहले ध्यान देना चाहिए |  

 अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा