Wednesday, July 21, 2010

बिवाह की प्रास्थिति तथा बैवाहिक सामंजस्य

प्रेम संसार की अमूल्य निधि है जो ईस्वरीय विधान के अनुसार एक ईश्वर का सबसे अनुपम उपहार है | कहते हैं की स्त्री पुरुष के जोड़े स्वर्ग मे बनते हैं और बिवाह द्वारा वे एक दूसरे से मिलते हैं | बिवाह की संस्था प्रेमी युगल को साधिकार प्रेम की अनुज्ञा प्रदान करता है और परिवार की संस्था मे पूर्ण व वास्तविक प्रवेश दिलाता है | मनुष्य का अस्तित्व स्पंदनयुक्त अर्थात तरंगवत है ,दूसरे शब्दों मे मनुष्य वस्तुतः मनो भौतिक आत्मिक तरंगो व स्पंदन का एक स्वरूप मात्र होता है | एक स्त्री व पुरुष के मनो भौतिक आत्मिक तरंगो के समानान्तरीकरण अर्थात पूर्णरूपेण विलय कराने वाली प्रक्रिया को बिवाह  कहते हैं | विश्व के समस्त देशों एवं समाजों मे बिवाह  की अवधारणा तथा प्रक्रिया अलग अलग है | प्रत्येक देश व समाज मे बिवाह एक संस्कार एवं उत्सव के रूप मे मनाया जाता है और यह सभी लोगो को अपनी खुशियों को अभिव्यक्त करने का एक महत्वपूर्ण अवसर भी होता है |
      पहले माता पिता तथा परिवार लड़की के लिए लड़का ढूंढते  और फिर बिवाह संपन्न कराते थे | तब लड़की लड़के को शादी से पहले मिलकर एक दूसरे को समझने बूझने तथा पसंद नापसंद करने का कोई अवसर नहीं होता था | आज भी भारत मे अधिकांश शादियाँ इसी प्रकार तय और संपन्न होती हैं | पढ़े लिखे व प्रगतिशील समाज मे प्रेम विवाह अधिक होते हैं और ऐसे अधिकांश बिवाहों मे परिवार भी सामिल होता है | मुस्लिम  समाज मे बिवाह एक समझौता व अनुबंध होता है और बिवाह  के वक्त लड़के व लड़की की रजामंदी अवश्य पूंछी जाती है | 
     सही मायनो मे देखा जाय तो भारत सहित विश्व के प्रत्येक देश मे बिवाह की संस्था को सही तथा मजबूत बनाने का कोई प्रयास किया गया नहीं प्रतीत होता | तभी वैवाहिक सामंजस्य की कमी प्रायः दिखाई पड़ती है | होना यह चाहिए कि शादी के बाद लड़का व लड़की दोनों का अस्तित्व विलीन होकर एकाकार  हो जावे | इस प्रकार बिवाह का वास्तविक मतलब एक दूसरे मे विलय हो जाना ही है | यही सर्वथा वांछनीय भी है | तभी पूर्ण वैवाहिक व पारिवारिक सामंजस्य की स्थितियां बन सकेगी | जबकि वास्तविकता यह है कि विलय होने की स्थिति बन ही नहीं पाती और पति व पत्नी अपने अपने अहम् को सेते रहते हैं | जिससे बैवाहिक सामंजस्य का परिवेश बन ही नहीं पाता | इतना ही नहीं आज राजनीति का प्रदूषण इतना अधिक बढ़ गया है कि पति पत्नी के शयन कक्षों तक राजनीति ने अपना स्थान बना लिया है और दाम्पत्य जीवन मे कूटनीतिक हथियार का प्रयोग बहुत बढ़ गया है | यह काफी खतरनाक स्थिति को उजागर करता है और इसका समाधान ढूँढना आज की बहुत बड़ी आवश्यकता है क्योंकि आजकल वैवाहिक असंतुलन एवं पारिवारिक बिघटन की स्थितियां चहु ओर दृष्टिगोचर हो रहीं हैं | यह परिवार ,समाज व देश सभी के लिए घातक है | परिवार व समाज मे अपवाद स्वरूप घटित घटनाओं को ही प्रमुखता देकर बनाये जा रहे टेलीविजन सीरियल भी वैवाहिक सम्बन्ध ,परिवार व समाज को जोड़ने के बजाय तोड़ने का काम कर रहे हैं | सरकार द्वारा जनहित मे ऐसे टी बी सीरियल के प्रदर्शन पर प्रतिबन्ध लगाने का काम किया जाना चाहिए | 
      यह प्रश्न दिमाग मे उठाना स्वाभाविक है कि क्या बैवाहिक सामंजस्य स्थापित करने तथा पारिवारिक व सामाजिक  बिघटन को रोकने की दिशा मे कुछ किया जा सकता है अथवा नहीं ? सौभाग्य बश इसका उत्तर सकारात्मक है | इस दिशा मे सर्बप्रथम बिवाह की संस्था को सही व उपयुक्त स्थिति मे स्थापित करनी पड़ेगी | जब बिवाह  दो मन दो शरीर व दो आत्मा के सायुज्य की स्थिति है तो विवाह की शैली भी तदनुसार होनी चाहिए | बिवाह से पहले लड़का लड़की द्वारा एक दूसरे को खूब समझ लेना चाहिए और शादी के बाद अपने अहम् को दरकिनार करके एक दूसरे का भरपूर ध्यान रखना चाहिए | इसे प्रोलांग कोर्टशिप मैरेज कह सकते हैं | इसमें लड़का लड़की साल छः महीना एक दूसरे से मिलते हुए एक दूसरे की भावना व बिचार को समझने बूझने का प्रयास करेगे और एक दूसरे की माता पिता से भी मिलते रहेंगे | इस दौरान एक दूसरे से जुड़ने के सम्बन्ध मे लड़का लड़की तथा उनके माता पिता सुविचारित व उचित फैसला ले सकेगे | इस प्रकार लिए गए  फैसले के फलस्वरूप शादी करके बाद मे पूरी जिन्दगी पछताने तथा घुट घुट कर जीने की स्थितियों से बचा जा सकता है |     


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Tuesday, July 20, 2010

सम्यक काल बोध

देश काल पात्र गत सापेक्षिकता ही वास्तव मे सापेक्षिकता का सिद्धांत है | देश काल पात्र गत सापेक्षिक पृष्ठभूमि मे काल का महत्व सर्बाधिक है | देश और पात्र इतने गतिमान व परिवर्तनशील नहीं हैं जितना कि काल | काल निरंतरता मे अबाध गति से बहता जा रहा है | परन्तु देश और पात्र सामान्यतया इस गति से सामंजस्य नहीं रख पाते हैं और इसी अन्तराल जन्य समस्या के कारण काल तत्व सर्बाधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हो जाता है | काल मीमांसा से स्पष्ट होता है कि काल निरन्तर गतिमान है और यह किसी देश व पात्र की न तो प्रतीक्षा करता है और न ही किसी के लिए रुकता ही है | अतः सम्यक काल बोध से ही काल समायोजन सहित सम्यक जीवन यापन तथा सही जीवन दर्शन का अपनाना संभव हो सकता है |  

      प्रायः लोग यह कहते हुए पाये जाते हैं कि हम समय गुजार रहे हैं अथवा समय काट रहे हैं | जबकि वास्तविकता यह है कि समय स्वयं गुजर रहा होता है और वह निरन्तर सबको गुजारता तथा काटता हुआ चलता जाता है | यह अवश्य संभव हो सकता है कि इस गुजर रहे समय के साथ हम अपने आप को भी गुजर जाने दें | यही सहज जीवन है और यही अभीष्ट भी होता है | सतत प्रवाहमान समय और देश व पात्र की स्थिरता जन्य अन्तराल की स्थिति मे हम गुजरते समय के साथ अपने को नहीं गुजार पाते हैं और सिनेमा ,कहानी ,उपन्यास ,टेलीविजन व गप शप आदि द्वारा समय गुजारने का कृत्रिम प्रयास करते हैं | यह स्वाभाविकता न होकर अपने को गुमराह करने जैसा कृत्य है | यदि समय गुजारने के लिए उपरोक्तानुसार कार्यकलापो का आलंबन लेने की जरुरत महसूस होने लगे तो निश्चित समझिये कि आप समय के साथ नहीं चल पा रहे हैं और उपरोक्तानुसार अन्तराल की स्थिति उत्पन्न हो गयी है | अतः सर्बप्रथम हमें काल के साथ साथ चलने अर्थात काल से समायोजन की कला सीखनी होगी | समय के साथ गुजरना एक अनवरत बह रही धारा मे बहने जैसी स्थिति है | काल धारा के बिपरीत जाने मे होने वाली श्रम हानि व परेशानी ही इस अन्तराल की स्थिति है |
      समय न कभी रुकता है और न ही किसी की प्रतीक्षा ही करता है | अतः प्रत्येक पात्र को काल की प्रतीक्षा करते हुए इसके गुजर जाने से पहले पकड़ने का प्रयास करना चाहिए | इसको ही अवसर कहते हैं , जिसके पकड़ मे आ जाने की स्थिति मे सफलता हाथ लगती है | अन्यथा स्थिति मे व्यक्ति हाथ मलता और पछताता हुआ रह जाता है | जब हम जानते हैं कि समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता और यह सर्बाधिक महत्वपूर्ण तत्व है , हमें स्वयं समय की इस प्रकार प्रतीक्षा करनी होगी कि यह गुजरने न पावे और समय के पास आते ही इसे पकड़ लेना चाहिए | इसके लिए सही पात्र बनना पड़ेगा और सही देश यानि स्थान पर अवस्थित होना होगा | तभी सम्यक कालबोध की स्थिति मे देश काल पात्र सायुज्य की स्थिति मे सफलता का वरण कारण संभव हो सकेगा |
     सही देश तथा सही पात्र तभी अपना लक्ष्य भेद कर पाते हैं जब सही काल (अवसर )का सम्यक अभिज्ञान कर उसके  गुजर जाने से पहले पकड़ लिया जावे | चूँकि काल निरन्तर प्रवाहमान है , यह न तो किसी के पास जाता है और न ही चेतावनी देकर किसी को इंतजार करने का अवसर ही देता है | अतयव हमें स्वयं समय के पास जाकर उसका इंतजार करना होगा | यदि एक बार समय गुजर गया तो बीता हुआ कालखंड दुबारा हाथ नहीं आता | इस प्रकार हम पाते हैं कि जिन्हें सम्यक कालबोध है , वे कभी असफलता का मुह नहीं देखते |सम्यक देश तथा पात्र सम्यक कालबोध के अभाव मे कुछ हासिल नहीं कर पाते |
       समय के प्रभाव मे अपने को डालकर उसके साथ साथ बहना जीवन को सहज और सुखमय बनता है , यह स्थिति अन्यथा नहीं होती | अतः सफल होने के लिए अपने को समय के प्रवाह मे डालकर बहते रहना चाहिए और सही पात्र बनकर सही स्थान पर सम्यक कालखंड (अवसर )को मजबूती से पकड़ लेना चाहिए | यही सफलता की कुंजी है और यही सफलता का काल भी होता है | सम्यक काल अभिज्ञान ,काल परीक्षण और काल नियंत्रण अत्यावश्यक होता है | काल को समुचित महत्व न देने वालों के हाथ कुछ नहीं आता है और वह हाथ मलता रह जाता है | काल को समुचित महत्व देने वाले किन्तु अपेक्षाकृत अकुशल पात्र को बहुत कुछ प्राप्त हो जाता है |
      टेलीविजन देखना ,कहानी उपन्यास आदि मनोरंजन के साधनों मे लिप्त व्यक्ति का मन काल अभिज्ञान व काल साक्षित्व हेतु उपलब्ध नहीं होता | इसी दौरान काल प्रवाह मे कोई सही कालखंड यानि उपयुक्त अवसर भी गुजर जाता है और ऐसे मे हम हाथ मलते रह जाते हैं | काल बोध एक शिकार करने जैसा होता है | तनिक सी चूक और लापरवाही से शिकार हाथ से जाता रहता है | ऐसी स्थिति मे पछताने के अलावा कुछ नहीं बचता और कभी कभी उसी काल यानि अवसर के लिए सदियों तक इंतजार करना पड़ सकता है | यहाँ तक सम्यक कालबोध व काल अभिज्ञान नहीं कर सकने के कारण हम काल कवलित भी हो सकते हैं | अर्थात यदि सही समय पर हम सही पात्र नहीं बन सके तो सफलता से बंचित होना हमारी नियति होगी |
       अब तक हम समझ चुके हैं कि देश काल पात्र के संयोजन पर ही किसी घटना का घटित होना संभव होता है और काल तत्व सर्बाधिक महत्वपूर्ण और गतिशील है | इसके अनुसार चलना चाहिए और समय से आगे रहने की चेष्टा करनी चाहिए | कहने का यही तात्पर्य है कि इससे पहले कि समय आप पर सवार हो , समय पर आप हावी हो जाय |  समय पूर्ब सुचना के बगैर आता और चला जाता है | इस प्रकार किसी कार्य को संभाव्य बनाने के लिए समय को यथेष्ट महत्व देकर समय के अनुसार चलना चाहिए | इस सम्बन्ध मे पर्याप्त सजगता अपेक्षित है | समय का अभिज्ञान एवं प्रतीक्षा एक तपस्या है जो कठिन परिश्रम व चौकन्ना रहने से ही पूरी हो सकती है | यही लगो को निश्चित समय पर मनवांछित प्रतिफल देता है | 
     समय हमेशा घडी के अनुसार ही नहीं चलता है , वरन समय का कभी कभी मानसिक मापन भी होता है | ऐसा कई बार होता है कि किसी अत्यावश्यक कार्यवश यदि किसी स्थान पर पहुचना आवश्यक होने या किसी महत्वपूर्ण व संवेदनशील क्षण पर किसी की प्रतीक्षा करने का कालखंड बहुत लम्बा लगने लगता है | ऐसी स्थिति मे घडी से लगने वाला १५ मिनट का समय साल से अधिक लगने लगता है | ऐसी स्थिति मे मन प्रति पल समय साक्षीत्व करता रहता है | अतः १५ मिनट की दुरी सदियों जितनी लगने लगती है |
       समय के साथ गुजरना एक कला है ,किन्तु काल अभिज्ञान , काल प्रतीक्षा एवं काल साक्षीत्व आवश्यकता व महत्व को कभी भी नहीं भूलना चाहिए | काल देश व पात्र सापेक्ष्य भी है , क्योंकि २५०० प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित ग्रह पर भगवान बुद्ध आज पैदा हो रहे होंगे |                 

अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

श्रृष्टि संरचना , श्रृष्टि चक्र , श्रृष्टि नियंत्रण तथा ब्रह्म बोध

संरचना बिधान मे प्रत्येक संरचना का प्राण केंद्र यानि न्यूक्लियस का होना अनिवार्यता है अर्थात प्राण केंद्र विहीन किसी संरचना की हम कल्पना नहीं कर सकते हैं | प्रत्येक संरचना के प्राण केंद्र की धुरी से आबद्ध होकर उस संरचना का अंश इलेक्ट्रान - प्रोटान अथवा उपग्रह के रूप मे निरन्तर उसकी परिक्रमा करता रहता है | परमाणु श्रृष्टि की सबसे छोटी संरचना है | पदार्थ पर चारो ओर से पड़ने वाला वायु मंडलीय दबाव उसके भीतर एक प्राण केंद्र , जो  पदार्थ की संरचना की स्थिरता बनाये रखने हेतु वायु मंडलीय दबाव के बराबर बहिर्मुखी दबाव देने का कार्य करता है , को उत्पन्न करता है |   इलेक्ट्रान व प्रोटान इस संरचना के अंश के रूप मे परमाणु के प्राण केंद्र की परिक्रमा करते रहते हैं | पृथ्वी समस्त परमाणुओं का समेकित स्वरूप है और चन्द्रमा पृथ्वी के प्राण केंद्र से आबद्ध होकर इसकी परिक्रमा करता है | सौर मंडल मे सूर्य की प्राण केन्द्रीय स्थिति है और सारे ग्रह व उपग्रह सूर्य की परिक्रमा कर रहे होते हैं | महा सौर मंडल मे महा सूर्य की प्राण केन्द्रीय स्थिति है और अनेकानेक सौर मंडल महा  सूर्य की ग्रहों की भाति परिक्रमा कर रहे होते हैं | इसी प्रकार महा महा सौर मंडल मे महा महा सूर्य की प्राण केन्द्रीय स्थिति है और अनेकानेक महा सौर मंडल ग्रहों की भाति इस महा महा सौर मंडल की परिक्रमा कर रहे होते हैं | इसी प्रकार महानतम सौर मंडल मे महानतम सूर्य की प्राण केन्द्रीय स्थिति है | अनेकानेक  महा महा सौर मंडल और  ब्रह्माण्ड की समस्त संरचनाये इस परम प्राण केंद्र की परिक्रमा कर रही होती हैं |
      इस परम प्राण केंद्र की तरंग दैर्घ्य ( बेब लेंथ ) ब्रह्माण्ड की हरेक संरचना तक होने के कारण यह सर्ब व्याप्त है | सर्बाधिक तरंग दैर्घ्य वाली यह शक्ति ब्रह्माण्ड की समस्त संरचनाओं को परिचालित , संचालित एवं नियंत्रित करने वाली होने के कारण यह सर्ब शक्तिमान है | यही परम प्राण केंद्र ब्रह्माण्ड की समस्त संरचनाओं को शक्ति प्रदान करता है और उनकी गत्यात्मकता को नियंत्रित करता है | इस प्रकार सर्ब व्यापकता , सर्ब शक्ति मानता और सर्ब नियंता होना इसका प्रमुख गुण है |
       सर्ब नियंता , सर्ब व्यापकता एवं सर्ब शक्तिमानता इस परम प्राण केंद्र अथवा परम सिद्धांत के गुण बोध मात्र को स्पष्ट करता है , पर इससे इस सत्ता के स्वरूप का आभास नहीं होता | सापेक्ष जगत मे समस्त सीधी रेखा लगने वाली समस्त तरंगें वस्तुतः सीधी रेखाएं न होकर किसी बड़े बृत की त्रिज्याएँ मात्र होती हैं | केवल अनंत तरंग दैर्घ्य वाली त्रिज्या  ही सीधी रेखा मे हो सकती है | इस प्रकार यह परम प्राण केंद्र , परम सिद्धांत एक सीधी रेखा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | इस प्रकार निरपेक्ष तरंग दर्घ्य वाली सत्ता ही सीधी रेखा मे हो सकती है | अब प्रश्न उठता है कि सीधी रेखा मे क्या हो सकता  है ? कोई भी भौतिक , मानसिक सापेक्ष संरचना सीधी रेखा मे नहीं हो सकती | सीधी रेखा मे केवल संचेतना अथवा पुरुष ही हो सकता है |  अतयव इस अनंत शक्ति सत्ता को हम परम पुरुष अथवा ईश्वर का नाम  दे सकते हैं |    
       यह परम चेतना , परम पुरुष तथा परम सिद्धांत बिना किसी परम कारक तत्व के कार्य नहीं कर सकता है | सत-राज-तम की त्रिगुणात्मकता शक्ति स्वरूपा प्रकृति ही वह परम कारक व परम परिचालक के रूप मे पुरुष को शक्ति प्रदान करते हुए संचालित करती है | यह प्रकृति अपने त्रिगुणात्मक स्पन्दंयुक्त कार्य विधान द्वारा सदैव क्रियाशील रहती है | प्रारंभ मे प्रकृति के आन्तरिक त्रिगुणात्मक स्पंदन के बावजूद परम पुरुष अप्रतिहत रहता है | यह प्रकृति की निष्क्रियता की वह स्थिति है , जहाँ परम पुरुष से अलग प्रकृति का कोई अलग तथा उद्भासित अस्तित्व नहीं होता है | दूसरे शब्दों मे परम पुरुष की देह मे प्रकृति सुषुप्ति की स्थिति मे विद्यमान रहती है | यहाँ प्रकृति और परम पुरुष की स्थिति कागज के दो पृष्ठों या सिक्के के दोनों भाग की तरह संपृक्त होती है और जिसका बिलगाव नहीं होता | इसे निर्गुण ब्रह्म की स्थिति कही जा सकती है जो श्रृष्टि स्पंदन के ठहराव की स्थिति है |  
       परम पुरुष की इच्छा जागने पर प्रकृति का त्रिगुणात्मक स्पंदन सक्रिय हो उठता है और तरंग सायुज्य की प्रक्रिया द्वारा परम पुरुष सगुण रूप धारण करना प्रारंभ करता है | सर्बप्रथम परम पुरुष प्रकृति के सत गुण स्पंदन से सायुज्य करके सगुण ब्रह्म का स्वरूप धारण करेगा | बाद में रज गुण और अंत में तम गुण सायुज्य स्थापित करेगा | यह भूमा मन की स्थिति होगी जो सगुण ब्रह्म की सूक्ष्म तम स्थिति होगी | इसके उपरांत तमो गुण का प्रभाव निरंतर बढ़ता जाता है और शेष दोनों गुण उत्तरोतर सुसुप्त होते जाते हैं | इस स्थूलीकरण की प्रक्रिया में सर्बप्रथम आकाश तत्व (ध्वनी स्पंदन ) वायु तत्व (स्पर्श स्पंदन ) ,अग्नि तत्व (दृश्य स्पंदन ) ,जल तत्व (घ्राण स्पंदन )तथा छिति तत्व (स्वाद स्पंदन )अतिरिक्त रूप मे स्थान पाते हैं | परम सिद्धांत ( परम पुरुष )पर परम कारक (प्रकृति )के परम स्थूलीकरणकी अंतिम स्थिति छिति तत्व की है |
         इस परम सूक्ष्म से स्थूल तक की यात्रा की अंतिम परिणति छिति तत्व है , जिस पर चारो ओर से वायु मंडलीय दबाव पड़ता है जो पृथ्वी के भीतर एक बिंदु पर प्रतिफलित होकर प्राण केंद्र यानि न्यूक्लियस का निर्माण करता है जो पृथ्वी के ढांचागत स्थायित्व के लिए वायु मंडलीय दबाव के बराबर बहिर्मुखी दबाव उत्पन्न करता है | तभी एक पदार्थ का ढांचागत स्थायित्व बना रहना संभव होता है |एक अन्य स्थिति की परिकल्पना कीजिये ,जहाँ पदार्थ के प्राण केंद्र का बहिर्मुखी दबाव वायु मंडल  के अंतर्मुखी दबाव से अधिक है | ऐसी स्थिति मे पदार्थ का संरचनात्मक अस्तित्व बनाये रखने के उद्देश्य से उक्त पदार्थ का एक अंश अलग होकर इतना दूर चला जाता है ,जहाँ उसके पहुचने से पदार्थ के संरचनात्मक संतुलन मे सामंजस्य स्थापित हो जाताहै | पदार्थ का उक्त अंश पदार्थ के प्राण केंद्र से ही आबद्ध होकर उसी पदार्थ के उपग्रह व ग्रह के रूप मे उसकी परिक्रमा करने लगता है | इस प्रक्रिया को जदास्फोत कहते  हैं और विखंडन की इसी प्रक्रिया से श्रृष्टि मे विकास और  गुणन प्रभाव देखने को मिलता है | एक से अनेक होने की यह प्रक्रिया ब्रह्माण्ड मे निरन्तर चलती रहती है | 
     अब एक ऐसी स्थिति की परिकल्पना कीजिये ,जहाँ वायु मंडलीय दबाव पदार्थ के प्राण केंद्र के बहिर्मुखी दबाव से काफी अधिक है | ऐसी स्थिति मे पदार्थ के संकुचन की प्रक्रिया मे अणुकर्षण व अणुसंघात की स्थिति उत्पन्न होगी | जिसके फलस्वरूप पहले छिति चूर्ण तत्पश्चात छिति तत्व मे अवस्थित पांच महाभूतो का सुप्त स्पंदन जागृत हो उठेगा और उपयुक्त संयोजन के फलस्वरूप जीव उत्पन्न होने की सम्भावना होगी | सर्बप्रथम प्रकृति के तम गुण से सायुज्य होगा | तत्पश्चात जड़ संघात के फलस्वरूप एककोशीय अमीबा बहुकोशीय होकर जैविक विकास का मार्ग प्रशस्त्र करेगा | जीव विकास की इस प्रक्रिया मे पहले वनस्पति फिर जलचर फिर पशु और सबसे बाद मे मनुष्य उत्पन्न होगा | यही जैविक विकास की प्रक्रिया और क्रम है |
      इस जड़ संघात की प्रक्रिया के पश्चात् मनस संघात की परिस्थितियां उत्पन्न होंगी | मनस संघात की इस प्रक्रिया मे सर्बप्रथम वनस्पति मन फिर पशु मन फिर मानव मन उत्पन्न होगा | कालांतर मे विकसित बुद्धि का मानव बोधि और आध्यात्म का आलंबन लेकर सापेक्षिकता के बंधन से मुक्त होकर ब्रह्म लींन हो जायेगा | यह पूर्ण स्थूल से परम सूक्ष्म (पुरुष) तक की आरोही यात्रा का क्रम है | 
    निर्गुण ब्रह्म की स्थिति ठहराव (pause) की स्थिति है | इस क्रिया विहीनता की स्थिति मे ही शक्ति संचयन होता है | इसके पश्चात् चरम बिंदु से चरम स्थूल छिति तत्व की अवरोही क्रम और छिति तत्व के स्थूलीकरण से ब्रह्मलीन होने की आरोही क्रम की यात्रा चलती रहती है | इसे ही श्रृष्टि चक्र या ब्रहास्पंदन समझ सकते हैं |                

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Thursday, July 15, 2010

जनसँख्या नियंत्रण पर बेमतलब हंगामा ; विश्व जनसँख्या दिवस पर विशेष

भारत ही नहीं बिश्व स्वास्थ्य संगठन सहित पूरे पश्चिमी देश भारत की जनसँख्या बृद्धि से न जाने क्यों बहुत परेशान है | जब से यह चिंता और उक्त चिंता के फलस्वरूप जनसँख्या नियंत्रण के  युद्ध स्तरीय प्रयास चल रहे हैं , तबसे ही जनसँख्या ज्यादा बढ़ी है | तो कही यह सारा प्रपंच भारत की जनसँख्या को ज्यादा बढ़ाने की साजिश तो नहीं है ? वैसे जिस बात की जोर शोर से चर्चाएँ होती है और जिस पर प्रतिबन्ध लगाने हेतु बल दिया जाता है , वह निरन्तर बढता ही चला जाता है जैसे कि एड्स तथा भ्रष्टाचार | इन दोनों को नियंत्रित करने की जितनी ज्यादा कोशिशें की जा रही हैं  तथा चर्चाएँ की जा रही है , एड्स और भ्रष्टाचार उससे भी अधिक तेज रफ़्तार मे बढता जा रहा है | जनसँख्या बृद्धि के सबंध मे भी ठीक वैसा ही होना प्रतीत हो रहा है | आखिर विश्व स्वास्थ्य संगठन , अमेरिका सहित सारे पश्चिमी देश इस बारे मे हमसे भी ज्यादा परेशान और चिंतित क्यों हैं ?  हम भारतबासी भी बिना सोचे समझे उनके स्वर मे स्वर मिलाने लगते हैं | कहीं यह चिंता भारत मे तेजी से बढ़ रही मुसलमानों की आबादी के सम्बन्ध मे हिन्दुओं तथा गरीबों की बढ़ रही जनसँख्या के सम्बन्ध मे अमीरों की चिंता जैसी तो नहीं है | वस्तुतः हम भारतीयों को हीन भावना से ग्रषित करने की पश्चिमी देशों की यह सोची समझी चाल मात्र प्रतीत होती है |  
        अब हम पूरी गंभीरता से जनसँख्या के अन्य पहलुओं पर बिचार करते हैं | जनसँख्या के सम्बन्ध मे माल्थस सबसे बड़ा अर्थशास्त्री हुआ है | जिसका कहना है कि जनसँख्या ज्यामितीय (२ ४ ८ १६ ...) ढंग से और खाद्य सामिग्री गणितीय ( १ २ ३ ४ ५ ...) रूप मे बढती है | अतयव खाद्य उत्पादन से सामंजस्य रखने के लिए जनसँख्या नियंत्रण आवश्यक है | माल्थस की यह अवधारणा अत्यधिक पिछड़ी सोंच पर आधारित था , जिसे भारत मे हुई हरित क्रांति ने ही झुठला दिया था | उस समय नई और वैज्ञानिक खेती ने खाद्य उत्पादन के क्षेत्र मे एक क्रांति ला दिया था | उक्त हरित क्रांति से लगभग ५० साल बाद भी हम नई खेती के तरीको को मात्र २५ - ३० प्रतिशत खेतो तक ही ले जा पायें है | इससे यह स्वतः प्रमाणित है कि इस सम्बन्ध मे प्रकृति न कि माल्थस का सिद्धांत कार्यरत है | प्रकृति हर बच्चे को एक मुह के साथ दो हाथ देकर पैदा करती है और आवश्यकता अविष्कार की जननी है ,का प्राकृतिक नियम व्यक्ति के लिए भोजन जुटता है | अभी तो कृषि के क्षेत्र मे और भी अविष्कार होने हैं और समुद्री भोज्य पदार्थों की ओर अभी ध्यान ले जाने की जरुरत ही नहीं पड़ी है | सिंथेटिक फ़ूड यानि टेबलेट का तो आना शेष है | ऐसे मे भोज्य पदार्थो की संभावित कमी के कारण हमें जनसँख्या की भयावहता  से घबराने की कोई जरुरत नहीं है |  
        सृष्टि को प्रकृति चलाती है न कि विश्व स्वास्थ्य संगठन | गोहत्या पर प्रतिबन्ध के बावजूद गायों की सख्या निरन्तर कम होती जा रही है और भैसों की संख्या तेजी से बढ़ रही है , जिनकी हत्या पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है | मुर्गे और बकरे रोज करोडो की संख्या मे कटते हैं , फिर भी | उनकी तादात उससे भी  तेज रफ़्तार मे बढ़ रही है | यह भी आश्चर्यजनक है कि घोड़ों की कभी हत्या नहीं हुई , पर उनकी आबादी मे बेतहाशा कमी आई है | ४० -५० साल पहले हर गोंव मे कम से कम एक घोडा होता ही था , पर आज ९९ प्रतिशत गावों से घोड़े गायब हो गए हैं | एक्के तांगे भी बहुत घट गए हैं और आज यह कही दिखाई नहीं देते | फ़ौज मे भी घोड़े बहुत कम कर दिए गए हैं | आखिर घोड़ो की इस आशातीत कमी का क्या कारण है ? वस्तुतः प्रकृति जिन्हें जरुरी समझती है , उन्हें ही रखती है और  जिनकी जरुरत नहीं होती . उन्हें कम अथवा समाप्त कर देती है | यदि हम जनसँख्या पर प्रतिबन्ध लगाते हैं तो प्रकृति की इच्छा के बिपरीत जाने पर हमें असफलता ही हाथ लगेगी | प्रकृति द्वारा ऐसा न चाहने पर प्रकृति एक साथ २ - ३ बच्चे पैदा कराएगी और यही हो रहा है |
      जनसँख्या नियंत्रण से जरुरी बहुत सारे मुद्दे हैं और इन अत्यधिक जरुरी मुद्दों की ओर ध्यान दिया जाना समय की मांग है | इस प्रकरण मे इतना अवश्य जरुरी है कि हमें अपने परिवार को नियोजित व योजनाबद्ध ढंग से चलने पर ध्यान देना चाहिए | पढ़े लिखे लोगो के कम बच्चे होते हैं तो लोगो का ध्यान पढ़ने लिखने की ओर ले जाना चाहिए |         
 
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Tuesday, July 13, 2010

कक्षीय गणतंत्र यानि कम्पार्टमेंटलाइज्ड डेमोक्रेसी

शासन प्रणालियों के विद्यमान विभिन्न स्वरूपों मे प्रजातंत्र सबसे अच्छी एवं जनहितकारी शासन व्यवस्था है | परन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय तो प्रत्येक व्यष्टि एवं समष्टिगत क्षेत्र मे अधिनायकबाद का ही बोलबाला है | परिवार का उदाहरण लेंने पर हम पाते हैं कि परिवार का मुखिया , यदि शारीरिक ,मानसिक व वित्तीय दृष्टि से सक्षम व समर्थ है , पारिवारिक निर्णयों मे वह प्रजातान्त्रिक न होकर अधिनायकबादी रवैया ही अपनाता है | वह परिवार के किसी सदस्य से न तो उनकी राय की अपेक्षा करता है और न ही उनके परामर्श का ही स्वागत करता हुआ प्रतीत होता  है  | शासकीय क्षेत्र मे भी तदनुसार स्थिति देखने को मिलती है | शासक यदि हिटलर जैसा अपरिमित शक्ति का स्वामी है  , तो वह सीना तानकर कहेगा कि देखो मै अडोल्फ़ हिटलर तानाशाह बोल रहा हूँ और  मै यह तानाशाही हुक्म देता हूँ | कमजोर शक्ति वाला आज का शासक मध्यम मार्ग अपना कर मधुर संभाषण व सहृदयता का मुखौटा लगाकर  छद्म रूप से अधिनायकबादी मनोवृति से समझौतावादी कार्यशैली को अपनाता हुआ प्रतीत होता है | वह अपने को शासक बताने  के बजाय जनता का सेवक कहता है , यद्यपि क़ि उनका रहन सहन , सोंच , कार्य शैली तथा कार्य व्यवहार शासको जैसा ही होता है | 
       प्रजातंत्र के बर्तमान स्वरूप मे काफी कमियां आ गयी प्रतीत होती हैं और उपरोक्तानुसार तथ्यों के परिप्रेक्ष्य मे उपयुक्त शासन विधा का प्राविधान करते समय हमें  अधिनायकबादी मनोवृति को दरकिनार करना आवश्यक हैं , क्योकि यह बिलकुल वांक्षित व जनहितकारी नहीं है | वस्तुतः मानव इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्रत्येक देश व काल मे अधिनायकबादी शासक अपने तुच्छ अहम् , स्वार्थ व सनक  के लिए पूरी जनता तथा मानवता को ही दांव पर लगाते आयें हैं | अतयव अधिनायकबादी मनोवृति का समुचित सज्ञान लेते हुए इस प्रकार की शासन विधा प्राविधानित करनी आवश्यक  होगी , जिसमे इस अनपेक्षित मनोवृति के होते हुए कोई शासक अपने व्यक्तिगत अहम् , स्वार्थ व सनक भरी इच्छा पूर्ति हेतु जनता व  मानवता का किसी दशा मे अहित न कर सके | 
         प्रस्तावित शासन विधा की अवधारणा मे निरंकुश तानाशाह के स्थान पर दयालु तानाशाह (वेनीवोलेंट डिक्टेटर) की अवधारणा को प्रश्रय दिया गया है | शासक का जनता के प्रति व्यवहार एक पिता की तरह होना चाहिए | माता प्रेम ,करुणा और दयालुता की प्रतिमूर्ति होती है , परन्तु पिता की स्थिति माता से थोड़ी  भिन्न होती है | पिता मे एक माता का  गुण तो होता ही है , उसे अनुशासनशील बनाने के लिए दयालुता के साथ ही तानाशाह अर्थात अदेशात्मकता का भी दायित्व निभाना होता है | अतयव पिता की स्थिति एक दयालु तानाशाह के समान होती है | एक शासक को भी पिता की तरह दयालु तानाशाह की तरह होना चाहिए | ताकि जनता को पिता का संरक्षण मिल सके , किन्तु उन्हें इस बात का भय निरन्तर बना रहना चाहिए  कि गलत काम अंजाम होने पर उन्हें पिता की तरह शासक द्वारा दण्डित होना पड़ेगा | शासक और पिता मे अंतर बस इतना ही है कि जनता व शासक का यह रिश्ता रक्त सम्बन्ध पर आधारित न होकर अर्जित संबंधों पर आधारित होता है | अतयव इस अर्जित सम्बन्ध बनाये रखने के लिए शासक को निरन्तर इस दिशा मे प्रयासशील रहना पड़ेगा , तभी पितृवत व्यवहार होने की दशा मे जनता -शासक का यह अनुबंधित रिश्ता कायम रह सकेगा | अन्यथा स्थिति मे अर्थात इसके बिपरीत आचरण होने की दशा मे अर्जित सम्बन्ध का यह अनुबंध स्वतः समाप्त हो जावेगा | इस प्रकार प्रजातान्त्रिक अंकुश द्वारा जनता शासक को नियंत्रित एवं पदच्युत करने की शक्ति से संपन्न होगी और यह व्यवस्था भी प्राविधानित होगी |
        अब हम शासन विधा के प्रजातान्त्रिक पहलू पर भी बिचार कर लेते हैं | विधायिका , कार्यपालिका , न्यायपालिका , सेना , वित्त एवं आडिट शासन के अंग यानि कक्ष (कम्पार्टमेंट ) हैं |  आज की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष यही है कि उक्त सभी कक्ष स्वतन्त्र व निष्पक्ष रूप से कार्य नहीं करते हैं , वरन एक कक्ष दूसरे कक्ष व कक्षों को सीधे अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित व नियंत्रित करता है | बस इसमें ही कुछ बड़ा संशाधन करना पड़ेगा | इस व्यवस्था का नाम होगा कक्षीय गणतंत्र | कक्षीय गणतंत्र की इस व्यवस्था मे शासन के उपरोक्त सभी कक्ष (अंग ) स्वतन्त्र रूप मे कार्य करेंगे और हर प्रकार के हस्तक्षेप से पूर्णतया मुक्त होंगे | प्रत्येक कक्ष के गठन , संरचना ,चयन का कार्य उसी कक्ष द्वारा सम्पादित होगा और इसमें कोई वाह्य हस्तक्षेप  नहीं होगा | इसी प्रकार प्रत्येक कक्ष अपने समस्त क्रिया कलापों के सम्बन्ध मे पूर्णतया स्वतत्र होगा और इसमें भी किसी प्रकार का बाह्य हस्तक्षेप नहीं हो सकेगा | समस्त कक्षों के मध्य स्पष्ट कार्य विभाजन होगा और बिना किसी दखलंदाजी के प्रत्येक कक्ष स्वतंत्र रूप से अपने कार्यों को सम्पादित करेंगे | 
      वर्तमान मे विधायिका की स्थिति ऐसी है कि यह सर्वोपरि बनी हुई है और इसका प्रत्येक कक्ष पर प्रभुत्व व हस्तक्षेप बना रहता है | विधयिका के बहुमत का नेता अपना मंत्रिमंडल बनाकर स्वयं  कार्यपालिका बन जाता है और पूरी कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है | इसी मंत्रिमंडल का एक सदस्य कानून मंत्री बनकर न्यायाधीशों का चयन सहित न्यायपालिका को संचालित व नियंत्रित करता है | मंत्रिमंडल एक सदस्य रक्षा मंत्री बनकर सेना की स्वायत्तता को प्रभावित करता है | इसी का एक सदस्य वित्त मंत्री के रूप मे सभी कक्षों पर प्रभाव व प्रभुत्व बना कर रखता है और आडिट को स्वतन्त्र नहीं बना  रहने देता है|विधायिका व कार्यपालिका के नियंत्रणाधीन रहने वाली आडिट मशीनरी से उसी का स्वतन्त्र आडिट करने कीकैसे उम्मीद कर सकते हैं | इतनी सर्ब शक्तिमान बिधायिका की इकाई सांसद और बिधायक के पद धारक के चुनाव लिए कोई योग्यता निर्धारित नहीं है और ऐसे पदधारक को जो जो अवगुण नहीं होने चाहिए , वही वही अवगुण निर्योग्यताओं के रूप मे उन्हें चुनाव जितवाती हैं और इन्ही निर्योग्यताओं के बलबूते वे अपना बर्चस्व कायम रखते हुए समाज का सिरमौर बने रहते हैं | अतयव इस सर्बाधिक महत्वपूर्ण कक्ष के सदस्य के चयन के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण एवं पद के अनुरूप योग्यताएं निर्धारित की जानी चाहिए | न्यूनतम शैक्षिक योग्यता , निस्वार्थ जनसेवा , समाज सेवा , निर्मल चरित्र एवं अपराधरहित जीवन जैसी सामान्य योग्यताएं तो ऐसे पदधारक के लिए होनी ही चाहिए |
       कार्यपालिका मे चपरासी से कार्यपालक मंत्री तक सभी का चुनाव एक चयन आयोग द्वारा होना  चाहिए | तभी कार्यपालिका कक्ष स्वतन्त्र व निष्पक्ष रहकर काम कर सकेगा और इसी से जनता का सर्बाधिक भला होगा | इसी प्रकार न्यूनतम कर्मचारी से कानून मंत्री तक का चुनाव न्यायिक चयन आयोग ,सिपाही से रक्षा मंत्री तक का चुनाव रक्षा चयन आयोग , निम्नतम कर्मचारी से वित्त मंत्री तक का चयन वित्त चयन आयोग  तथा नीचे के कर्मियों  से आडिट मंत्री तक का चयन आडिट चयन आयोग द्वारा होना चाहिए | तभी समस्त कक्ष बिना किसी बाह्य हस्तक्षेप के स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष रूप से कार्य कर सकेंगे और तभी वास्तविक प्रजातंत्र स्थापित हो सकेगा और जनता बापू जी के राम राज्य के सुख का आस्वादन कर सकेगी |      
           , इससे यह स्वतः स्पष्ट है कि बर्तमान शासकीय व्यवस्था मे हस्त्क्षेपीय गणतंत्र की ही स्थिति दृष्टिगोचर हो रही है | यह स्थिति जनहित के प्रतिकूल है और वर्तमान  व्यवस्था अपेक्षित परिणाम बिलकुल ही नहीं दे सकती है |
      कक्षीय गणतंत्र की व्यवस्था मे विधायिका , कार्यपालिका , न्यायपालिका , सेना , वित्त एवं आडिट शासन के अलग अलग कम्पार्टमेंट यानि कक्ष होंगे जो पूर्णतया स्वतन्त्र एवं सशक्त होंगे | कोई भिन्न कक्ष किसी कक्ष मे कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकेगा | प्रत्येक कक्ष की संरचना व गठन उसी कक्ष के अधिकार क्षेत्र मे होगा | विधायिका का कार्य नियम व कानून बनाना है , जिसे कार्यपालिका लागू करेगी | दो या दो से अधिक कक्षों के बिवादों को न्यायपालिका निपटाएगी | वित्तीय कक्ष अपना कार्य स्वतन्त्र रूप से सम्पादित करेगा और वित्तीय अपव्यय को रोकते हुए समस्त कक्षों मे वित्तीय अनुशासन स्थापित करेगा | आडिट कक्ष बिना किसी दबाव व भय के सभी कक्षों के लेखों का आडिट करेगा और वित्तीय घोटालों को रोकेगा | सेना अपना कार्य स्वतन्त्र रूप से करेगी और पूरे विश्व मे अपना वर्चस्व स्थापित करेगी | कहने का तात्पर्य यह है क़ि सभी कक्षों के मध्य स्पष्ट कार्य विभाजन होगा और गुणात्मक शासन के एक नए युग का सूत्रपात होगा | 
    
       उपरोक्तानुसार समस्त कक्षों की पूर्णतया स्वतन्त्र कार्यविधि अपनाने की दशा मे एक महासमन्वयक की भी आवश्यकता होगी , जो सामाजिक मथानी से मक्खन की भांति स्वतः उभर कर सर्वोपरि स्थिति प्राप्त करेगा  और यही महा समन्वयक वास्तविक रूप मे दयालु तानाशाह ही होगा | इस व्यवस्था से राजनीति , जो सबसे बड़ी बुरायी है  ,को हम बहुत अंश मे कम कर सकते हैं और मनुष्य के जीवन को बहुत खुशहाल बनाया जा सकता है |


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Friday, July 2, 2010

जीवन की वास्तविक उपलब्धियां

मनुष्य किसी देश काल खंड का निवासी हो , स्त्री अथवा पुरुष हो , आस्तिक या नास्तिक हो , अध्यात्मिक अथवा भौतिकबादी हो , अध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उनके जीवन की वास्तविक उपलब्धियां ही जीवन की वास्तविक कसौटी के रूप मे होती हैं , जिस कसौटी पर खरा उतरने की दशा मे यह सिद्ध होता है  कि जीवन की दिशा और दशा सही है अथवा गलत | कोई भी दर्शन व जीवन पद्धति इसी  कसौटी के आधार पर अपनी सार्थकता तथा उपयोगिता प्रमाणित करती है  | इस प्रकार जीवन की वास्तविक उपलब्धियों की यह कसौटी बहुत प्रासंगिक और उपयोगी है और इसको भली भांति समझना बहुत आवश्यक है |

          जीवन की यह यथार्थ उपलब्धियां केवल तीन हैं | पहली उपलब्धि है प्रफुल्लता | प्रफुल्लता एक बहुत बड़े मायने वाला शब्द है और यह ख़ुशी व प्रसन्नता से एकदम भिन्न है | जब मनस पटल , सम्पूर्ण ह्रदय पटल , सारी धमनियां , सारा स्नायु तंत्र और एक एक रोम खिल उठे और ख़ुशी से नाचने लगे तो समझिये प्रफुल्लता की स्थिति उत्पन्न हो गयी है  | प्रफुल्लता को एक उदाहरण से समझा जा सकता है | एक युद्ध विधवा, जो अपने पति को बहुत चाहती थी , दस साल  से बैधव्य का जीवन व्यतीत कर रही थी | अचानक एक  रात के दो बजे उसके दरवाजे की सांकल बजती है और वह दरवाजा खोलने पर उनीदी आँखों से देखती है कि उसका पति उसके सामने खड़ा है | उस समय उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था | उसका मनस पटल , ह्रदय , सारी धमनिया तथा एक एक रोम खिल उठता है | इसे ही प्रफुल्लता कहते हैं और यह प्रफुल्लता की चरम स्थिति मान सकते हैं | वैसे प्रफुल्लता का एक पल मात्र को पा सकना व्यक्ति  के बस मे नहीं होता है और अरबो खरबों का धन खर्च करके एक सेकण्ड की प्रफुल्लता को नहीं खरीद  सकता | मनुष्य कितना  भी यत्न करके प्रफुल्लता को प्राप्त नहीं कर सकता है | अन्य व्यक्ति ही अनुग्रह करके हमें प्रफुल्लता दे सकता है अथवा प्रफुल्लता छीन सकता है अर्थात दूसरों की कृपा व अनुग्रह से ही प्रफुल्लता मिल सकती है | अब प्रश्न उठता है कि क्या व्यक्ति  प्रफुल्लता प्राप्त किये जाने की दिशा मे कुछ कर सकता है ? उत्तर है हाँ | व्यक्ति दूसरों को प्रफुल्लता देकर प्रफुल्लता की तरंग  उत्पन्न कर सकता हैं , उक्त तरंग अपनी तरंग दैर्घ्य पर अवस्थित उक्त व्यक्ति से टकराकर समान किन्तु बिरोधी प्रतिक्रिया स्वरूप व्यक्ति विशेष के  पास वापस आ जाती है और हमें स्वतः प्रफुल्लता मिल जाती है | इस प्रकार व्यक्ति यदि निरन्तर लोगों को प्रफुल्लता देता रहे तो उसे जीवन मे बराबर प्रफुल्लता मिलती रहेगी और उसका एक तिहाई जीवन सही व सार्थक माना जा सकता है |
          जीवन की दूसरी वास्तविक उपलब्धि है नीद | यदि बिना बहरी कोशिश व प्रयास किये व्यक्ति को भरपूर और निर्बिघ्न नीद आ जाती है तो उसकी जीवन शैली एकदम सही मानी जा सकती है | शुद्ध चित्त एवं आत्मा वाले उक्त व्यक्ति के मन पर बोझ नहीं होता और उसे भरपुर नीद आ जाती है | इसके बिपरीत गलत व धोखा धरही करने वाले व्यक्ति को स्वाभाविक व अपेक्षित नीद मुहैया नहीं होती | इस प्रकार नीद की कसौटी यह तय करती है कि एक तिहाई जीवन पद्धति व रास्ता सही है अथवा नहीं | इसी प्रकार मानसिक शांति , जो मानसिक संतुलन की स्थिति होती है , यह निर्धारित करती है कि व्यक्ति की जीवन पद्धति सही है अथवा नहीं | यदि जीवन सुख व शांति मय है तो इसका मतलब यही है कि जीवन यापन का तरीका एक तिहाई सही है | 
         इस प्रकार यदि व्यक्ति का जीवन इन तीनो कसौतिओं पर खरा उतरता है तो व्यक्ति को उसी रस्ते का अनुसरण करना चाहिए जिससे उसको यह तीनो उपलब्धियां प्राप्त हुई थी | इसके अतिरिक्त जीवन मे कुछ नहीं चाहिए | इसके लिए किसी गुरु की भी जरुरत नहीं होती है | इसे व्यक्ति को स्वयं ही सीखना पड़ता है और जिसको सीखने मे कई कई जनम लग सकते हैं l जीवन मे इतना ही पाठ सीख लेना पर्याप्त भी है | यह जितना सरल है उतना कठिन भी है |


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Monday, June 28, 2010

उपभोक्ता संस्कृति और आम जनमानस

 व्यक्ति यानि उपभोक्ता की  जरुरत रोटी , कपडा ,मकान . शिक्षा ,  स्वास्थ्य . मनोरंजन , रोजगार तथा सामाजिक सुरक्षा आदि तक ही सीमित होती है |  सामान्य प्रयासों से इन सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है | परन्तु मनुष्य इससे भी संतुष्ट नहीं होता | मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि मनुष्य की  आवश्यकता जीवन मे संतुष्टि प्राप्त करना ही है | यही संतुष्टि ही मनुष्य के जीवन की वास्तविक उपलब्धि होती है , जो जीवन को सुखमय अथवा दुखमय बनाती है | यह पूर्णतया व्यक्तिनिष्ट  और मनुष्य की सोंच पर आधारित होती है | इस दृष्टि से मनुष्य के लिए वही स्थिति व परिवेश अभीष्ट व हितकर होता है जो उसे संतुष्टि दे सके और वह सब अवांछित होता है जो उसे संतुष्टि से दूर रखता है | कदाचित इसी कारण प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे के मेहता ने अर्थशास्त्र को आवश्यकता विहीनता की ओर ले जाने वाला शास्त्र बताया था | मेरी समझ मे जे के मेहता की यह अवधारणा भौतिक , मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्णतया सही प्रतीत होती है | दूसरे शब्दों मे यदि कहा जाय तो  आवश्यकताओं की प्रवृति असीम की ओर जाने की होती हैं और इन असीम आवश्यकताओं से समायोजन करने की कला सीखने से ही जीवन मे संतुष्टि व सुख प्राप्त हो सकता है | वैसे हमारे चारो ओर का परिवेश इसके विपरीत परिस्थितियां उत्पन्न कर रखी है और यही है आज की उपभोक्ता संस्कृति | आज मनुष्य अपने को वस्तुतः बाजार मे खड़ा हुआ पाता है और उसके चारो ओर खरीदने और बेचने के अलावा कुछ और होता हुआ  नजर नहीं आता | प्रिंट और इलेक्ट्रानिक  मीडिया मे  विज्ञापन के अलावा कुछ खास नहीं होता , जिसमे सब कुछ बेच देने की होड़ लगी हुई सी प्रतीत होती है | मानव मनोविज्ञान , संवेग , प्रेरणा एवं प्रवृति को दृष्टिगत रखकर अत्यधिक आकर्षक  विज्ञापन बनाये जाते हैं , जिनका उद्देश्य उपभोक्ता को रिझाने , बरगलाने तथा प्रेरित करना होता है और उनकी कोशिश जरूरतों को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने की होती है |  
        स्त्री का आकर्षण चूँकि संसार मे सर्बाधिक होता है , विज्ञापन की दुनिया मे स्त्री के रूप और सुन्दरता को विज्ञापन की बस्तु समझ कर इसका भरपूर उपयोग किया गया है |  यहाँ तक पुरुषों के रेजर , आफ्टर शेब और कच्छे के विज्ञापन मे भी स्त्री का ही उपयोग किया गया है | इस प्रकार आज की उपभोक्ता संस्कृति  मे स्त्री को विज्ञापन की बस्तु बनाकर रख दिया है | आज की पीढ़ी मेहनत सेबचना व शार्टकट   अपनाकर एकदम अमीर बनना चाहती है और बिना परिश्रम किये थोड़े समय मे सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहता है | ज्योतिषी उसकी इसी भावना का लाभ उठाकर जंत्र  तंत्र के उपकरण बेंच रहा है | आज टेलीविजन के सारे चैनल यहाँ तक न्यूज चैनल तक जोर शोर से स्काई शापिंग की इस बिधा द्वारा  मनुष्य को बेवकूफ बनाने के इस धंधे मे लगे हुए हैं | माल संस्कृति भी उपभोक्ताबाद को बढ़ावा डे रहा है | खरीददारी के लिए माल मे जाने पर वहाँ  तरह तरह के आकर्षण मिलते हैं | वहाँ व्यक्ति यदि एक सामान खरीदने के इरादे से जाता  है तो वहाँ इस तरह का परिवेश मिलता है कि व्यक्ति ४ या ५ बस्तुएं ख़रीदे | माल मे बड़े बड़े लुभावने आकर्षण देखने को मिलते हैं | एक कमीज खरीदें पांच कमीजे मुफ्त पायें जैसे विज्ञापन देखकर उपभोक्ता खुश हो जाता है कि जैसे उसने माल को लूट लिया हो , जबकि उपभोक्ता ही माल के लूट  के चक्रव्यूह मे बस्तुतः फंस कर रह जाता है | इस प्रकार माल मे भी व्यक्ति को बेवकूफ बनाने का ही गोरख धंधा चल रहा होता है | 
           फिल्मस्टार और क्रिकेट स्टार लाखों करोंड़ों कीमत लेकर झूंठे किन्तु मनभावन विज्ञापन से लोगों को गुमराह करते  हैं और धन लोलुपता के कारण उनका जमीर शायद मर गया सा प्रतीत होता  है | विज्ञापनों  के  कारण व्यक्ति फिजूलखर्ची का शिकार बन जाता है और प्रायः हीनभावना से पीड़ित रहता है | इस सब का एकमात्र समाधान यही है कि व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं पर नियंत्रण करके उन्हें सीमित रखना चाहिए और पूरे परिवार को यही संस्कार देना चाहिए , ताकि जीवन rकी मूलभुत उपलब्धि संतुष्टि  को  वह प्राप्त  कर  सके  |  

अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा