२० जून को पिता दिवस यानि फादर् डे मनाया जाना पाश्चात्य संस्कृति की देन है | यह बहुत अच्छी बात है और अच्छी बातों का अनुकरण किया जाना और भी अच्छी बात है | भारत मे भी पितर पक्ष प्रतिवर्ष १५ दिवसों तक मनाया जाता है , जिसमे मृत माता पिता तथा समस्त पूर्बजों को उनकी मृत्यु की तिथियों पर स्मरण करके उनको तर्पण दिया जाता है | अपने पिता को उनके जीवन काल मे एक दिन समर्पित किये जाने की विदेशियों की इस अच्छी परंपरा को अपनाना बहुत अच्छी बात है और अपने बेटे बेटियों द्वारा फादर् डे पर अतिरिक्त प्यार व सम्मान पा कर हर एक पिता को अच्छा लगना भी स्वाभाविक है , पर पितर पक्ष की अपनी गौरवशाली भारतीय परंपरा को पूरी सघनता से याद रखकर अपनाना भी इससे अधिक आवश्यक प्रतीत होता है | मुझे भी आज अपनी बेटी , बेटा व बहू की शुभकामना प्राप्त करके तथा अपने प्रति उनके मनोभाव देख कर काफी ख़ुशी मिली , पर इसके साथ ही यह विचार भी मन मे कौंधा कि काश मेरे बच्चे इस अत्यधिक सुखकारी किन्तु विदेशी परंपरा का अनुसरण करने के साथ साथ पितर पक्ष की अपनी भारतीय किन्तु अत्यधिक गौरवशाली परंपरा को भी स्मरण रखते और उसे भी फादर डे की तरह समझते और अपनाते | यह बात मेरे बच्चों के साथ साथ देश के तमाम बच्चों पर भी लागू होती है | पर इस स्थिति के लिए बच्चों से ज्यादा माता पिता ही अधिक जिम्मेवार हैं , जिन्होंने अपने बच्चों को ऐसे संस्कार नहीं दिए और न ही अपने आचरण द्वारा कोई अनुकरणीय प्रदर्शन प्रभाव ही उत्पन्न किया | अतयव पिता वर्ग को इस सम्बन्ध मे आत्म विवेचन करना चाहिए और इस सम्बन्ध मे अपने दायित्व का संज्ञान लेना चाहिए | ताकि आगामी पितर पक्ष एवं फादर डे को और अधिक सार्थक ढंग से मनाया जा सके |
फादर डे के दिन को पिता वर्ग को अपने दायित्व के सम्बन्ध मे गंभीरतापूर्वक आत्म विश्लेषण व आत्म चिंतन करने के अवसर के रूप मे लेना चाहिए | आज बच्चों मे अपने पिता के प्रति पहले की पीढ़ियों की तरह सम्मान व आज्ञाकारिता का भाव देखने को नहीं मिलता और बच्चों पर अनुशासनहीनता तथा अवज्ञाकारिता का आरोप अलग से लगा दिया जाता है , जबकि बस्तुस्थिति पूर्णतया इसके बिपरीत है | बस्तुतः अनुशासनहीन बच्चा व क्षात्र नहीं होता ,वरन अनुशासनहीन पिता व अध्यापक होता है | यह बात सभी को कडवी व अटपटी तो जरुर लगेगी , पर यह बात सोलह आने सच है | वरिष्ट के निर्देशों का कनिष्ट द्वारा स्वयमेव अनुपालन किया जाना ही अनुशासन है | यहाँ स्वयमेव शब्द बहुत प्रासंगिक एवं सार्थक है | वरिष्टता का निर्धारण भी आयु के बजाय गुणों के आधार पर होता है | सत , रज , तम के तीनो गुणों मे सतोगुण सर्ब श्रेष्ट है , रजोगुण उससे निम्नतर और तमोगुण निम्नतम है | इन गुणों का सम्बन्ध भोजन से जुड़ा हुआ है , अर्थात जैसा भोजन होगा वैसा ही गुण उप्पन्न होगा | शिशु जब तक दूध यानि सात्विक भोजन लेता है , तब तक वह सत्व गुण संपन्न यानि सबसे शक्तिशाली होता है | इसी कारण लोग उसके कमांड व निर्देशों का स्वयमेव पालन करते हैं और समस्त रजो व तमोगुणी शक्तियां उससे पराभूत रहती हैं | सांप व शेर बच्चे के पास पहुँच कर भी बच्चे को कोई नुकसान पहुंचाए बिना निकल जाता है , क्योंकि बच्चे की सात्विक शक्तियों से उनकी तामसिक शक्तियां पराभूत हो जाती हैं | ऐसा भी होता है कि बच्चे का रोना सुनकर राहगीर स्वचालित ढंग से अनजाने घर मे घुस जाता है , बिना यह परवाह किये कि वह अपने इस कृत्य के कारण अपराधी करार किया जा सकता है | कुछ दिनों के पश्चात् उक्त शिशु दूध के साथ साथ अनाज यानि राजसिक भोजन करने लगता है और उसमे रजोगुण यानि क्रियाशीलता का प्रादुर्भाव होता है , किन्तु धीरे धीरे उसमे सत्व गुण की कमी होती जाती है | इस प्रकार बच्चे मे सत्वगुण कम होकर रजोगुण की उत्तरोत्तर बृद्धि की प्रवृति दृष्टिगोचर होती प्रतीत होती है और बच्चा निरन्तर क्रियाशील किन्तु अध्यात्मिक पैमाने पर शक्तिहीनता की ओर प्रयाण करता हुआ प्रतीत होता है | जवानी तक रजोगुण यानि क्रियाशीलता बढती रहती है और इसके बाद रजोगुण के ह्राश एवं तमोगुण के बढ़ने की प्रवृति का कालखंड आ जाता है | बुढ़ापे मे तो सतोगुण बहुत कम हो जाता है , रजोगुण यानि क्रियाशीलता तो स्वतः कम होती जाती है और जीवन के इस कालखंड मे तमोगुण पूर्णतया हावी रहता है |
उपरोक्त विश्लेषण से यह स्वतः स्पष्ट होता है कि बच्चा व क्षात्र पिता व अध्यापक से अधिक शक्तिशाली होता है और उसके कमांड व निर्देशों का पालन पिता व अध्यापक का स्वाभाविक दायित्व होता है और इसके लिए पिता व अध्यापक को पूर्णतया तैयार एवं तत्पर होना चाहिए | यदि पिता और अध्यापक बच्चे व क्षात्र की अपेक्षाओं को अच्छी तरह समझ कर उस पर ध्यान नहीं देते हैं और उसके बिपरीत आचरण करते हैं तो वे ही अनुशासनहीन माने जायेंगे | वे दोनों उपरोक्तानुसार सही तथ्यों से अनजान रहकर कभी कभी बल प्रयोग का आलंबन तक ले लेते हैं | शक्ति का आगार होने के कारण बच्चा व क्षात्र कभी कभी इस बल प्रयोग के विरुद्ध आक्रोशित हो उठता हैं , जिसे अनजान लोग अनुशासन हीनता का नाम डे देते हैं , जबकि यह अनुशासन हीनता न होकर अनुशासनहीन लोगों द्वारा किये गए बल प्रयोग के बिरुद्ध उनके आक्रोश का अभिप्रकाशन मात्र है | इस तथ्य को शिक्षा जगत एवं परिवार की संस्था को भलीभांति समझाना चाहिए | तभी हम स्वस्थ परिवेश मे जिम्मेदार एवं उपयोगी समाज के निर्माण मे अपनी अपनी भूमिका का सम्यक निर्वहन कर सकेगें और तब जनरेशन गैप , आज्ञाकारिता एवं अनुशासनहीनता की समस्या का सम्यक समाधान हो सकेगा |
अब हम पिता की स्थिति को लेते हैं | पिता को दयालु तानाशाह के रूप मे होना चाहिए , जबकि मा करुणा , प्रेम व दयालुता की प्रतिमूर्ति होती है , इसीलिए बच्चा मा के आँचल मे मे अपने को पूर्णतया सुखी व सुरक्षित पाता है और वह मा से बिलकुल नहीं डरता | इसके बिपरीत बच्चा पिता से उसकी करुणा व प्रेम का संरक्षण तो पाता ही है , पर उसके कड़े अनुशासन से डरता भी है कि यदि उसने गलत आचरण किया तो पिता उसे दण्डित करेगा | मा बाप मे यही अंतर होता है | शान व्यवस्था को भी पिता की तरह कठोर किन्तु दयालु यानि बेनीवेलेंट डिक्टेटर जैसा होना चाहिए |
अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा
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