Tuesday, August 10, 2010

हिंसा बनाम अहिंसा : जगन्नाथ सिंह

मानव सभ्यता के आदि प्रश्नों मे से एक प्रश्न यह भी रहा है कि मनुष्य को किसे मारना चाहिए और किसे नहीं मारना चाहिए | अर्थात जीवन मे हिंसा का क्या स्थान होना चाहिए ? इस दिशा मे उत्तर खोजने के बहुत सारे प्रयास हुए ,पर सफलता नहीं मिलने से यह प्रश्न अभी तक अनुत्तरित है |
     इस प्रश्न का उत्तर तलाश करने की प्रक्रिया मे हम सबसे पहले समस्त जीवों को तीन श्रेणियों मे वर्गीकृत करते हैं | पहली श्रेणी मे वे सभी जीव आवेंगे जो मनुष्यों के मित्र हैं , जिन्हें हम जातिमित्र कह सकते हैं | जातिमित्र श्रेणी मे मनुष्य के अलावा वे पशु भी आ जावेंगे जो मनुष्य के लिए प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उपयोगी हैं | दूसरी श्रेणी के जीव जातिशत्रु कहलायेगे , क्योकि ये मनुष्य जाति के लिए खतरनाक होते हैं और जिनसे मनुष्य जाति को कभी व कही भी नुकसान पहुँच सकता है | इसके उदाहरण सांप ,शेर आदि जानवर तो है ही ,युद्धों मे दुश्मन भी इसी श्रेणी मे आते हैं | तीसरी श्रेणी के जीवों को हम निरपेक्ष जीव कह साकते हैं | ऐसे जीव सामान्यतया हमारे मित्र होते हैं , पर उनके कभी कभार हमारे शत्रु  बन जाने की सभावना बराबर बानी रहती है | ऐसे जीव जब तक हमारे लिए उपयोगी बने रहते हैं और जब तक मनुष्य जाति  को उनसे किसी प्रकार की हानि  होने की सम्भावना नहीं रहती , तब तक वे मनुष्य जाति के मित्रवत माने जावेंगे और जिस क्षण वे मनुष्य जाति को नुकसान पहुँचाने को उद्धत होते हैं तो उन्हें शत्रुवत माना जावेगा | कुत्ता जब तक पागल होकर लोगों को काटने की स्थिति मे नहीं होता ,वह जातिमित्र कहलायेगा ,इसके बिपरीत स्थिति मे वही कुत्ता जातिशत्रु माना जावेगा |
      अब इस प्रश्न का उत्तर स्वतः आ जाता है कि जातिमित्र को कभी और किसी भी  दशा  मे नहीं मारा जाना चाहिए | इसके अलावा जातिशत्रु को प्रत्येक दशा मे मार डालना चाहिए और किसी भी दशा मे उसे जीवित नहीं छोड़ना चाहिए , क्योकि उदासीनता या दयावश अपने को बचाते हुए जाति शत्रु को जीवित छोड़ दिए जाने पर वह जतिशत्रु आपकी जाति के किसी व्यक्ति को हंज पहुँचा सकता है | पर जातिशत्रु को उसके घर , जहाँ रहकर वह निरपेक्ष जीव की भांति रहकर न तो हमें नुकसान पहुँचाता है और न ही उससे किसी प्रकार के नुकसान की संभावना नही होती है | कहने का अर्थ यही है कि जंगल मे जाकर सारे शेरों को नहीं मार डालना चाहिए और न ही सपेरों की मदद से सारे साँपों को उनकी  बिलों से बाहर निकलवाकर मारना चाहिए | निरपेक्ष जीवों पर सतर्क दृष्टि रखते हुए उनका भरपूर लाभ लिया जाना चाहिए और उनके शत्रु रूप अख्तियार करते ही उन्हें मार देना चाहिए |
    यह एक सार्बभौम उत्तर है जो सर्बकालिक ,सर्बदेशिक तथा सर्बपात्रिक है और हिंसा व अहिंसा का वास्तविक मर्म स्पष्ट करता है |  
 

अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Friday, August 6, 2010

दहेज़ प्रथा के खात्मे की ओर पहल : जगन्नाथ सिंह

दहेज़ प्रथा भारतीय जनमानस का एक बहुत बड़ा अभिशाप है और इसके चलते हर बेटी के माता पिता परेशान एवं चिंताग्रस्त रहते हैं |सभी इसे सामाजिक कुरीति यहाँ तक कि इसे समाज का कोढ़ मानते हैं ,पर कोई इसके खिलाफ जेहाद छेड़ने का संकल्प लेने की हिम्मत कोई नहीं करता | भारत का प्रत्येक व्यक्ति इस परिप्रेक्ष्य मे दोहरा चरित्र जीता है | लड़की का बाप होने की हैसियत से वह दहेज़ प्रथा का घोर विरोधी होता है ,किन्तु लड़के के पिता के रूप मे वही व्यक्ति दहेज़ लेने से बिलकुल भी परहेज नहीं करता ,वरन दहेज़ लेने के सम्बन्ध मे वही पहल करता हुआ नज़र आता है | इस दहेज़ का वास्तविक अभिशाप महिलाओं को ही सबसे अधिक झेलना पड़ता है और इसका सीधा प्रभाव स्त्रियों पर ही होता है ,पर इस कुप्रथा के मूल मे स्त्रियाँ ही होती हैं | यदि गहराई से मंथन किया जाय , तो इस कुप्रथा के लिए सर्वाधिक यहाँ तक कि ८० % स्त्रियाँ ही जिम्मेदार हैं | इसी प्रकार महिला उत्पीडन के क्षेत्र मे भी पुरुषों के बजाय महिलाएं ही सर्वाधिक जिम्मेदार होती हैं | अतयव महिला वर्ग को ही सबसे पहले निर्णय लेना पड़ेगा कि उन्हें किसी महिला के उत्पीडन का कारण व माध्यम नहीं बनना है और स्वयं सहित किसी भी महिला के उत्पीडन को किसी दशा मे बर्दास्त नहीं करना है | केवल यही एक कदम दहेज़ प्रथा पर अंकुश लगाने हेतु पर्याप्त है | यदि ऐसा संभव हुआ तो इस कुप्रथा पर लगाम कसने के लिए कुछ और करने की जरुरत ही नहीं होगी |
      वैसे गहराई से बिचार करने से स्पष्ट होता है कि दहेज़ का मूल कारण आर्थिक है | इस वैश्य (captalist) युग मे भारतीय समाज भी पूर्णतया  व्यावसायिक बन गया है | यहाँ लड़के को एसेट और लड़की को लाइबिलिटी समझा जाता है | कमाने के कारण लड़के को कमाऊ पूत अर्थात एसेट और लड़की को गृहणी होने के फलस्वरूप तथा पति के ऊपर आर्थिक रूप पर पूर्णतया निर्भर रहने के कारण बोझ स्वरूप यानि लाइबिलिटी माना जाता है | यदि लड़कियां पढ़ लिखकर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन जाती हैं तो वे स्वतः एसेट बन जाएँगी और तब दहेज़ की सम्भावना नहीं होगी | इस दृष्टि से स्त्री शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता से दहेज़ की बुराई को समूल नष्ट किया जा सकता है | ऐसा देखा भी जाता है कि लड़की जब पढ़ कर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाती है तो उसकी शादी बिना दहेज़ के संपन्न हो जाती है |
     दहेज़ की इस कुरीति के विरुद्ध वातावरण बनाये जाने के उद्देश्य से इसे एक जनांदोलन के रूप मे  चलाये जाने की बहुत बड़ी आवश्यकता है | युवा शक्ति को एकजुट होकर दहेज़ के विरुद्ध  जेहाद छेड़ने का काम अपने हाथ मे लेना चाहिए | युवा पीढ़ी के ऊपर लगने वाले कई आरोपों के दाग को वे इस महान काम से मिटा सकते हैं | दहेज़ मागने , दहेज़ लेने , दहेज़ देने , दहेज़ के कारण उत्पीडन तथा दहेज़ हत्या आदि कार्यों पर युवा व युवती वर्ग समूह बनाकर काम करेगे और दहेज़ की कुप्रथा का खात्मा करके ही दम लेंगे |
   सामाजिक संगठन व संस्थाएं तथा स्वयं सेवी संस्थाएं अपने द्वारा किये जाने वाले कार्यों के अलावा इस पुनीत कार्य मे भी अपना योगदान दे | विभिन्न जाति समाजो द्वारा सामूहिक विवाह आयोजनों तथा दहेज़ लेने व देने वालों के विरुद्ध जाति व समाजगत प्रतिबंधों द्वारा दहेज़ प्रथा पर प्रभावी ढंग से नियंत्रण पाया जा सकता है |     
     मीडिया के इस काम मे लग जाने से तो सारा काम बड़ी आसानी से हो जावेगा | तमाम कानूनों के होते हुए सरकारी निष्क्रियता के कारण ही इस  कुरीति ने इतना  विकराल रूप धारण कर लिया है | अतः मीडिया , युवा - युवतियों तथा स्वमसेवी संस्थाओं द्वारा सरकारों को भी इस दिसा मे जाग्रत ; क्रियाशील तथा मजबूर करना पड़ेगा | तभी लक्ष्यानुसार वांछित परिणाम प्राप्त हो सकेगा | 


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Monday, August 2, 2010

झाँसी का राजदंड : जगन्नाथ सिंह

हाल मे ही मेरे एक मित्र ने मुझसे सवाल किया कि आप झाँसी के जिलाधिकारी रह चुके हैं तो आपको पता होगा कि झाँसी का राजदंड कहाँ है ? मेरे द्वारा अनभिज्ञता व्यक्त किये जाने पर उनके द्वारा बताया गया कि झाँसी का राजदंड गोरखा रेजिमेंट की रानीखेत यूनिट मे एक वार मेमोरिअल (विजय चिन्ह )के रूप मे रक्खा है जो यह प्रमाणित करता है कि इस यूनिट ने झाँसी राज्य पर फतह हासिल किया था और झाँसी पर कब्ज़ा किया था | वार मेमोरियल सेना की सबंधित यूनिट के लिए अत्यधिक गर्ब की वस्तु हुआ करती है और उक्त यूनिट के जवान इससे उत्साहित होते हैं , अतयव इसे प्रदर्शन की वस्तु भी माना जाता है | मेरे मित्र को रानीखेत भ्रमण के अवसर पर उन्हें झाँसी का राज दंड इसी रूप मे  दिखाया गया था , जिससे वह काफी दुखी हुए थे |  
      आजाद भारत  मे अब तथ्यों तथा वस्तुओं के मायने बदल गए हैं | झाँसी राज्य पर विजय प्राप्त करना और राज दंड को कब्जे मे लेकर उसे वार मेमोरियल के रूप मे प्रदर्शित करना तथा इस कारनामे पर सेना की अमुक रेजिमेंट तथा यूनिट को गर्ब करना आज स्वतन्त्र भारत मे अराष्ट्रीय और राष्ट्रद्रोह के समान है | एक अन्य उदाहरण लेते हैं | जलियावाला बाग़ मे गोली चलाने का हुक्म जनरल डायर ने दिया था ,पर गोली चलाने वाले हाथ भारतीय थे | ऐसी बर्बरतापूर्ण कार्यवाही पर भारतीय सेना की संबंधित इकाई को गर्ब करना और वहाँ हासिल हुई वस्तुओं को विजय चिन्ह के रूप मे प्रदर्शित करना कहाँ तक उचित है ?    
       झाँसी के राज दंड की तरह सेना के पास बहुत सारे प्रतीक तथा बस्तुएं हो सकते हैं , जिन्हें आज विजय चिन्ह के रूप मे प्रदर्शित किया जाता है ,जबकि वे आज स्वतन्त्र भारत मे विजय चिन्ह के बजाय  कायरता ,बर्बरता ,अत्याचार और राष्ट्रद्रोह के प्रतीक ही माने जावेगे | अतयव सेना तथा संस्कृति विभाग को चाहिए कि वे ऐसे मामलों की गहन छानबीन करके उन्हें तलाशें और ऐसे राष्ट्रीय प्रतीकों को उनके उचित स्थानों पर रखवाने की व्यवस्था करे और संग्रहालयों मे उन्हें ससम्मान  प्रदर्शित किया जावे | अतयव यह उचित प्रतीत होता है कि झाँसी के राज दंड को झाँसी  संग्रहालय मे शीघ्रातिशीघ्र रखवा दिया जाय |   
 
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चित्रकूट का महातम्य

चित्रकूट धर्मावलम्बियों तथा सैलानियों दोनों के लिए सर्वथा उपयुक्त पर्यटन स्थल है | भगवान राम द्वारा चौदह मे से साढ़े ग्यारह वर्ष का बनवास यहीं बिताने के कारण चित्रकूट का महातम्य  स्थापित हुआ था | भगवान राम के समक्ष कहीं भी जाकर अपना बनवास  बिताने का विकल्प होने के बावजूद उन्होंने चित्रकूट को ही चुना था और चित्रकूट ही आये थे | इस प्रकार चित्रकूट का अपना कोई आकर्षण अवश्य रहा होगा , जिसके कारण भगवान राम चित्रकूट ही आये और अन्यत्र नहीं गए | चित्रकूट नाम मे ही यहाँ की विशेष विशिष्टता निहित है | चित्र से आशय यहाँ की मनोहारी व मनमोहक सुन्दरता से है | यहाँ की चित्रात्मकता हरियाली व मनोरम दृश्यों से रही है | कूट का अर्थ है पर्वत | यहाँ के पर्वत काफी सुगम हैं और उन पर आसानी से चढ़ा जा सकता है | आज का धन लोलुप मानव चित्र और कूट दोनों को नष्ट -भ्रष्ट करने पर अमादा है |  
          राम चरित मानस भारत तथा भारतवासियों की धमनी और भगवान राम आत्मा स्वरूप है | मानस के रचयिता तुलसीदास व कालिदास की कर्मस्थली तथा भगवान राम की क्रियास्थली होने के कारण चित्रकूट की महानता को स्वीकार करना ही पड़ेगा | पूरे चित्रकूट क्षेत्र मे भगवान राम की चरण रज बिखरी हुई है , ऐसा आम जनमानस का विश्वास है | कदाचित इसी कारण चित्रकूट भ्रमण पर आने वाला अधिकांश श्रद्धालु चित्रकूट क्षेत्र मे प्रवेश करते ही अपने जूते उतार कर अपने झोले मे रख लेता है | शायद उसकी सोंच यही होती है कि उनके आराध्य भगवान राम जब यहाँ नंगे पांव चले थे तो वे यहाँ जूता पहनने का पाप कैसे कर सकते हैं ?    
          देश निकाला होने पर रहीम भी चित्रकूट आये थे  | यहाँ वह गुमनामी का जीवन बिताते हुए जीवन यापन हेतु भाड़ झोकने का काम करते थे | एक बार राजा रीवाँ को चित्रकूट भ्रमण करते समय रहीम भाड़ झोकते नज़र आये | रहीम की मर्यादा का ध्यान लिहाज करते हुए कवि रूप मे वह रहीम से बोले " जा के अस भार है सो कत झोंकत भाड़ " इस पर रहीम मुस्कराए और कविता मे ही उत्तर दिया " भार झोंक कर भाड़ मे रहिमन उतरे पार "| रहीम की यह उक्ति भी जन जन मे व्याप्त है :
       ' चित्रकूट मे रमि रहे रहिमन अवध नरेश , जापर बिपदा पडत है सोई आवत यहि देश |'
रहीम और तुलसीदास से जुड़ा एक महत्वपूर्ण प्रसंग और भी है | चित्रकूट मे एक हाथी पागल हो गया था और उसे मारने का आदेश हो गया था | उस समय रहीम और तुलसीदास दोनों चित्रकूट मे ही थे और वे दोनों हाथी मारने सम्बन्धी फरमान से दोनों बहुत दुखी थे | उसी समय राजा का वहाँ आगमन हुआ | तभी इन पंक्तियों को सुनकर राजा द्वारा हाथी को मारने का फरमान वापस ले लिया गया था | 

         " धूरि उछारत सिर धरत केहि कारन गजराज ,
           जा रज से मुनि तिय तरी सोई ढुंढत गजराज |
 
       चित्रकूट मे रहकर भगवान राम ने त्याग ,तपस्या ,बलिदान ,दुष्टदलन ,जनसेवा तथा समाजसेवा का दृष्टान्त रक्खा था जो मनुष्यता के लिए अनुकरणीय है | भगवान राम ने साधन विहीनता की स्थिति मे सबसे रामराज्य स्थापित किया था और दुष्टदलन करके यहाँ के निवासियों को निर्भय किया था | भगवान राम समाज सेवियों के प्रथम पूर्बज भी थे | हिन्दुओं की चित्रकूट मे अपार श्रद्धा है | चित्रकूट मे प्रतिदिन हजारों तथा अमावस्या के मे लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं और परिक्रमा व दर्शन कर लाभ उठाते हैं | दीपावली की अमावस्या को यहाँ सबसे बड़ा मेला लगता है और कई दिन चलता है |
            

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Monday, July 26, 2010

मोक्ष की अवधारणा ; प्रास्थिति और प्रक्रिया

मोक्ष मानव जीवन यात्रा की अंतिम मंजिल और अध्यात्मिक क्षेत्र की चरम स्थिति है | इसे अलग अलग स्थानों पर अलग अलग नामो से समझा और पुकारा गया है| इसे निर्वाण , कैवल्य , ब्रह्मलीन ,परम गति ,मुक्ति और मोक्ष नामो से जाना जाता है | पर मोक्ष को समझना और समझाना दोनों ही  बहुत ही दुष्कर कार्य है | ब्रह्माण्ड मे सब कुछ तरंगवत है और ब्रह्म तरंग सबसे बड़ी तरंग है | प्रत्येक तरंग की तीन स्थितियां होती है | एक सामान्य तरंग की निम्नतम एवं प्रथम स्थिति है ठहराव | ठहराव की यह स्थिति क्रिया विहीनता का कालखंड होता है और इसी क्रिया विहीनता या ठहराव की स्थिति मे शक्ति संचयन होता है | क्रिया विहीनता की अवधि तथा इसकी सघनता यह निर्धारित करती है कि कितना शक्ति संचयन होता है | इस ठहराव के बाद तरंग का ऊर्ध्वगामी होना दूसरी स्थिति है | प्रथम चरण यानि ठहराव की स्थिति मे हुआ शक्ति संचयन यह तय करेगा कि यह ऊर्ध्वगामी क्रम कितनी दूरी और देर तक रहेगा | जहाँ यह संचित शक्ति समाप्त हो जाएगी ,वही से तीसरा अवरोही क्रम प्रारंभ होकर ठहराव की स्थिति तक चलेगा | तत्पश्चात तरंग का दूसरा क्रम पहले की तरह चलेगा और अनवरत तीसरी चौथी पांचवी .....तरंगो का क्रम चलता रहेगा |
         एक उदाहरण से इसे भलीभांति समझा जा सकता है | इस देश मे इमरजेंसी के बाद जनता दल सरकार द्वारा सत्ता से बाहर किये जाने के बाद इंदिरा गाँधी के लिए यह कालखंड ठहराव यानि क्रिया विहीनता का समय था | सौभाग्य से क्रिया विहीनता या शक्ति संचयन का यह कालखंड थोड़ा बड़ा हो गया था | इस दौरान हुए शक्ति संचयन के फलस्वरूप इंदिरा गाँधी और तेजी से उभरी और इस दौरान ही उन्होंने कई बड़े काम किये |
       ब्रह्म तरंग की स्थिति सामान्य तरंग से थोड़ी भिन्न है ,किन्तु ठहराव , अवरोह तथा आरोह की तीनो स्थितियां वहाँ भी विद्यमान रहती हैं | अंतर बस इतना ही है कि ब्रह्म तरंग मे  ठहराव की स्थिति के बाद अवरोह यानि परम सूक्ष्म (परम पुरुष ) से परम स्थूल (पृथ्वी तत्व ) तक का क्रम चलता है ,जबकि अन्य समस्त तरंगो मे ठहराव के बाद आरोह का क्रम पहले आता है | आरोह क्रम मे परम स्थूल (पृथ्वी) से परम सूक्ष्म (मोक्ष )तक का क्रम चलता है | इसे ही श्रृष्टि चक्र एवं ब्रह्मस्पंदन कह सकते हैं |
      मोक्ष को समझने के लिए विज्ञानं के नियमो का सहारा लेना पड़ेगा जो प्रकृति का भी नियम है | विज्ञानं का नियम है कि हर क्रिया की समान व बिरोधी प्रतिक्रिया होती है | जीवन मे क्षण प्रतिक्षण क्रियाओं का क्रम चलता रहता है | बिना क्रिया किये एक सेकण्ड भी हमारा अस्तित्व नहीं रह सकता |  जहा क्रिया संपन्न होती है , वहा प्रतिक्रिया का होना अवश्यमभाबी है | हम रोजमर्रा के जीवन मे देखते हैं कि कतिपय और सामान्यतया अधिकांश क्रियाओं के समक्ष समान और बिरोधी प्रतिक्रियाएं तत्काल अभिव्यक्त न होकर भविष्य के लिए स्थानांतरित हो जाती हैं | यह स्थगित प्रतिक्रियाएं अवचेतन स्तर पर बीज रूप में विद्यमान रहती हैं और अपने स्वभावानुसार धीरे धीरे परिपक्व होती रहती हैं | पूर्णतया परिपक्व होने पर यह तत्समय घटित होने वाली किसी समानांतर क्रिया की प्रतिक्रिया को समान व विरोधी प्रतिक्रिया नहीं रहने देता ,वरन अभिव्यक्त होकर उक्त प्रतिक्रिया के साथ सायुज्य स्थापित कर लेता है और इसमें घनात्मक अथवा ऋणात्मक प्रतिफलन ला देता है | अर्थात थोड़ा कर्म करके बहुत अधिक प्रतिक्रिया और बहुत अधिक क्रिया करके बहुत कम प्रतिक्रिया होने की स्थितियां बहुधा देखने को मिलती रहती हैं | प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने व अपनों के सदर्भ मे ऐसा होते देख चुका होता  है , क्योंकि ऐसा अक्सर होता रहता है और ऐसा पहले स्तगित प्रतिक्रिया के परिपक्व होने के बाद अभिव्यक्त होने के कारण होता है | स्थगित प्रतिक्रियाओं का कई जन्मो का संचित एक बहुत बड़ा स्टाक जमा रहता है और इस प्रतिक्रिया कोष को अभिव्यक्त करने के लिए अनेको जन्म लेने की आवश्यकता होगी | जीवित रहने तक प्रतिपल क्रिया संपन्न होते रहने के कारण प्रतिक्रिया का यह संचित स्टाक निरन्तर बढ़ता रहता है | जब तक यह पूरा स्टाक समाप्त नहीं होता ,हम सापेक्षिकता की स्थिति मे ही बने रहेगे और मुक्त नहीं हो सकेगे | 
      मोक्ष की दिशा मे दो समस्याओं का सामना करना होता है | पहली समस्या यह है कि जीवित रहने तक तथा जीवित रहने के लिए हमें कर्म करना ही पड़ेगा और कर्मफल भी भोगना पड़ेगा जो बंधनकारी होता है | अतयव कर्म की एक ऐसी तकनीक अपनानी होगी , जिसमे कर्म तो हो पर यह बंधनकारी न हो और हमें कर्मफल न भोगना पड़े | भगवान कृष्ण ने इसी समस्या के निराकरण के लिए ही गीता मे  कर्मयोग का उपदेश दिया था | ब्राह्मी भाव से कर्म करने यानि निष्काम कर्म करने से कर्मफल के सम्बन्ध मे चिंता करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए , क्योकि निष्काम कर्म की स्थिति मे कर्मफल ब्रह्म को ही स्वतः समर्पित हो जावेगा | दूसरे रूप मे इसे ही ब्रह्मचर्य भी कहा जा सकता है | ब्रह्मचर्य का तात्पर्य है ब्रह्म को चरना | चरने का मतलब होता है खाते खाते चलते रहना अर्थात ब्राह्मी भाव से कर्म करना | इस ब्रह्मचर्य की प्रक्रिया मे प्रत्येक कार्य मे ब्राह्मी भाव आरोपित करके  कार्य करना चाहिए | अर्थात कर्म समय यह भाव होना चाहिए कि ब्रह्म ही कर्ता हैं ,अतयव कर्मफल भी ब्रह्म के लिए ही होगा | 
        इसे दूसरी तरह से भी समझा जा सकता है | अभिव्यक्ति प्रतीकीकरण (symbalisation) के अलावा कुछ भी नहीं है | यह प्रतीकीकरण तीन स्तरों पर संपन्न होता है | प्रथम स्तर पर भौतिक प्रतीकीकरण है | समस्त घटित होने वाले  कर्म अथवा क्रियाएं इसी स्तर की मानी जावेगी | दूसरा स्तर मानस प्रतीकीकरण का है , जहाँ प्रतिक्रिया  या संस्कार जगत अवस्थित होता है | इस स्तर पर जन्म जन्मान्तरों की स्थगित प्रतिक्रियाएं अर्थात संस्कार संचित रहता है | तीसरा स्तर अध्यात्मिक प्रतीकीकरण है जो निरपेक्ष होने के कारण दुबारा अभिव्यक्ति नहीं पाता है | भौतिक प्रतीकीकरण का मानस प्रतीकीकरण होना अनिवार्यता है | कालांतर मे मानस प्रतीकीकरण का पुनः भौतिक प्रतीकी करण होना भी अपरिहार्यता है | गीता के उपदेश निष्काम कर्म अर्थात ब्रह्मचर्य के पालन द्वारा हम भौतिक प्रतीतीकरण को बिना मानस प्रतीकीकरण किये सीधे अध्यात्मिक प्रतीकीकरण मे स्थानांतरित कर दिया जाता है | सापेक्षिकता से परे इस अध्यात्मिक प्रतीकीकरण के पुनः अभिव्यक्त होने की सम्भावना नहीं होगी |
      मोक्ष की दिशा मे दूसरी समस्या है , अनगिनत जन्मो की संचित प्रतिक्रियाओं अर्थात संस्कारों के विपुल भंडार को समाप्त करना | यह सबसे कठिन काम है और इसमें कोई शार्टकट नहीं है | तीन तरह की  प्रक्रियाओं को अपनाकर यह अति दुष्कर कार्य संपन्न किया जा सकता है | सबसे पहले मनो आध्यत्मिक समानान्तरण प्रक्रिया अर्थात आध्यात्मिक साधना द्वारा मानस प्रतीकीकरण को आध्यात्मिक प्रतीकीकरण मे स्थान्तरण करने से उनका पुनः भौतिक प्रतीकीकरण संभव नहीं होगा | इसी साधनात्मक  प्रक्रिया के द्वारा ही मानस प्रतीकीकरण के भौतिक प्रतीकीकरण की प्रक्रिया को त्वरण देने से यह कार्य शीघ्रता से संपन्न होगा | तीसरा कदम विपस्सना को अपनाना होगा | इन तीनो कदमो का यह प्रतिफल होगा कि एक दिन स्थगित प्रतिक्रिया व संस्कार का सम्पूर्ण संचित कोष समाप्त हो चुका होगा | निष्काम कर्म योग से नई प्रतिक्रिया के सृजन व स्थगित होने की सम्भावना पर पहले ही सफलता प्राप्त की जा चुकी है | अतयव अब ऐसी स्थिति आ चुकी है ,जहाँ कुछ भोगने को शेष नहीं बचता और व्यक्ति सापेक्षिकता से ऊपर पहुँच चुका होता है | यही कैवल्य , निर्वाण , मुक्ति ,मोक्ष तथा ब्रह्मलीन होने की स्थिति है , जो व्यक्ति की परम गति तथा अंतिम मंजिल है | 


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Thursday, July 22, 2010

राजनीति और धन की वापसी ; समस्या का स्थायी समाधान

व्यक्ति ,समाज तथा देश की अधिकांश समस्याएं राजनीति और धन के अत्यधिक प्रभाव व वर्चस्व के कारण है | साधन के रूप मे इन दोनों की जरुरत अवस्य है , पर आज धन व राजनीति का वर्चस्व अत्यधिक बढ़ गया है और दोनों साधन से साध्य बनकर प्रत्येक क्षेत्र मे बुराइयाँ व समस्याएं ही  उत्पन्न कर रहें हैं | इससे आम आदमी तथा किसान सबसे अधिक प्रभावित हो रहा है और किंकर्तव्यमूढ़ बना हुआ है | वह आज महगाई से सर्बाधिक प्रभावित  तथा त्रस्त है और इस किसान व आम आदमी को महगाई से राहत दिलाना मेरा विशेष प्रयोजन है | वस्तुतः महगाई को बढ़ाने मे यही धन व राजनीति ही मुख्यतया जिम्मेदार है | अतयव महगाई और अधिकांश समस्याओं का समाधान पाने के लिए धन व राजनीति के प्रभाव को कम करने तथा इनकी साध्य से साधन के स्तर तक वापसी अत्यावश्यक है | 
      बढ़ते मुद्रा प्रसार ,नकली नोटों का बड़े पैमाने पर प्रचलन , काले धन की सामानांतर अर्थ व्यवस्था ,गलत आर्थिक नीतियाँ ,गैर ज़िम्मेदाराना राजनीतिक बयानबाजियां तथा शासको के अहम् व सनक भरी योजनाओं का कार्यान्वयन महगाई बढ़ाने वाले प्रमुख कारक सिद्ध हो रहे हैं | महगाई का कोई खास असर अमीरों पर नहीं होने के कारण वे तत्क्रम मे उदासीन रहते हैं | महगाई से सबसे ज्यादा परेशान आम आदमी और किसान असंगठित होने के कारण महगाई के बिरुद्ध एकजुट होकर अपना विरोध दर्ज नहीं करा पाते | विपक्ष द्वारा महगाई को सरकार के विरुद्ध प्रयोग किया जाने वाला केवल एक हथियार ही समझा जाता है | जिसके कारण महगाई निरन्तर बढती जा रही है और इस पर नियंत्रण किये जाने के विषय मे कोई कारगर एवं परिणामदायक उपाय नहीं हो रहे है | इसी कारण महगाई सर्बाधिक चिंता का विषय बनी हुई है | 
       आम आदमी और किसान हमारी प्राथमिकता का केंद्र बिंदु होने के कारण सर्बप्रथम हम ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लेते हैं | अभी तक सरकारे अमीन के माध्यम से लगान नगद वसूलती हैं और छोटे किसानो को लगान से छुट दी जाती है | ग्रामीण क्षेत्रों मे सीलिंग भी लागू है और किसानो को एक  निश्चित सीमा से अधिक भूमि रखने पर पाबन्दी है ,पर खेत के सदुपयोग न करने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है | सीलिंग का यह तरीका सही नहीं है | सीलिंग मे अधिकतम भूमि रखने की सीमा रखने के बजाय प्रति मानक बीघा न्यूनतम उत्पादन करने का प्रतिबन्ध लगाया जाना अधिक उचित है | इसका परिणाम यह होगा कि न्यूनतम उत्पादन का लक्ष्य प्राप्त करने हेतु कृषि उत्पादन व उत्पादकता बढ़ाने का एक स्वाभाविक वातावरण बनेगा और सकल कृषि उत्पादन मे बहुत ज्यादा बढ़ोत्तरी होने की सम्भावना होगी | इससे सीलिंग को एक कारगर एवं तर्कसंगत आधार मिल सकेगा ,क्योकि जो न्यूनतम उत्पादन नहीं करेगा ,उसकी कृषि भूमि सरकार द्वारा अपने कब्जे मे लेकर भूमिहीनों तथा खेतिहर मजदूरो मे बाँट दी जावेगी और खेतो पर वास्तविक किसानो का ही कब्ज़ा होगा | जब प्रति मानक बीघा न्यूनतम उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित हो जावेगा तो लगान व गल्ला वसूली भी उक्त आधार पर आसानी से हो सकेगी जो सामान्यतया न्यूनतम उत्पादन १० प्रतिशत होगा बिना किसी भेदभाव के सभी किसानो से वसूल किया जावेगा | इस प्रकार लगान तथा गल्ला वसूली स्वतः हो जाएगी | इस वसूल किये गए गल्ले से लगान सहित अन्य सरकारी देयों का समायोजन करने के बाद जो धन देय होगा उसे नकद न देकर खाद बीज आदि निवेश प्राप्त करने हेतु कूपन दे दिया जावेगा | इसके बाद का अवशेष नकद भुगतान कर दिया जावेगा | मानक बीघा का न्यूनतम उपज निर्धारण ,बोये गए फसल का व्योरा तैयार करने सहित लगान व गल्ला वसूली तथा गल्ले का भण्डारण आदि कार्य सरकारी कर्मचारियों के बजाय गाँव के ही एक ठेकेदार द्वारा किये जायेगे | इसके लिए इसे १ या २ प्रतिशत कमीशन भी दिया जावेगा | यह गाँव का सबसे महत्वपूर्ण व इमानदार व्यक्ति होगा | अतयव इसी व्यक्ति को ग्राम स्तर का राजनीतिक अधिकार भी सौंप दिया जावेगा | ऐसी स्थिति मे प्रधान का अलग से चुनाव कराने की आवश्यकता नहीं होगी और ग्राम स्तर पर राजनीति की स्वतः वापसी संभव हो जाएगी | यही सभी प्रधान मिलकर  क्रमशः न्याय पंचायत , ब्लाक ,जिला,राज्य तथा देश का प्रतिनिधि भी चुनेगे और सरकार बनाने का महत्वपूर्ण दायित्व निभायेगे | इससे चुनाव बिहीन राजनीतिक तथा धन विहीन आर्थिक व्यवस्था लागू हो सकेगी | तभी प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे के मेहता के आवश्यकता विहीनता की ओर ले जाने सम्बन्धी आर्थिक सिद्दांत पर अमल हो सकेगा| इससे मानव सच्चे अर्थों मे खुशहाली के रास्ते पर चल पड़ेगा और वास्तविक प्रजातंत्र तथा रामराज्य का सुख भोगेगा |    
     

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Wednesday, July 21, 2010

सम्यक राजनीति एवं अर्थ बोध

आजकल धन और राजनीति का वर्चस्व बहुत अधिक बढ़ गया है | धन के बढे हुए वर्चस्व के कारण आज यह युग वैश्य युग बन गया प्रतीत होता है ,क्योंकि आज धन ही मूल्यांकन की कसौटी बन गयी है और धनवान की ही समाज मे सर्बाधिक प्रतिष्ठा है | परिवार मे भी कमाऊ पुत्र का ही वर्चस्व रहता है | यहाँ तक मा का स्नेह भी निस्वार्थ न रहकर पैसे की तराजू मे ही तुलता है अर्थात मा भी उसी बच्चे को सर्बाधिक प्यार करती है जो सबसे ज्यादा पैसा कमाकर लाता है | कहने का तात्पर्य यही है कि यह अर्थ युग बन गया है और इसी कारण लोगो मे धन कमाने की होड़ सी लगी हुई प्रतीत होती है | आज धन मानवीय मूल्यों ,मानवीय संबंधों तथा सामजिक स्तरीकरण का स्थापित आधार बन गयाहै | इसके कारण व्यक्तिगत ,सामाजिक और नैतिक मूल्यों मे बहुत अधिक गिरावट देखने को मिल रही है | प्रत्येक क्षेत्र मे मे इसके बिस्तार एवं प्रभाव के कारण पूरी की पूरी व्यवस्था ही संक्रमित एवं दूषित हो गयी है |राजनीति का भी प्रभाव व प्रभुत्व धन की ही तरह सर्ब व्याप्त है | प्रत्येक क्षेत्र मे राजनीति ने अपनी पैठ बनाकर अपना वर्चस्व कायम कर रखा है | इससे कोई क्षेत्र अछूता नहीं रह गया है | यहाँ तक पति पत्नी के शयन कक्ष तक इसकी पहुँच संभव हो चुकी है | 
       उपरोक्त से यह स्वतः स्पष्ट है कि धन और राजनीति बर्तमान समय की सबसे बड़ी बुराईयां हैं और इन दोनों बुराईयों पर नियंत्रण पाना बहुत आवश्यक है | यह भी एक नंगा सच है कि व्यक्तिगत व सामाजिक क्षेत्र मे धन और राजनीति की साधन के रूप मे जरुरत होती है | जब तक यह दोनों साधन के रूप मे हैं हैं ,तब तक यह दोनों उपयोगी हैं | परन्तु धन व राजनीति जब साधन के बजाय साध्य बन जाती हैं ,तो ये व्यक्ति व समाज के लिए हितकर नहीं रह जाती हैं | अतयव आज इन पर नियंत्रण करना इस दृष्टि से आवश्यक है कि यह दोनों साधन के रूप मे इनकी उपयोगिता बनी रहें और यह साध्य न बनने पायें |
      व्यष्टि और समष्टिगत क्षेत्र से धन व राजनीति की वापसी लोकहित मे बहुत जरुरी है | पर यह अत्यधिक कठिन और चुनौतीपूर्ण काम है ,क्योंकि इन दोनों की जड़े बहुत गहरी हैं और सम्पूर्ण व्यवस्था को ही जकड रखा है |अतयव इन दोनों के विरुद्ध कार्यवाही होने पर व्यवस्था ही इनके साथ खड़ी हो जाएगी | अतयव इस प्रयोजन से एक नई व्यवस्था का प्रावधान करना होगा |
वैसे इस समस्या का वास्तविक समाधान है | राजनीति और धर्म की वापसी तथा साधन के रूप मे उनकी प्रतिष्ठा करना | यह एक अत्यधिक दुरूह कार्य है , क्योकि जब बुराइयों की जड़े काफी गहराई तक चली जाती हैं तो उन्हें जड़ समेत उखाड़ना बहुत कठिन हो जाता है |


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा