Saturday, May 1, 2010

गरीबी उन्मूलन सम्बन्धी योजनाओं की हकीकत

    सरकार की यह जिम्मेदारी होती है कि कोई भी नागरिक भूख से न मरे | इसके अलावा सरकार को सामाजिक -आर्थिक समानता एवं न्याय की अवधारणा को भी लागू करना होता है | इसीलिए गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की  आमदनी बढ़ा कर लाभान्वित करने के लिए कुछ योजनायें चलायीं जाती रहीं हैं | इनमे एम् एफ़ ऐ एल  , एस एफ़  डी ऐ , आई आर डी ट्राईसम, द्वाकरा, अन्तोदय तथा स्वयं सहायता समूह आदि योजनायें प्रमुख रहीं हैं | इन योजनाओं के माध्यम से सरकार प्रयोग करती रही है और वांछित परिणाम न मिलने के कारण लगभग सभी योजनायें बंद होती गयीं | मेरी समझ से इन योजनाओं से फिलहाल लाभार्थी तो बिलकुल ही लाभान्वित नहीं हुआ है | इन योजनायों की असफलता का कारण भी स्पष्ट है | यह योजनायें गरीबी और भूख से अपरिचित लोगों द्वारा वातानुकूलित कक्षों मे बनाई गयी अथवा विदेशी परिवेश से आयातित की गयी प्रतीत होती हैं | यही कारण है  कि ये योजनायें भारतीय परिवेश मे सही परिणाम नहीं दे पाई और योजना को बंद करना पड़ा | बाद मे वही योजना बदले नाम एवं स्वरूप मे पुनः लागू की गयी, जिसका असफल होना भी उसकी नियति बन गया | यही हमारी विकास यात्रा रही और कुछ एक अपवादों को छोड़कर देश गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लाभार्थियों को कुछ नहीं दे पाया है |
        विकास की बाट जोह रहे लाभार्थियों को हम पांच श्रेणियों मे रख सकते हैं | पहली श्रेणी मे वे लोग आयेंगे , जो केवल पूंजी की कमी के कारण आगे नहीं बढ़ पाते है | यदि उनको पूंजी उपलब्ध हो जाए तो वे विकास की राह पर स्वयं चल पड़ेंगे | बैंक अपनी रूढ़िवादी कार्यशैली के कारण पर्याप्त जमानत रखने वाले ऐसे लाभार्थियों को ऋण देकर सहायता करने तक  के लिए तैयार नहीं था | बैंको द्वारा इस सम्बन्ध में सरकार के निर्देशों की उपेक्षा किये जाने पर बैंको का राष्ट्रीयकरण किया गया और बैंक सरकारी नियंत्रण मे आ गए | इससे पहली श्रेणी के लाभार्थियों को बहुत लाभ पहुँचा |
      दूसरी श्रेणी में ऐसे लाभार्थी थे , जिनके पास बैंक ऋण प्राप्त करने हेतु बैंक की अपेक्षानुसार जमानत  देने को न तो कोई सम्पति थी और न ही उनके पास मार्जिन मनी ही थी | गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों के लिए सरकार द्वारा बिना जमानत मांगे ऋण देने और मार्जिन मनी की व्यवस्था अनुदान देकर कर दी गई थी | इससे दूसरी श्रेणी के लाभार्थियों के विकास की भी व्यवस्था हो गयी थी |
     तीसरी श्रेणी में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले वे व्यक्ति थे, जिनका ऋण और अनुदान मिल जाने के बावजूद  विकास नहीं हो सकता है , क्योंकि वे कुछ करना ही नहीं जानते | अतयव उन्हें कोई न कोई काम को सिखाने हेतु प्रशिक्षण दिलाने की भी व्यवस्था की गयी |
     चौथी श्रेणी मे गरीबी रेखा के नीचे का वह व्यक्ति था जिसे कुछ सिखाया भी नहीं जा सकता | अतयव उसे फावड़ा टोकरी सहित मजदूरी का रोजगार देकर ही लाभान्वित किये जाने की व्यवस्था की गयी | आज कल मनरेगा की इस योजना पर बड़ा जोर है |
      पांचवी श्रेणी मे वह व्यक्ति आता है जो इतना अशक्त है कि वह मेहनत मजदूरी भी नहीं कर सकता | इस व्यक्ति को यदि कुछ नहीं मिला तो यह भूख से मर जायेगा | अतयव इसे अन्तोदय अन्न योजना , बृद्धावस्था-विधवा-विकलांग पेंशन योजनाओं से लाभान्वित किया जाता है |
      अब सवाल यह उठता है कि गरीबी उन्मूलन की यह सभी योजनाये असफल क्यों हुईं हैं और इनका वास्तविक लाभ क्यों नहीं पहुंचा है ? वस्तुतः इन योजनाओं की संरचना ही गलत ढंग से की गयी थी | इन योजनाओं की संरचना कदाचित भारतीय परिवेश से भिन्न परिवेश मे की गयी प्रतीत होती है और इनकी संरचना ऐसे लोगों द्वारा की गयी प्रतीत होती है , जो भारतीय मिटटी , सोंच ,सभ्यता - संस्कृति , आवश्यकता व अपेक्षाओं से अनभिज्ञ रहें हैं | एक आम आदमी ही एक आम आदमी की जरुरत एवं क्षमता को समझ सकता है |
       लाभार्थी चयन मे भी गलत मापदंड अपनाया गया | अन्तोदय मापदंड पर ऐसे लाभार्थिओं का चयन किया गया, जिनमे आत्म विश्वास बिलकुल नहीं था और जोखिम उठाने की क्षमता तो बिलकुल ही नहीं थी | शून्य इच्छा शक्ति वाला यह व्यक्ति मामूली ठोकर लगते ही धराशायी होकर ऐसा बिखरता है कि फिर नहीं संभल पाता है | परिणाम यही होता है कि लाभार्थी की स्थिति बद से बदतर हो जाती है और योजना अपने उद्देश्यों मे असफल हो जाती है | होना ये चाहिए था कि सबसे गरीब को चुनने की प्रक्रिया मे आत्म विश्वास तथा जोखिम उठाने की क्षमता वाले व्यक्ति को ही लाभार्थी के रूप में चयनित किया जाना चाहिए था | योजना मे जोखिम की कमी की प्रतिपूर्ति किये जाने की व्यवस्था भी होनी चाहिए थी ,भले ही इस उद्देश्य से स्वयंसेवी संगठनो एवं बिचौलिओं की मदद लेनी पड़े |
      यहाँ मै अपने द्वारा किये गए एक प्रयोग की चर्चा करना चाहूँगा | 1981-82 में मैं फतेहपुर जनपद मे अपर जिलाधिकारी ( परियोजना ) के रूप मे तैनात था | उस समय आई आर डी योजना के लोहार कार्य जानने वाले लाभार्थिओं के एक समूह को दराती वाली हंसिया बनाने का प्रशिक्षण दिलाया, फिर पैटन टैंक का स्क्रैप मंगाया और कुशल कारीगार की देख रेख मे दराती वाली हंसिया बनवा कर स्थानीय बाजारों मे बिकवाने की व्यवस्था कराई थी | इस प्रकार लाभार्थी मे जोखिम की कमी की प्रतिपूर्ति एक बिचौलिए के द्वारा प्रशिक्षण, कच्चा माल तथा मार्केटिंग की व्यवस्था कराई गयी थी | यह बिन्दु ऐसी योजनाओं की सफलता के लिए बहुत ही आवश्यक है |    
     
अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Thursday, April 29, 2010

प्रवर्तन कार्य की असली हकीकत

विभिन्न अधिनियमों को लागू करने की जिम्मेदारी प्रत्येक विभाग मे विद्यमान प्रवर्तन मशीनरी पर होती है और यदि प्रवर्तन मशीनरी सतर्क एवं सक्रिय होकर प्रभावी नहीं होती हैं तो उक्त अधिनियम कागज़ का पुलिंदा बनकर रह जाता है | जब लोगों को साफ़ नजर आता है कि अधिनयम के उल्लंघन करने पर कोई कार्यवाही नहीं हो रही तो उसका प्रभाव बहुत खराब होता है और अधिकांश लोगों मे उक्त कानून का उल्लंघन करने की प्रवृति आ जाती है | यह बड़ी घातक स्थिति होती है और इसके बड़े दूरगामी प्रभाव होते हैं | इसके विपरीत होना यह चाहिए कि लोगों के दिलों मे यह डर बना रहना चाहिए कि कानून का तनिक सा उल्लंघन हुआ तो प्रवर्तन मशीनरी से वह अथवा कोई अन्य व्यक्ति बच नहीं पायेगा | यह वातावरण बनाने के लिए यह आवश्यक है कि कानून के छोटे छोटे उल्लंघनो को तनिक भी नजरंदाज न किया जाय, वरन उन पर ज्यादा ध्यान दिया जाये | तभी अपराध के बजाए कानून का राज्य कायम होगा | उदाहरण के लिए सड़क पर चलने वाले वाहनों को लें तो रात मे हाइवे  पर चलने वालों को खूब पता होता है कि 70% बड़े वाहनों की बैक लाईट नहीं जलती | इससे प्रत्येक क्षण  सड़क पर एक्सिडेंट का खतरा बना रहता है | इसके इलावा वाहनों पर लदी सरिया, एंगल तथा गर्डर पीछे 7-8 फुट निकले रहते हैं | उनके पीछे कोई खतरे का निशान नहीं लगा होता तथा बैक लाइट भी नहीं होती | ऐसी स्थितियां परिवहन विभाग की प्रवर्तन मशीनरी तथा पुलिस की शिथिलता के कारण होती है | दोनों विभाग मामूली कमियां मानकर इसे नजरंदाज कर देते हैं और बड़ी बड़ी कमियों को ही देखते हैं | इस सबका परिणाम यही होता है कि सड़क का सारा का सारा अनुशासन ही समाप्त हो जाता है और ७०% मार्ग दुर्घटनाएं और मौतें इसी लापरवाही के चलते होती हैं |
       यह भी एक सच है कि परिवहन विभाग का प्रवर्तन अधिकारी माह मे लगभग 3000 वाहनों को ही चेक कर सकता है, जबकि उसके कार्यक्षेत्र मे लाख से अधिक वाहन चलते हैं | ऐसी दशा मे उक्त अधिकारी अधिक से अधिक वाहनों को कवर करना चाहता है | अतः बड़ी बड़ी ट्रांसपोर्ट कंपनियों से वह माहवारी बांध लेता है, जिससे बड़ी कम्पनियों के वाहन क़ानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए बिना किसी भये के सीना तान कर चले जाते हैं | जबकि अधिकारी फुटकर वाहनों को मामूली जुर्मो  मे चलान कर अपना कोटा पूरा करता है | इस प्रकार की कार्यवाही पर सबकी नजर रहती है, अतयव प्रवर्तन अधिकारी की सामाजिक प्रतिष्ठा एवं मनोबल पर बहुत बुरा असर पड़ता है और वह समाज से खुलकर नजर नहीं मिला सकता है | ऐसे व्यक्ति से हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह कानून का पालन कराएगा | यह तो मात्र उदहारण है | इसी तरह की स्थितियां अन्य विभागों जैसे कि पुलिस, आबकारी, सप्लाई, ट्रेड टैक्स, इनकम टैक्स आदि विभागों की प्रवर्तन मशीनरी की भी होती है |

      जहाँ तक पुलिस विभाग का प्रश्न है, सर्वाधिक कानूनों को लागू करने तथा उल्लंघन होने की दशा मे दंडात्मक कार्यवाही करने की जिम्मेदारी इसी विभाग की है | इसके विपरीत पुलिस अधिकारियो के पास प्रवर्तन कार्य के लिए बिलकुल समय नहीं होता है | वे वीआईपी एवं कानून व्यवस्था सहित नेताओं व पत्रकारों से समायोजन करने मे ही इतने व्यस्त रहते है कि अन्य कार्यो हेतु उन्हें समय नहीं मिलता | उनके द्वारा किये गए कार्यों का उच्चाधिकारियों द्वारा मूल्यांकन की दोषपूर्ण प्रक्रिया भी प्रवर्तन अधिकारी का  मनोबल एवं कार्यक्षमता गिराने वाली सिद्ध होती है | पुलिस विभाग के उच्चाधिकारी के पास मूल्यांकन की दुधारी तलवार होती है, जिसका वह मनमाफिक इस्तेमाल कर सकता है | अर्थात एक पुलिस अधिकारी खुश होने पर अपने अधीनस्त के कार्य पर उसे शाबाशी दे सकता है और नाराज होने पर उसी कार्य पर उसे कठोर दंड भी दे सकता है | यानि वह यह कहकर शाबाशी देता है कि तुमने रात रात भर जागकर बहुत सारे डकैतों एवं चोरों को पकड़कर अपराधियों के हौसले पस्त कियें हैं | वही अथवा अन्य अधिकारी नाराज होने पर उसी अधिकारी को दण्डित कर सकता है कि तुम्हारे कार्यकाल मे अपराध बहुत बढ़ गए हैं और तुम्हे पद पर रहने का कोई हक़ नहीं है | मूल्यांकन के इस दोषपूर्ण अधिकार के कारण उच्चाधिकारियों की जी हजूरी की प्रवृति भी पुलिस विभाग मे खूब दिखाई पड़ती है, जिससे भी विभाग की कार्य क्षमता प्रतिकूल ढंग से प्रभावित होती है |
           उपरोक्त के अलावा पुलिस विभाग के उपनिरीक्षक तक को वाहनों को चेकिंग करने एवं मौके पर जुर्माना वसूलने का अधिकार मिल जाने से पूरी पुलिस फ़ोर्स का आधा समय इसी काम मे लग जाता है, क्योंकि कुछ ख़ास कारणों से इसमें सब की विशेष रूचि होती है | इसके कारण भी पुलिस को उसके असली कामो के लिए समय नहीं मिल पाता है और इससे उसकी कार्य क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है |

अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Tuesday, April 27, 2010

अपनों (बुंदेलखंडवासियो ) से अपनी बात

चित्रकूट मे रमि रहे रहिमन अवध नरेश के मूलमंत्र को धारण करना चित्रकूट मे रहने व कार्य करने के लिए अत्यावश्यक है | यहाँ रमने अर्थात समर्पित भाव से कार्य करने वाला व्यक्ति ही सफलता की मंजिल पा सकता है और कालांतर मे चित्रकूट के इतिहास मे स्थान पा पाता है | यहाँ रमने वालों मे राम, सीता, लक्ष्मण, अत्रि, अनुसूया, वाल्मीकि, तुलसीदास, रहीम आदि हैं | आज नानाजी देशमुख का नाम भी इस धरती से जुड़ गया है |
  उक्त मूलमंत्र से ही प्रेरित होकर मैंने भी समर्पित भाव से लगभग 6 वर्ष चित्रकूट और झाँसी मे कार्य किया है | कदाचित इसी कारण मुझे भी कुछ अच्छे परिणाम देखने एवं यश प्राप्त करने का अवसर मिला था | मै बुंदेलखंड की आत्मा का संस्पर्श कर बुंदेलखंड को थोड़ा बहुत समझ सका हूँ | मै जहाँ तक समझ सका हूँ, बुंदेलखंड अत्यधिक समस्याग्रस्त्र एवं बीमार हालत मे है | अतः आवश्यक है कि इसकी सारी बीमारियों की पहचान करके इसका समुचित इलाज किया जाए | एक बीमार को केवल यही ज्ञात होता है कि उसे तकलीफ कहाँ है? किन्तु उसे यह नहीं पाता होता कि उसकी बीमारी क्या है | जब उक्त बीमार डाक्टर के पास जाता है, तब उसे पता चलता है कि उसकी बीमारी का नाम क्या है और उसको क्या दवा देनी है |

    बुंदेलखंड भी काफी बीमार स्थिति मे है और इसके लिए सोशल पैथेलोजिस्ट एवं सोशल डाक्टर की जरुरत है | बुंदेलखंड की थोड़ी बहुत समझ रखने के कारण मै इस दिशा मे शायद कुछ काम कर सकूँ | मेरा यह मानना है कि सबसे पहले यहाँ के निवासियों की सोंच को बदला जाये और तात्कालिक महत्त्व के कार्यों को भी साथ साथ लिया जाये | फिर यहाँ के लोगों के कंधे से कन्धा मिलाकर विद्यमान बीमारियों से मुक्ति प्राप्त करके स्वस्थ परिवेश मे विकास की सामान्य धारा मे आकर तेज गति से आगे बढा जाये |

     उपरोक्त परिवेश मे ही मैंने रामनवमी से ब्लाग लिखना शुरू किया, ताकि यहाँ के निवासियों से संवाद स्थापित करके हम सभी एक साथ चलकर बुंदेलखंड के विकास यात्रा की अपनी वांछित मंजिल पा सकें | समस्या  को  साधारण  करके अभी कुछेक उपाय ही सुझा रहां हूँ | अतयव सभी बुद्धिजीवियों, विद्वानों, विषय विशेषज्ञों तथा अनुभवी लोगों के सुझाओं एवं विचारों का स्वागत करूँगा |

अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Monday, April 26, 2010

जनसमस्या निवारण : एक अभिनव प्रयोग

 नागरिकों की समस्याओं का समुचित निवारण किया जाना शासन एवं प्रशासन का प्रमुख दायित्व और एक बहुत महत्वपूर्ण कार्य है | जनसमस्या की व्यापकता का अनुमान  इसी तथ्य से लगाया जा सकता है की एक साधारण व्यक्ति से लेकर देश के राष्ट्रपति तक शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो , जिसके पास ऐसी कोई समस्या न हो , जिसमें पुलिस और प्रशासन की सहायता लिया जाना अपेक्षित न हो | इतनी अधिक व्यापकता वाले इस महत्त्वपूर्ण कार्य हेतु हमारा तंत्र जागरूक अवश्य रहा है और जनसमस्याओं के एकत्रीकरण की दिशा में सक्रिय भी  रहा है किन्तु समाधान देने के नज़रिए से पूरा का पूरा तंत्र असफल रहा है | समस्याओं का एकत्रीकरण इस क्षेत्र का एक पहलू और उसका समाधान देना दूसरा पहलू है |
       जिलाधिकारी तथा पुलिस अधीक्षक अपने-अपने कार्यालयों में बैठकर जनता की समस्याएं सुनते हैं | इसके अलावा शिकायत पेटी , तहसील दिवस तथा क्षेत्र भ्रमण के समय प्राप्त समस्याओं का भी संज्ञान लिया जाता है | इन जनसमस्याओं को निपटाने हेतु उनको निम्नतर अधिकारियों के पास भेज दिया जाता है | निम्नतर अधिकारी उन्हें अपने से नीचे स्तर पर भेज देते हैं | इस प्रक्रिया में जनसमस्या से संबंधित प्रार्थनापत्र प्रशासनिक पायदान के अंतिम सोपान के  सबसे शक्तिहीन घटक लेखपाल तथा कांस्टेबल के पास पहुँच जाता है | फिर उक्त जन समस्या का वही अंजाम होता है जो हमेशा से होता आया है | इस प्रकार के प्रार्थनापत्र कई बार पहले भी उक्त लेखपाल एवं कांस्टेबल के पास आ चुके होते हैं और जिन्हें वह कई बार पहले भी खानापूर्ति करके निपटा चुका होता है | पुनः ढ़ाक के वही तीन पात यानी 'समस्या जस की तस' वाली  कहावत एक बार फिर चरितार्थ होती दिखाई देती है | इस सबका यही परिणाम होता है कि आम जनता अपनी समस्या का निराकरण न पाकर अत्यधिक कुंठाग्रस्त एवं गुस्से से भरकर यही सोचने के लिए विवश हो जाता है कि उसको सुनने तथा न्याय देने वाला कोई नहीं है | यही सोचकर वह  हताश व निराश होकर घर बैठ जाता है | उसका यही गुस्सा ऐन चुनाव से पहले ज्वालामुखी बनकर फूटता है और जमीं जमाई सरकारों को ही उखाड़ फेंकता है | ऐसी स्थिति को हम  एंटी एस्टाब्लिश्मेंट का नाम दे देते हैं, जो हमें हर चुनाव के समय देखने को मिलता है |
                    इस जनसमस्या निवारण कार्य को सर्वोच्च प्रार्थमिकता का कार्य मानकर मैं इस दिशा में पूर्णतया सतर्क और संवेदनशील रहा हूँ | अतयव मैंने जनसमस्या का वास्तविक समाधान ढूँढने का कार्य किया ओर सफलता भी हासिल की | चित्रकूट तथा झाँसी के जिलाधिकारी के रूप में मैंने लगभग 6 वर्ष के कठिन परिश्रम व प्रयोग के बाद जनसमस्या का समुचित समाधान ढूंढ सका और वर्ष 2003-2004  में जिलाधिकारी कुशीनगर के अपने कार्यकाल में इसे सबसे परिष्कृत रूप में लागू किया था, जिसका यथा वांछित व  पूर्ण संतोषजनक परिणाम प्राप्त हुए थे | कुशीनगर जनपद में इसे लागू करने के 4 माह बाद ही मैंने इसका मूल्यांकन कराया था तो इसके आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिले थे | अपराधो  (विशेषकर शारीरिक अपराधो) में 60 % कमी आई थी और क़ानून व्यवस्था में भी आश्चर्यजनक सुधार आया | सामाजिक समरसता का वातावरण भी देखने को  मिल रहा था | इतना ही नही न्यायालयों में स्थगन एवं निषेधाज्ञा विषयक आदेश प्राप्त करने हेतु दायर होने वाले बादों में 70 % कमी आ गयी थी | इस सब का सामान्य कारण यही था कि छोटे-छोटे मामले, जिन पर प्रशासन बिल्कुल तवज्जो नही देता था और जिसके फलस्वरूप न्यायालयों पर मुकदमो का बहुत बड़ा दबाव आ गया था जब पूरी संवेदनशीलता एवं तत्परता से निपटने लगे तो न्यायालयों में तात्कालिकता सम्बन्धी मुकदमों का दबाव कम हो गया और शारीरिक अपराधों में भी काफी कमी आ गयी |
           इस प्रक्रिया में यह व्यवस्था बनायीं गयी थी कि जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक एवं अन्य स्तरों से जनसमस्या संबंधी प्रकरण सबसे शक्तिहीन कड़ी लेखपाल एवं कांस्टेबल के पास भेजने के बजाय क्षेत्र  के सबसे महत्त्वपूर्ण शक्ति केंद्र यानि पुलिस स्टेशन पर भेजा जाने लगा | जहाँ प्रार्थनापत्र देने वाला निर्धारित तिथि पर स्वतः पंहुच जाता था और मामले से संबंधित दूसरे पक्षकार को भी थाने द्वारा बुला लिया जाता था | तभी गाँव की चारों दाईयों (जिनसे पेट नही छुपा रह सकता)  को भी बुला लिया जाता था  | ये दाइयां,  लेखपाल, कांस्टेबल, प्रधान एवं चौकीदार के अलावा कोई और नहीं | इन चारों दाईयों के समक्ष दोनों पक्षों की सुनवाई होती थी, जिसके फलस्वरूप दूध का दूध और पानी का पानी स्वत: अलग हो जाता था, यानी सही निष्कर्ष तक आसानी से पहुंचना संभव हो जाता था | थाने के शक्ति केंद्र मे होने वाले ऐसे फैसले को मानने के लिए दोनों पक्ष तैयार भी हो जाते थे और उनमें सामाजिक समरसता का भाव भी बना रहता था |
         इस व्यवस्था को थाना पंचायत दिवस का नाम दिया गया था | थाना पंचायत दिवस का यही मतलब है कि थाना पुलिस द्वारा पंचायत की तरह काम करना था | प्रत्येक शनिवार को थाना पंचायत दिवस आयोजित होता था | थाना पंचायत दिवस का प्रभारी एक राजपत्रित अधिकारी होता था, जिसके समक्ष पूरी कार्यवाही संपन्न होती थी | दूसरे शब्दों में यह माना जा सकता है कि  प्रत्येक शनिवार को थाने का थानाध्यक्ष एक राजपत्रित अधिकारी होता था, जिसके कारण थाने का चरित्र एवं व्यवहार भी बदलने लगा था और अंग्रेजों के समय का थाना बदलकर स्वतन्त्र भारत का थाना बन रहा था | पंचायत दिवस में लिए गए फैसलों को स्थायित्व दिलाने के उद्देश्य से उनका इन्द्राज थाने  की जनरल डायरी में कर दिया जाता था |
          उत्तर प्रदेश के गृह विभाग में तैनात होने पर अपने उपरोक्तानुसार अनुभव के परिपेक्ष्य में थाना पंचायत दिवस की व्यवस्था मैंने पूरे प्रदेश मे  लागू करायी थी, जिसके कार्यान्वयन पर नज़र रखने के लिए शासन के अधिकारियों द्वारा  नियमित एवं आकस्मिक भ्रमण करने की व्यवस्था बनायी गयी थी | प्रशासनिक इच्छाशक्ति से जो भी संभव हुआ, किया गया पर इसके साथ राजनैतिक इच्छाशक्ति कभी नही जुड़ पाई | यदि यह संभव होता तो 6 माह और अधिकतम 6 साल में राज्य की स्थिति  का वास्तविक अनुभव किया जा सकता है |

अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा