Monday, April 26, 2010

जनसमस्या निवारण : एक अभिनव प्रयोग

 नागरिकों की समस्याओं का समुचित निवारण किया जाना शासन एवं प्रशासन का प्रमुख दायित्व और एक बहुत महत्वपूर्ण कार्य है | जनसमस्या की व्यापकता का अनुमान  इसी तथ्य से लगाया जा सकता है की एक साधारण व्यक्ति से लेकर देश के राष्ट्रपति तक शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो , जिसके पास ऐसी कोई समस्या न हो , जिसमें पुलिस और प्रशासन की सहायता लिया जाना अपेक्षित न हो | इतनी अधिक व्यापकता वाले इस महत्त्वपूर्ण कार्य हेतु हमारा तंत्र जागरूक अवश्य रहा है और जनसमस्याओं के एकत्रीकरण की दिशा में सक्रिय भी  रहा है किन्तु समाधान देने के नज़रिए से पूरा का पूरा तंत्र असफल रहा है | समस्याओं का एकत्रीकरण इस क्षेत्र का एक पहलू और उसका समाधान देना दूसरा पहलू है |
       जिलाधिकारी तथा पुलिस अधीक्षक अपने-अपने कार्यालयों में बैठकर जनता की समस्याएं सुनते हैं | इसके अलावा शिकायत पेटी , तहसील दिवस तथा क्षेत्र भ्रमण के समय प्राप्त समस्याओं का भी संज्ञान लिया जाता है | इन जनसमस्याओं को निपटाने हेतु उनको निम्नतर अधिकारियों के पास भेज दिया जाता है | निम्नतर अधिकारी उन्हें अपने से नीचे स्तर पर भेज देते हैं | इस प्रक्रिया में जनसमस्या से संबंधित प्रार्थनापत्र प्रशासनिक पायदान के अंतिम सोपान के  सबसे शक्तिहीन घटक लेखपाल तथा कांस्टेबल के पास पहुँच जाता है | फिर उक्त जन समस्या का वही अंजाम होता है जो हमेशा से होता आया है | इस प्रकार के प्रार्थनापत्र कई बार पहले भी उक्त लेखपाल एवं कांस्टेबल के पास आ चुके होते हैं और जिन्हें वह कई बार पहले भी खानापूर्ति करके निपटा चुका होता है | पुनः ढ़ाक के वही तीन पात यानी 'समस्या जस की तस' वाली  कहावत एक बार फिर चरितार्थ होती दिखाई देती है | इस सबका यही परिणाम होता है कि आम जनता अपनी समस्या का निराकरण न पाकर अत्यधिक कुंठाग्रस्त एवं गुस्से से भरकर यही सोचने के लिए विवश हो जाता है कि उसको सुनने तथा न्याय देने वाला कोई नहीं है | यही सोचकर वह  हताश व निराश होकर घर बैठ जाता है | उसका यही गुस्सा ऐन चुनाव से पहले ज्वालामुखी बनकर फूटता है और जमीं जमाई सरकारों को ही उखाड़ फेंकता है | ऐसी स्थिति को हम  एंटी एस्टाब्लिश्मेंट का नाम दे देते हैं, जो हमें हर चुनाव के समय देखने को मिलता है |
                    इस जनसमस्या निवारण कार्य को सर्वोच्च प्रार्थमिकता का कार्य मानकर मैं इस दिशा में पूर्णतया सतर्क और संवेदनशील रहा हूँ | अतयव मैंने जनसमस्या का वास्तविक समाधान ढूँढने का कार्य किया ओर सफलता भी हासिल की | चित्रकूट तथा झाँसी के जिलाधिकारी के रूप में मैंने लगभग 6 वर्ष के कठिन परिश्रम व प्रयोग के बाद जनसमस्या का समुचित समाधान ढूंढ सका और वर्ष 2003-2004  में जिलाधिकारी कुशीनगर के अपने कार्यकाल में इसे सबसे परिष्कृत रूप में लागू किया था, जिसका यथा वांछित व  पूर्ण संतोषजनक परिणाम प्राप्त हुए थे | कुशीनगर जनपद में इसे लागू करने के 4 माह बाद ही मैंने इसका मूल्यांकन कराया था तो इसके आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिले थे | अपराधो  (विशेषकर शारीरिक अपराधो) में 60 % कमी आई थी और क़ानून व्यवस्था में भी आश्चर्यजनक सुधार आया | सामाजिक समरसता का वातावरण भी देखने को  मिल रहा था | इतना ही नही न्यायालयों में स्थगन एवं निषेधाज्ञा विषयक आदेश प्राप्त करने हेतु दायर होने वाले बादों में 70 % कमी आ गयी थी | इस सब का सामान्य कारण यही था कि छोटे-छोटे मामले, जिन पर प्रशासन बिल्कुल तवज्जो नही देता था और जिसके फलस्वरूप न्यायालयों पर मुकदमो का बहुत बड़ा दबाव आ गया था जब पूरी संवेदनशीलता एवं तत्परता से निपटने लगे तो न्यायालयों में तात्कालिकता सम्बन्धी मुकदमों का दबाव कम हो गया और शारीरिक अपराधों में भी काफी कमी आ गयी |
           इस प्रक्रिया में यह व्यवस्था बनायीं गयी थी कि जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक एवं अन्य स्तरों से जनसमस्या संबंधी प्रकरण सबसे शक्तिहीन कड़ी लेखपाल एवं कांस्टेबल के पास भेजने के बजाय क्षेत्र  के सबसे महत्त्वपूर्ण शक्ति केंद्र यानि पुलिस स्टेशन पर भेजा जाने लगा | जहाँ प्रार्थनापत्र देने वाला निर्धारित तिथि पर स्वतः पंहुच जाता था और मामले से संबंधित दूसरे पक्षकार को भी थाने द्वारा बुला लिया जाता था | तभी गाँव की चारों दाईयों (जिनसे पेट नही छुपा रह सकता)  को भी बुला लिया जाता था  | ये दाइयां,  लेखपाल, कांस्टेबल, प्रधान एवं चौकीदार के अलावा कोई और नहीं | इन चारों दाईयों के समक्ष दोनों पक्षों की सुनवाई होती थी, जिसके फलस्वरूप दूध का दूध और पानी का पानी स्वत: अलग हो जाता था, यानी सही निष्कर्ष तक आसानी से पहुंचना संभव हो जाता था | थाने के शक्ति केंद्र मे होने वाले ऐसे फैसले को मानने के लिए दोनों पक्ष तैयार भी हो जाते थे और उनमें सामाजिक समरसता का भाव भी बना रहता था |
         इस व्यवस्था को थाना पंचायत दिवस का नाम दिया गया था | थाना पंचायत दिवस का यही मतलब है कि थाना पुलिस द्वारा पंचायत की तरह काम करना था | प्रत्येक शनिवार को थाना पंचायत दिवस आयोजित होता था | थाना पंचायत दिवस का प्रभारी एक राजपत्रित अधिकारी होता था, जिसके समक्ष पूरी कार्यवाही संपन्न होती थी | दूसरे शब्दों में यह माना जा सकता है कि  प्रत्येक शनिवार को थाने का थानाध्यक्ष एक राजपत्रित अधिकारी होता था, जिसके कारण थाने का चरित्र एवं व्यवहार भी बदलने लगा था और अंग्रेजों के समय का थाना बदलकर स्वतन्त्र भारत का थाना बन रहा था | पंचायत दिवस में लिए गए फैसलों को स्थायित्व दिलाने के उद्देश्य से उनका इन्द्राज थाने  की जनरल डायरी में कर दिया जाता था |
          उत्तर प्रदेश के गृह विभाग में तैनात होने पर अपने उपरोक्तानुसार अनुभव के परिपेक्ष्य में थाना पंचायत दिवस की व्यवस्था मैंने पूरे प्रदेश मे  लागू करायी थी, जिसके कार्यान्वयन पर नज़र रखने के लिए शासन के अधिकारियों द्वारा  नियमित एवं आकस्मिक भ्रमण करने की व्यवस्था बनायी गयी थी | प्रशासनिक इच्छाशक्ति से जो भी संभव हुआ, किया गया पर इसके साथ राजनैतिक इच्छाशक्ति कभी नही जुड़ पाई | यदि यह संभव होता तो 6 माह और अधिकतम 6 साल में राज्य की स्थिति  का वास्तविक अनुभव किया जा सकता है |

अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

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