Tuesday, August 10, 2010

शाकाहार बनाम मांसाहार : जगन्नाथ सिंह

 सभ्यता के प्रारंभ से ही यह सवाल उठता आया है कि मनुष्य को शाकाहारी होना चाहिए अथवा मांसाहारी ? दोनों मे से सही क्या है ? यह प्रारंभिक तथा आदि प्रश्नों मे से एक रहा है | अलग अलग देश काल पात्रगत सापेक्षिक परिवेश मे इसके अलग अलग उत्तर आते रहें हैं | वैसे सापेक्ष जगत मे भी सार्बभौम उत्तर होते हैं ,जिनका भिन्न भिन्न देश काल पात्रगत परिवेश मे मतलब व व्याख्याएँ बदल जाती है |
       "जीव जीवस्य भोजनम " अर्थात जीव ही जीव का भोजन है | यह सृष्टि ही उपयोगितावाद पर अवस्थित है | सृष्टि मे कुछ भी अनपेक्षित नहीं है | एक का त्याज्य दूसरे का भोज्य है | प्रत्येक जीव एक दूसरे का भोजन है | मनुष्य केवल वही खाता है , जिनमे जीवन होता है और निर्जीव वस्तु को नहीं खाया जाता | जीव भी तीन श्रेणी मे आते हैं | 
       पहले श्रेणी मे वे जीव आते हैं , जिनमे केवल भौतिक अभिप्रकाशन होता है | अनाज इसी श्रेणी मे आता है | दूसरी श्रेणी मे वे जीव आते हैं , जिनमे भौतिक और मानसिक अभिप्रकाशन होता है | पशु इसी श्रेणी का जीव होता है | तीसरी श्रेणी मे वे जीव आते हैं , जिनमे भौतिक और मानसिक के अतिरिक्त आध्यात्मिक अभिप्रकाशन भी होता है | इस श्रेणी के जीव मे मनुष्य आता है | इन जीवो का वरिष्टताक्रम भी तदनुसार ही निर्धारित होता है , यानि मनुष्य श्रेष्ठ, जानवर निम्न तथा अन्न निम्नतर श्रेणी मे आते है | श्रृष्टि मे कोई जीव निकृष्ट व बेकार मे नहीं होता | इस प्रकार प्रत्येक जीव की कोई न कोई उपयोगिता अवश्य है | 
        अब प्रश्न उठता है कि अमुक श्रेणी का जीव किस श्रेणी के जीव को खाए और प्रकृति व श्रृष्टि का सिद्धांत इस सम्बन्ध मे क्या कहता है ? इस प्रश्न का सीधा और सरल सा उत्तर है कि अस्तित्व रक्षा के लिए भोजन आवश्यक होता है और यह शरीर का धर्म भी है | वस्तुतः उच्च श्रेणी का जीव अपने से निम्नतर श्रेणी के जीव को खा सकता है बशर्ते उससे निम्नतर श्रेणी का जीव उपलब्ध न हो | इस प्रकार जब तक निम्नतम श्रेणी का जीव यानि अन्न उपलब्ध रहता है, तब तक किसी मनुष्य को जानवर नहीं खाना चाहिए | किन्तु जहाँ अन्न पैदा ही नहीं होता या बिलकुल उपलब्ध ही नहीं होता, वहाँ अस्तित्व रक्षण के लिए मनुष्य पशु को खा सकता है | भोजन की आवश्यकता अस्तित्व रक्षण के लिए ही है और अपने अस्तित्व रक्षण के लिए यदि अपरिहार्य हो जाय तो एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को भी खा सकता है | युद्धों के दौरान बहुधा ऐसा देखने मे आ चुका है कि जनरल सिपाही को खा गया और यह पूर्णतया औचित्यपूर्ण भी ठहराया गया था , क्योंकि ऐसा न करने से जनरल , जिसका जीवन अधिक मूल्यवान होने के कारण श्रेष्ट्तर है, का जीवित रहना अपेक्षाकृत आवश्यक था |
     इस प्रकार भोजन के सम्बन्ध मे उपरोक्तानुसार सार्वभौम उत्तर व सिद्धांत मे इतना लचीलापन है कि विभिन्न देश काल पात्रगत सापेक्षिकता से इसका स्वतः समायोजन हो जाता है | इस प्रकार हमारे अनुत्तरित चले आ रहे इस आदि प्रश्न का उत्तर मिल जाता है |   

हिंसा बनाम अहिंसा : जगन्नाथ सिंह

मानव सभ्यता के आदि प्रश्नों मे से एक प्रश्न यह भी रहा है कि मनुष्य को किसे मारना चाहिए और किसे नहीं मारना चाहिए | अर्थात जीवन मे हिंसा का क्या स्थान होना चाहिए ? इस दिशा मे उत्तर खोजने के बहुत सारे प्रयास हुए ,पर सफलता नहीं मिलने से यह प्रश्न अभी तक अनुत्तरित है |
     इस प्रश्न का उत्तर तलाश करने की प्रक्रिया मे हम सबसे पहले समस्त जीवों को तीन श्रेणियों मे वर्गीकृत करते हैं | पहली श्रेणी मे वे सभी जीव आवेंगे जो मनुष्यों के मित्र हैं , जिन्हें हम जातिमित्र कह सकते हैं | जातिमित्र श्रेणी मे मनुष्य के अलावा वे पशु भी आ जावेंगे जो मनुष्य के लिए प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उपयोगी हैं | दूसरी श्रेणी के जीव जातिशत्रु कहलायेगे , क्योकि ये मनुष्य जाति के लिए खतरनाक होते हैं और जिनसे मनुष्य जाति को कभी व कही भी नुकसान पहुँच सकता है | इसके उदाहरण सांप ,शेर आदि जानवर तो है ही ,युद्धों मे दुश्मन भी इसी श्रेणी मे आते हैं | तीसरी श्रेणी के जीवों को हम निरपेक्ष जीव कह साकते हैं | ऐसे जीव सामान्यतया हमारे मित्र होते हैं , पर उनके कभी कभार हमारे शत्रु  बन जाने की सभावना बराबर बानी रहती है | ऐसे जीव जब तक हमारे लिए उपयोगी बने रहते हैं और जब तक मनुष्य जाति  को उनसे किसी प्रकार की हानि  होने की सम्भावना नहीं रहती , तब तक वे मनुष्य जाति के मित्रवत माने जावेंगे और जिस क्षण वे मनुष्य जाति को नुकसान पहुँचाने को उद्धत होते हैं तो उन्हें शत्रुवत माना जावेगा | कुत्ता जब तक पागल होकर लोगों को काटने की स्थिति मे नहीं होता ,वह जातिमित्र कहलायेगा ,इसके बिपरीत स्थिति मे वही कुत्ता जातिशत्रु माना जावेगा |
      अब इस प्रश्न का उत्तर स्वतः आ जाता है कि जातिमित्र को कभी और किसी भी  दशा  मे नहीं मारा जाना चाहिए | इसके अलावा जातिशत्रु को प्रत्येक दशा मे मार डालना चाहिए और किसी भी दशा मे उसे जीवित नहीं छोड़ना चाहिए , क्योकि उदासीनता या दयावश अपने को बचाते हुए जाति शत्रु को जीवित छोड़ दिए जाने पर वह जतिशत्रु आपकी जाति के किसी व्यक्ति को हंज पहुँचा सकता है | पर जातिशत्रु को उसके घर , जहाँ रहकर वह निरपेक्ष जीव की भांति रहकर न तो हमें नुकसान पहुँचाता है और न ही उससे किसी प्रकार के नुकसान की संभावना नही होती है | कहने का अर्थ यही है कि जंगल मे जाकर सारे शेरों को नहीं मार डालना चाहिए और न ही सपेरों की मदद से सारे साँपों को उनकी  बिलों से बाहर निकलवाकर मारना चाहिए | निरपेक्ष जीवों पर सतर्क दृष्टि रखते हुए उनका भरपूर लाभ लिया जाना चाहिए और उनके शत्रु रूप अख्तियार करते ही उन्हें मार देना चाहिए |
    यह एक सार्बभौम उत्तर है जो सर्बकालिक ,सर्बदेशिक तथा सर्बपात्रिक है और हिंसा व अहिंसा का वास्तविक मर्म स्पष्ट करता है |  
 

अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा