Tuesday, December 21, 2010

शाश्वत वाणी उपवन : एक साहित्यिक उद्यान


इतिहास की विरासत को सजोना और इसे संरक्षित करना जहाँ एक ओर मानव स्वभाव है, वहीँ ऐसा करना समाज और  सरकार का परम दायित्व  भी  है | इतिहास की ही तरह  साहित्य की विरासत को सहेजना भी आती आवश्यक  होता है |  कमसे कम सौ या दो सौ सालों तक सामान्य जन मानस के जीवन मे अभिव्याप्त हो जाने वाला साहित्य  शाश्वत वाणी बन जाता  है | तब वे आप्त वचन, सूक्ति व प्रमाण बनकर जन जीवन का हिस्सा बन जाते हैं |
                       इस शाश्वत वाणी से वैश्विक जनमानस को जोड़ना और उनका अधिकाधिक उपयोग सुनिश्चित करना एक सामाजिक दायित्व भी होता है | इसी सामाजिक दायित्व का सम्यक निर्वहन किये जाने के उद्देश्य से किसी बड़े पार्क मे एक शाश्वत वाणी उपवन निर्मित किये जाने की योजना को आकार  देने का सम्यक  विचार समाज व सरकारों के समक्ष रखना चाहता हूँ | वेद व्यास, वाल्मीकि , कबीर,  गोस्वामी  तुलसीदास  , सूरदास , मीरा,  नानक , दादू , रैदास , रहीम , रसखान , बिहारी भूषण, अमीर खुसरो , भारतेंदु ,  निराला , जय शंकर प्रसाद , महादेवी वर्मा,  सुमित्रा नंदन पन्त, मैथिली शरण गुप्त , दिनकर , सोहनलाल द्विवेदी , ग़ालिब , मेरे , आग , इक़बाल ,  घाघ, आदि ३०- ४० कविगण को इस योजना का अंग बनाया जा सकता है |              
                       शाश्वत वाणी उपवन की इस योजना मे एक बड़े पार्क को शाश्वत वाणी उपवन नाम से साहित्यिक उद्यान के रूप मे विकसित किया जावेगा | यह उपवन उतने खण्डों (काम्प्लेक्स) मे विभक्त होगा, जितने साहित्यकारों को इस इस योजना में संम्मिलित किये जाने की योजना बनायीं जाती है | प्रत्येक साहित्यकार का अपना अलग व स्वतन्त्र काम्प्लेक्स होगा , जिसके बीचोबीच उस साहित्यकार की भव्य प्रतिमा होगी और प्रतिमा के नीचे तथा बगल मे साहित्यकार के परिचय सहित उनकी शाश्वत वाणी आकर्षक रूप मे प्रदर्शित की जावेगी | उक्त खण्ड के एक ओर उनके वास्तविक जीवन शैली से मिलता जुलता एक कुञ्ज बनाया जायेगा , जिसमे बैठने की उचित व्यवस्था सहित उक्त साहित्यकार के गीतों के कैसेट निरन्तर बजते रहेंगे | वहाँ बैठने वालों को उक्त साहित्यकार के सानिध्य का अहसास हो, ऐसी व्यवस्था होगी | यह उपवन इतना आकर्षक व उपयोगिता परक होगा कि इस उपवन मे जाने वाला व्यक्ति समस्त काम्प्लेक्स मे होता हुआ कमसे कम तीन घंटे वहा बंधकर रहे और बाहर साहित्यिक बनकर ही निकले |

अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

बुंदेलखंड मे खाद- बीज की किल्लत


 इसे बुंदेलखंड के किसानो का दुर्भाग्य ही कहा जावेगा कि वर्षा पर पूर्णतया आश्रित खेती वाले बुंदेलखंड क्षेत्र का किसान वर्षा ऋतु  मे अपने खेतो मे इस कारण खरीफ की फसलें नहीं लेता , क्योंकि यहाँ प्रचलित अन्ना प्रथा यानि छुट्टा पशुओं की समस्या के कारण बहुत कम लोग खरीफ की फसल बोते हैं और सामान्यतया खेत खाली रखते हैं  | ऐसी स्थिति मे बुंदेलखंड का किसान मुख्यतया रबी की फसल पर ही निर्भर रहता है और वह खरीफ की कमी की भरपायी रबी की फसल से ही कर लेने को आतुर रहता है | इस प्रकार रबी की फसल बुंदेलखंड के किसानो के लिए बहुत अधिक महत्वपूर्ण होती है |
              इसलिए रबी बुंदेलखंड की मुख्य फसल होतो है , अतयव रबी में खाद- बीज आदि कृषि निवेशो की उपलब्धता सर्बाधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, जिसके लिए किसान सरकार व कृषि एजेंसियों पर पूर्णतया निर्भर रहता है | पर सरकार तथा कृषि संस्थाओं की सोची समझी चल व कुचक्र के कारण बुंदेलखंड में खाद - बीज आदि कृषि निवेशों की निरंतर किल्लत बनी रहती है और यह स्थिति बुंदेलखंड के किसान की कमर तोड़ देती है और रबी उत्पादन , जो बुंदेलखंड के किसानो का एकमात्र सहारा होता है , प्रतिकूल ढंग से प्रभावित होता है | यह प्रत्येक वर्ष का रोना है और इसे  दोहराने की परंपरा सी बन गयी है | 
        खाद- बीज- सिचाई- कीटनाशको का प्रबंधन ही खेती है और इन सबके लिए उसे सरकार तथा कृषि सस्थाओं पर ही निर्भर रहना पड़ता है | वैसे खेती मे समयबद्धता का बहुत बड़ा महत्व होता है, परन्तु रबी फसल के सन्दर्भ मे यह समयबद्धता अपेक्षाकृत सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक सिद्ध होती  है और इस दृष्टि से  तनिक भी लापरवाही व बिलम्ब बड़ा घातक सिद्ध होता है और सम्पूर्ण रबी की  व्यवस्था को ही छिन्न भिन्न कर देता है | सरकारी तंत्र एवं एग्रो एजेंसियां इस समयबद्धता के प्रति बिलकुल लापरवाह होती हैं और प्रायः ऐन मौके पर और कभी कभी जानबूझ कर लापरवाही व  उदासीनता बरतने की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं | इसी कारण समय पर निवेशों कीअपरिहार्य उपलब्धता सुनिश्चित नहीं हो पाती और रबी के पूरे कृषि प्रबंध को ही चौपट कर देता है | ऐसा करना रबी के लिए घातक तो होता ही है और कभी कभी किसान की कमर ही तोड़ देता है |    
 
अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Monday, December 13, 2010

न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत पूर्णतया गलत , तो फिर क्या

यह विश्व ब्रह्माण्ड सार्बभौम नैसर्गिक नियमो से संचालित होता है और रहस्यों का अपूर्व भंडार  है , जिसको समझने- समझाने मे अनेकानेक दार्शनिक व वैज्ञानिक अपना जीवन समर्पित करते रहते हैं | अपनी  बौद्धिक एवं बोधिक क्षमता के सीमान्तर्गत  कतिपय रहस्यों से पर्दा उठाने मे वे कभी कभार  सफल भी हो जाते हैं | मानव बुद्धि की क्षमता देश- काल- पात्र गत सापेक्षिकता से प्रतिहत और तदनुसार बहुत अधिक सीमित होती  है | मनुष्य अपनी सापेक्ष स्थिति तथा सीमित बौद्धिक  क्षमता के अनुसार सापेक्षिक अंश तक ही विभिन्न रहस्यों का भेदन कर पाता है | इस सापेक्षिक बुद्धिमता के स्तर मे  परिवर्तन की स्थिति मे पूर्ब स्थापित तथ्य निरूपण सामान्यतया असत्य साबित होते जाते रहते हैं | यही चिंतन के विकास का क्रम एवं प्रक्रिया है, जो अनवरत  चलता रहता  है और आगे भी चलता रहेगा |
          सापेक्षिक बुद्धिमता के एक रतर पर सेव के पृथ्वी पर गिरने से  संबंधित रहस्य को सबसे पहले समझने वाले प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि पृथ्वी के भीतर विद्यमान आकर्षण के कारण सेव पृथ्वी की ओर खिचता चला आता है | यह एक अत्यधिक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज थी , जिसपर अनेकानेक वैज्ञानिक अवधारणाएँ व सिद्धांत आधारित हुए | प्रकृति के इस रहस्य को तत्कालीन देश काल पात्र गत सापेक्षिक बुद्धिमता के अनुसार सुलझाने का यह एक अत्यधिक महत्वपूर्ण व सफल प्रयास था | आज की परिष्कृत बुद्धिमता का स्तर इस सम्बन्ध मे एक  प्रश्न अवश्य उठाएगा  कि यह गुरुत्वाकर्षण वास्तव मे कहाँ से व किस प्रकार उत्पन्न होता है और यह किस प्रकार कार्य करता है | प्रयोगभौमिक आधार पर इसका समुचित उत्तर मिल पाना कदाचित संभव न हो , परन्तु आज का न्यूटनबादी वैज्ञानिक इतना अवश्य  स्पष्ट करेगा कि यह एक पूर्बनिर्धारित सत्य और मान्यता है | कोई यहाँ तक कह सकता है कि यह एक प्राकृतिक नियम है , जिसे सिद्ध करने की न तो कोई आवश्यकता है और न ही इसे सिद्ध किया जाना संभव ही है | जबकि प्रयोगभौमिक तत्व निरूपण ऐसी  किसी पूर्ब मान्यता, पूर्वाग्रह ,तथा पूर्वधारणा को स्वीकार नहीं करता |
         उपरोक्त के परिप्रेक्ष्य मे  मैं यहाँ शेव के पृथ्वी पर गिरने से संबंधित रहस्व के सम्बन्ध मे न्यूटन के उपरोक्तानुसार तथ्य निरूपण के क्रम मे मैं यह अवश्य स्पष्ट करना चाहूँगा कि सार्बभौम नैसर्गिक नियम और आज की बुद्धिमता का स्तर न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत को पूर्णतया नकारता  और इसे पूर्णतया असत्य सिद्ध करता हुआ  प्रतीत होता है | प्रयोगभौमिकता किसी पूर्व मान्यता एवं पुर्बाग्रह की अपेक्षा नहीं करता | अतः मैं अपने विश्लेषण मे किसी पूर्वमान्यता अथवा पूर्वाग्रह  का आलंबन नहीं लूँगा | केवल प्रारंभ करने के लिए एक पूर्वमान्यता की सहायता अवश्य लूंगा जो कालांतर मे स्वतः सिद्ध होकर पूर्ब मान्यता नहीं रह जावेगी | 
         किसी पदार्थ के सृजन की व्याख्या करने पर यह ज्ञात होता है कि प्रत्येक पदार्थ किसी मूल पदार्थ से अलग हुआ  किन्तु मूल पदार्थ से सम्बद्ध रहकर उसके अंश रूप मे ही विद्यमान रहता है | सूर्य से निकली पृथ्वी तथा पृथ्वी से निकला चन्द्रमा आदि इसके उदाहरण हो सकते है | मूल पदार्थ से अलग हुए इस  पदार्थ पर चतुर्दिक पड़ने वाला वायुमंडलीय  दबाव संतुलन की स्थिति मे एक ऐसे स्थान पर केन्द्रीभूत  होकर अवस्थित हो जाता है, जहाँ चतुर्दिक वायुमंडलीय  दबाव एक समान अथवा संतुलित हो जाता है | चतुर्दिक पड़ने वाले  वायुमंडलीय  दबाव की यही संतुलित स्थिति उक्त पदार्थ की स्थिति तथा कक्षा निर्धारित कर देती है | परिणामस्वरूप उसी स्थान व स्थिति मे उक्त पदार्थ अपने मूल पदार्थ (उदगम) के अंश (उपग्रह) के रूप मे उसकी परिक्रमा करने लगता है |     
            उपरोक्तानुसार परिस्थिति मे उक्त पदार्थ पर  चतुर्दिक पड़ने वाला वायु मंडलीय दबाव उक्त पदार्थ के भीतर एक केंद्र बिंदु पर शुन्य प्रभावी हो जावेंगा और एक प्राण केंद्र (नयूक्लियस ) का श्रृजन करेगा जो वायु मंडलीय दबाव के बराबर व प्रतिरोधी दबाव देकर उक्त पदार्थ को सुरक्षा व स्थायित्व प्रदान करेगा | ऐसी स्थिति मे ही उक्त पदार्थ का संरचनात्मक अस्तित्व व स्थायित्व संभव होता है | अर्थात किसी पदार्थ की संरचनात्मक स्थिति इसी बात पर निर्भर करेगा  कि उक्त पदार्थ पर पड़ने वाला वायु मंडलीय दबाव और उक्त पदार्थ के प्राणकेंद्र जन्य दबाव मे पूर्ण साम्य की स्थिति हो |
           उपरोत से यह प्रमाणित होता है कि प्रत्येक पदार्थ का प्राणकेंद्र कर्षण के बजाय अपकर्षण का कार्य करता है | उसकी प्रकृति किसी अन्य पदार्थ को अपनी ओर खीचने की न होकर अपने से दूर धकेलने की होती है | इस प्रकार किसी प्रकार के कर्षण का अस्तित्व तक उक्त पदार्थ मे नहीं होता है , उक्त पदार्थ का प्राणकेंद्र पदार्थ की सतह अथवा उससे दूर वायुमंडल मे अवस्थित बिभिन्न पदार्थों को अपनी अपकर्षण शक्ति द्वारा दूर धकेलने का ही कार्य करता है | इस प्रकार ब्रह्माण्ड मे पृथ्वी अथवा किसी स्वतन्त्र पदार्थ मे गुरुत्वाकर्षण या कर्षण का अस्तित्व होने का प्रश्न ही नहीं उठता  |
           अब यहीं हमें वायु मंडलीय दबाव से संबंधित अपनी पूर्वमान्यता को सिद्ध करने का  अवसर  मिलता हुआ प्रतीत होता है | जैसाकि ऊपर  स्पष्ट कर चुका हूँ
 कि प्रत्येक स्वतन्त्र पदार्थ का प्राण केंद्र अपकर्षण का कार्य करता है और यह अपकर्षण तरंग अपनी तरंग दैर्घ्य के अनुसार काफी दूर तक प्रभावी होती  है | परन्तु प्राण केंद्र से दूरी के अनुसार इसकी प्रभाव शीलता मे उत्तरोत्तर ह्राश की स्थिति दृष्टिगोचर होती प्रतीत होती है | श्रृष्टि मे अवस्थित असख्य पदार्थों का प्राणकेन्द्रीय अपकर्षण असंख्य तरंगो के प्रतिफलन के फलस्वरूप ऐसी तरंगे उद्भूत करती  हैं , जो पारस्परिक दबाव के रूप मे प्रत्येक पदार्थ को प्रभावित करने लगती है | स्थूलतः इसी को हम वायुमंडलीय दबाव के रूप समझ  सकते हैं | पर इसे ब्रह्मान्दिक अपकर्षण शक्ति के रूप मे अभिहत करना अधिक यथेष्ट होगा | क्योंकि यह शक्ति वायुमंडल से परे भी विद्यमान एवं कार्यरत रहती है | इस प्रकार पृथ्वी से ऊंचाई पर जाने पर बैरोमीटर के पारे  का कम होना वायु मंडलीय दबाव की कमी को दर्शाने के बजाय पृथ्वी के प्राण केन्द्रीय अपकर्षण शक्ति  का घटना  दर्शाता है | इस प्रकार वायुमंडलीय दबाव का सिद्धांत भी गलत मान्यता पर आधारित हुआ प्रतीत होता हैं | प्रकृति के अन्य रहस्यों तथा विज्ञानं के अन्य सिद्धांतों की भी उपरोक्तानुसार पुनर्समीक्षा किया  जाना अपेक्षित  एवं अपरिहार्य प्रतीत होती है 

अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Saturday, October 23, 2010

खुद अपने को बचाना : एक घातक कदम

 सामान्यतया लोग असफलताओं, दुर्घटनाओं या गलतियों के लिए स्वयं को कभी दोषी नहीं मानते और अपने प्रति पक्षपाती रवैये के कारण अपने को साफ साफ बचा जाते हैं | प्रत्येक दुर्घटना व गलती होने की स्थिति मे दूसरों पर दोष मढ़ने की प्रवृति प्रायः सबमे दिखाई पड़ती है | यह निःसंदेह अत्यधिक   घातक और अस्वस्थ स्थिति व प्रक्रिया होती है और इससे किसी का भला होने की बिलकुल सम्भावना नहीं होती |

                 वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति का अपने ऊपर ही पूरा- वश होता है और वह अपने बारे मे ही पूरी पूरी जिम्मेदारी ले सकता है | शराब पीकर खतरनाक ढंग से वाहन चलाता हुआ व्यक्ति यदि आप से टकरा जाता है अथवा  अचानक आई खराबी के कारण वह अपने वाहन पर नियंत्रण न रख सकने के कारण दर्घटना कर देता है,  तो ऐसी स्थिति मे हम सभी सामान्यतया उक्त वाहन चालक को दोषी मान बैठते हैं और अपने को इस सम्बन्ध मे दायित्व बोध से पूरा- पूरा मुक्त साबित करते अथवा  समझ लेते हैं | ऐसी सोंच ही दुर्घटनात्मक और अत्यधिक घातक होती है |

              वस्तुतः प्रत्येक दुर्घटना के सन्दर्भ मे हर हाल मे व्यक्ति को दूसरों पर दोषारोपण दोषी समझने के बजाय स्वयं अपने आप को ही दोषी व जिम्मेदार मानना चाहिए कि हमने इस सम्भावना को ध्यान मे रखकर वाहन क्यों नहीं चलाया कि दूसरा वाहन चालक शराब पीकर वाहन चला रहा हो सकता है और  उसके वाहन मे अचानक आई तकनीकी खराबी की सम्भावना के दृष्टिगत रखते हुए  हमें स्वयं सतर्क रहना चाहिए था | अर्थात दूसरे वाहन चालकों की गलतियों के लिए भी स्वयं को ही जिम्मेदार समझना चाहिए | ऐसी भावना और मनोवृति हमें हमेशा दुर्घटनाओं से बचाती रहेगी |

              ऐसी परिस्थियों मे हमें सोचना चाहिए कि हमारा उद्देश्य वाहन चलते समय दुर्घटना से बचना है और यह तभी संभव है,  जब हम प्रत्येक दुर्घटनात्मक परिस्थियों के लिए खुद अपने को ही जिम्मेदार माने और  दूसरों पर दोषारोपण करने की प्रवृति छोड़ें | अन्यथा हम दुर्घटनाओं से नहीं बच सकते | अर्थात वाहन चलाते वक्त विचार करना चाहिए कि हमने क्यों नहीं सोंचा कि अन्य वाहन चालक ने शराब पी रखी हो या उसके वाहन मे अचानक ब्रेक फेल होने जैसी तकनीकी खराबी भी आ गयी हो | इन सभी सम्भावनाओं का पूर्वानुमान करके वाहन चलाने की जिम्मेदारी खुद आपकी अपनी ही है , तभी आप दुर्घटनाओं से बच सकेगें | अच्छा चालक वही है जो प्रत्येक आसन्न या घटित दुर्घटना के लिए दूसरे को दोषी ठहराने के बजाय अपने को ही जिम्मेदार समझता है, क्योंकि दूसरों की गलती का खामियाजा तो आपको ही भुगतना होता है  | ऐसी सोंच वाला व्यक्ति हमेशा दुर्घटना से बचा रहता है और जीवन मे कभी भी दुर्घटना का शिकार नहीं होता |

             दुर्घटना के अलावा अन्य सभी क्षेत्रों मे भी यह मनोवृति काफी लाभदायक सिद्ध हो सकती है और हम जीवन की अनेकानेक दुर्घटनाओं से बच सकते हैं | ऐसी परिस्थियों मे व्यक्ति दूसरों को उत्तरदायी मानने के बजाय सबसे पहले यदि खुद अपने बारे मे सोंचने लगे कि वह प्रकरण मे कहीं वह स्वयं तो जिम्मेदार नहीं है अथवा वह स्वयं किस अंश तक जिम्मेदार है ? इसके बाद दूसरों की जिम्मेदारी के सम्बन्ध मे विचार करना चाहिए | इस मनोवृति से जीवन की तमाम समस्याएं खेल खेल मे सुलझ जावेंगी और तनाव मुक्त जीवन का लक्ष्य भी प्राप्त करना संभव हो सकेगा |

Saturday, October 16, 2010

राष्ट्रमंडल खेलों की सफलता तथा इससे मिलती सीख व अनुभव

राष्ट्रमंडल खेलो की सफलता व गौरवपूर्ण परिसमाप्ति के तुरंत बाद इसका श्रेय लेने की राजनेताओं मे होड़ मची हुई है | राजनेता भले ही अपने मुह मिया मिट्ठू बनकर खुद अपनी पीठ थपथपा लें , देश की जनता किसी राजनेता को इसका श्रेय देने से रही , क्योकि लोगो को बखूबी पता है कि राजनेताओं ने खेलों तथा खेल आयोजनों के सम्बन्ध मे न तो समय से निर्णय लिए और इसकी तैयारियों मे काफी घपलेबाजियां की गयी थी, भ्रष्टाचार का नंगा नाच हुआ और पूरे देश की साख को बट्टा लगाया | इन नेताओं और व्यवस्थाकारों ने खिलाडियों को अभ्यास के लिए आवश्यक साजो समान तक समय से नहीं मुहैया कराया , उदाहरणार्थ निशानेबाजों को अभ्यास के लिए समय से  कारतूस तक नहीं उपलब्ध कराये गए थे | ऐसी स्थिति मे राजनेताओं को श्रेय देने का प्रश्न नहीं उठता | आज की जनता बहुत होशियार हो गयी है और देश की जनता को यह भली भांति पता है कि इस सम्बन्ध मे किसी भी प्रकार का श्रेय राजनेताओं , खेल प्रशासन , खिलाडियों , प्रशिक्षकों तथा कोच मे से किसको मिलना चाहिए | 

                  इस गौरवशाली सफलता मे सबसे पहला श्रेय खिलाडियों को मिलना चाहिए, जिन्होंने जी तोड़ मेहनत करके इतने अधिक पदक जीते | यदि खिलाडियों को समय से प्रचुर सुविधाएँ उपलब्ध करायी जाती, तो स्वर्ण पदकों तथा जीते गए पदकों की कुल संख्या काफी अधिक होती | इस खेल महाकुम्भ के आयोजन का  सर्बाधिक लाभ यही रहा है कि देश मे खेल पुनर्जागरण के अभिनव युग का सूत्रपात हो चुका है और अब खेल यात्रा विश्व विजय के बाद ही थमेगी , जिसका प्रमाण एक माह बाद ही आयोजित होने वाले एशियन खेलों से मिलना शुरू हो जावेगा और अगले ओलम्पिक तथा राष्ट्रकुल खेलों मे व्यापक प्रभाव परिलक्षित होगा, ऐसी उम्मीद बनी है |

                 खेल के क्षेत्र का सबसे बड़ा कार्य यही है कि प्रारंभिक स्तर पर खेल प्रतिभाओं की  पहचान करने की धरातल स्तर की व्यावहारिक योजना बनायीं जाय और इसका पूरी ईमानदारी से कार्यान्वित किया जाय | राजनीति को कमसे काम इस स्तर पर पूर्णतया अलग थलग रखा जाय , क्योंकि राजनीति और भाई भतीजाबाद वस्तुतः खेल को बिगाड़ते हैं और प्रारंभिक स्तर पर हुई गड़बड़ी को आगे किसी तरह ठीक नहीं किया जा सकता | प्रारंभिक चयन के बाद उनका सर्बश्रेष्ट  प्रशिक्षण देकर उनकी क्षमता तथा कौशल का सुधार करना और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाडियों के साथ खेलने का अवसर दिलाना काफी लाभदायक हो सकता है | उपयुक्त स्तरों पर तत्क्रम पर समीक्षा करना भी आवश्यक होगा | राज्यों को इस सम्बन्ध मे सर्बाधिक दिलचस्पी लेने का बहुत अच्छा लाभ मिलेगा , जैसा कि हरयाणा सरकार ने करके अनुकरणीय उदाहरण अन्य राज्यों के समक्ष रखा है , जिसके चलते छोटे से हरयाणा राज्य के खिलाडियों ने हर राज्य से अधिक पदक जीते | इसके अलावा  खेल को कैरियर के रूप अपनाने  का अवसर उपलब्ध कराने के आशय से तकनीकी संस्थानों की तर्ज पर बड़े पैमाने पर खेल संस्थान खोलने की भी जरुरत होगी | तत्क्रम मे सरकारी नीति निर्धारण की  भी आवश्यकता होगी |     

Friday, October 8, 2010

समाज एवं सामाजिक प्रगति

            नैतिकता के प्रथम अभिप्रकाशन से समाज का जन्म होता है और यही समाज यात्रा का प्रारंभ बिंदु होता है | जंगल मे अकेले पूर्णतया स्वेच्छाचारी  जीवन व्यतीत कर रहे आदि मानव के मन मे जब पहले पहल  समूह हित मे निजी स्वार्थ को त्यागने का विचार उत्पन्न हुआ होगा  , वह समाज यात्रा का प्राम्भ विन्दु था और तभी समाज का जन्म भी हुआ था | वसुधैव कुटुम्बकम, जहाँ सारी संकीर्णताओं से रहित होकर मन का कोण ३६० डिग्री का बन जाता है , समाज यात्रा का चरम विन्दु होता है | यह सामाजिक पूर्णता का परिचायक और समाज का अंतिम लक्ष्य बिंदु भी होता है | 

              नैतिकता के प्रथम अभिप्रकाशन से प्रारंभ होकर वसुधैव कुटुम्बकम के चरम लक्ष्य की ओर गतिमानता ही सामाजिक प्रगति होती है | इस सार्बभौम लक्ष्य के बिपरीत गत्यात्मकता  को हम सामाजिक अवनति या समाज विरोधी भावधारा समझ सकते हैं | सामाजिक प्रगति मार्ग मे तरह तरह के प्रलोभनों और आकर्षणों के साथ अलग अलग खेमा जमाये बैठे हुए अनेक समूह लोगो को अपने खेमे मे लेने हेतु प्रयासरत रहते हैं | उनका कहना होता है कि वही ईश्वर के सबसे खास और प्रिय जन हैं और केवल वे ही ईश्वर के बताये रास्ते पर चलने वाले लोग हैं | उक्त समूह विशेष के कतिपय के विधि निषेध भी होते हैं , जिनका अनुपालन सदस्यों को अवश्यमेव करना पड़ेगा , जिसके एवज मे उन्हें कतिपय संरक्षण व लाभ की गारंटी भी दिया जाता है | इन विशिष्ट समूहों को हम मजहब के  नाम से जान सकते हैं | अब प्रश्न उठता है कि कहीं मजहब सामाजिक प्रगति मे बाधक तो नहीं होता  हैं ? इसका उत्तर निःसंदेह  नकारात्मक है | मजहब व्यक्ति को अनेकानेक अच्छाइयों का बहुमूल्य तोहफा तो देता है , पर इसके साथ ही उनकी सोंच को संकुचित भी  कर देता है , जिसके फलस्वरूप उनके मन का कोण ३६० डिग्री कभी नहीं बन पाता |  ऐसी दशा मे समाज बसुधैव कुटुम्बकम के अपने चरम लक्ष्य यानि पूर्णता  को कभी  नहीं प्राप्त कर सकेगा  | इस प्रकार मजहब निश्चित रूप से सामाजिक प्रगति का विरोधी है |
                व्यक्तियों का वह समूह , जो समाज को उसकी पूर्णता व लक्ष्य बिंदु की ओर ले जाने और समाज के प्रारंभ व पूर्णता के अन्तराल को कम करने हेतु सक्रिय व प्रयासरत होते हैं , समाज के नाम से जाने जावेगे |


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गति और प्रगति

           हर गति प्रगति नहीं है | गति के बहुत अधिक या सर्वाधिक होने के बावजूद यह आवश्यक  नहीं कि यह प्रगति ही हो |  किसी गति की दिशा और दशा के आधार पर ही आकलन करके यह कहा जा सकता है कि अमुक गति प्रगति है अथवा नहीं ? लक्ष्य की ओर गतिमानता ही वस्तुतः प्रगति है | गति लक्ष्याभिमुखी अथवा लक्ष्याविमुखी  दोनों ही प्रकार की हो सकती है | सामान्य से दस या सौ गुना रफ़्तार वाला वाहन भी , यदि उसका रुख लक्ष्य की विपरीत दिशा मे है , तदनुरूप रफ़्तार मे लक्ष्य से दूर होता जायेगा |

             विश्व के पश्चिमी देशों की गति तो बहुत है , पर लक्ष्य विहीन अथवा लक्ष्य के बिपरीत रुख होने के कारण उतनी ही तेज रफ़्तार से वे जीवन के वास्तविक लक्ष्यों से दूर होते जा रहे हैं | जीवन का वास्तविक लक्ष्य है प्रफुल्लता , आनंद , नीद , संतोष और मानसिक शांति | जिसे पश्चिमी देशों के लोग खोते जा रहे हैं | प्रफुल्लता और आनंद की विचारधारा से ही वे सर्वथा अनभिग्य हैं और इनसे उनका नाता एकदम टुटा हुआ है , उनके जीवन मे मानसिक शांति तो बिलकुल है ही नहीं  और संतोष से उनका पूर्ण अपरिचय ही होता है | नीद की गोलियों के बिना वहां  किसी को नीद नहीं आती | उनके पास तो होती है बस मानसिक अशांति और फ्रस्ट्रेशन | ऐसी स्थिति मे पश्चिम की अति तीव्र गति को  हम प्रगति कदापि नहीं  कह सकते हैं ? तभी तो पश्चिम के लोग भारत के अध्यात्म , योग और भारतीय दर्शन की ओर झुक रहे हैं और भारत को एक बार पुनः विश्व गुरु बनने का वातावरण बन गया है | परन्तु यहाँ एक बड़ा खतरा भी उत्पन्न हो गया है कि बाबा रामदेव सरीखे कतिपय अपवादों को छोड़कर भारत के बहुत सारे योग व अध्यात्म गुरु विदेशियों की इस भावना का भरपूर शोषण व दोहन भी कर रहे हैं और भारत की छवि धूमिल करने कर सकते हैं |
            इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र मे लक्ष्य का निर्धारण किया जाना अत्यावश्यक है तभी प्रत्येक क्षेत्र यथा शिक्षा , स्वास्थ्य , विकास , राजनीति , विज्ञानं आदि क्षेत्र  की गति को प्रगति अथवा अन्यथा समझने की स्थिति बन सकेगी और तदनुसार प्रत्येक क्षेत्र के क्रिया कलापों का सम्यक मूल्याकन करना भी संभव हो सकता है |  
             यह तो एक पक्ष है | केवल पश्चिमी देशों का जीवन दर्शन एवं जीवन शैली ही दोषपूर्ण है और भारत के लोग सही व दूध के धुले हैं | यह एक अर्धसत्य है | भारत के लोग भी उतने ही गलत हैं , जितने कि पश्चिमी देशों के लोग | भारत के लोग पश्चिम का अन्धानुकरण करके उनके जैसा बनते जा रहे हैं | पश्चिम के लोग जिन बातों को बहुत पहले छोड़ चुके हैं , भारत के लोग उन्हें ही अपनाने मे गर्ब महसूस करते हैं | उनकी भाषा , रहन सहन व संस्कृति को अपनाने मे हम बहुत आतुर रहते हैं और अपनी अच्छाइयों , जिन्हें आज विदेशी लोग अपनाना चाह रहे हैं , हम उन्ही अच्छाइयों को भूलते और छोड़ते चले जा रहे हैं | अब हमारी स्थिति भी पाश्चात्य लोगों की तरह होती जा रही है और अब हमें भी नीद के लिए नीद की गोलियों की ज़रूरत पड़ने लगी है और उन्ही की तरह अनिद्रा , मानसिक अशांति तथा फ्रस्ट्रेशन के शिकार होते जा रहे हैं |   


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भारत की सुरक्षा और अस्मिता से जुडी विशिष्ट पहचान संख्या योजना


          भारत के नागरिको की अस्मिता एवं पहचान की समस्या निरंतर बनी रहती थी , जिसका खामियाजा नागरिको को समय - समय पर भुगतना पड़ता रहा है | संविधान मे प्रदत्त मौलिक अधिकारों के बावजूद इस पहचान के संकट के चलते भारत का नागरिक अपने को पूर्णतया स्वतन्त्र महसूस व साबित करने मे अपने को सक्षम नहीं पाता था | व्यक्ति प्रायः एकाध बार पुलिस के हत्थे अवश्य  चढ़ चुका होता है और उसे बेतुके सवालों का सामना करना पड़ चुका होता है अथवा पड़ सकता है | यां सवालात हैं कि  तुम कौन हो , कहाँ से आ रहे हो , क्या नाम है , तुम अवश्य कोई चोर हो , तुम्हारे अन्य चोर साथी कहाँ हैं ? ऐसी स्थितियों मे हम अपने को बड़ी असहाय स्थिति मे पाते हैं और पुलिस को पूर्णतया संतुष्ट करने मे समर्थ नहीं महसूस करते | इस पहचान के संकट के कारण हम कभी कभी अपने देश मे ही बेगानापान महसूस करने हेतु बाध्य होते  हैं | 
              भारत सरकार नागरिकों को पहचान पत्र प्रदान करने की दिशा मे काफी समय से चितित रही है और अंततः वह समय आ ही गया , जब देश  के प्रत्येक नागरिक को विशिष्ट पहचान पत्र देने का निर्णय लेकर नागरिकता को सम्मान प्रदान किया जा रहा है | प्रधान मंत्री एवं यु पी ए अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने महाराष्ट्र के नान्दुवर जिले के तेंभली गाँव , जिसकी ९७% जनसँख्या आदिबासी है , मे २९ सितम्बर  को विशिष्ट संख्या वाले पहचान पत्र योजना का शुभारम्भ करते हुए उदघाटन कर चुके हैं | सरकार का यह निर्णय स्वागत योग्य है और आजादी के ६३ साल बाद ही सही , इस सबसे जरुरी काम को अंजाम दिया जा रहा है | अब किसी भारतीय को रोककर कोई पुलिस कर्मी कोई ऊल जलूल सवाल नहीं पूछ  सकेगा और अब कोई अपने को असहाय स्थिति मे नहीं महसूस करेगा |
            विशिष्ट संख्या वाले पहचानपत्र मिलने के बाद अब किसी को बैंक व अदालतों मे अपनी  पहचान के लिए वकीलं तथा गवाहों  की जरुरत नहीं होगी | अब प्रत्येक भारतीय संविधान मे प्रदत्त मौलिक अधिकारों का सम्यक एवं पूर्ण उपयोग कर सकेगा तथा सरकारी योजनाओं का लाभ प्राप्त करने से अब कोई बंचित नहीं होगा | यह पूरे विश्व की सबसे अभिनव एवं महत्वाकांक्षी योजना है | अतयव प्रत्येक भारतवासी को चाहिए कि वह इस यूनिक आइ यु डी अर्थात विशिष्ट संख्या वाले पहचान पत्र प्राप्त करने हेतु जागरूक रहकर स्वयं भी प्रयासरत हो जाये | सरकार को भी इस अत्यधिक उपयोगी परियोजना को युद्ध स्तर पर शीघ्रता से पूर्ण कराना चाहिए | 
              इस परियोजना मे बायोमीट्रिक डाटा इस्तेमाल किया जावेगा | इस बायोमीट्रिक डाटा मे अँगुलियों के निशान तथा आँख की पुतली का स्कैन किया जायेगा | अपराध नियंत्रण , आतंकबाद तथा देश की सुरक्षा की दिशा मे इससे बहुत मदद मिल सकेगी | इस प्रकार संचार क्रांति तथा आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करते हुए यह विश्व की सबसे बड़ी और अभिनव परियोजना बन गयी है |  
           १२ अंको वाला यह पहचान पत्र पूरे देश एवं पूरी दुनिया में व्यक्ति की पहचान को प्रमाणित करेगा और बिना कुछ बोले बताये इससे जाना जा सकेगा कि अमुक व्यक्ति भारतीय है और भारत के अमुक प्रान्त , अमुक जनपद , अमुक थाना , अमुक गाँव का अमुक नामधारी व्यक्ति है | इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि एक भारतीय विदेश के किसी दूरस्थ स्थान पर यदि वेहोश हो जाता है , तो इस पहचान पत्र से ही यह पता चल जायेगा कि अमुक बेहोश व्यक्ति भारतीय है और भारत के अमुक प्रान्त , अमुक जनपद , अमुक थाने  के अमुक गाँव का अमुक नामधारी व्यक्ति है | इससे यह सहज ही समझा जा सकता है कि यह परियोजना  व्यक्ति तथा देश के लिए कितना उपयोगी है |r अब कोई विदेशी आतंकवादी द्वारा मुंबई मे ताज होटल जैसी घटना को अंजाम देने की बात दूर है , देश मे घुसकर अपनी पहचान बिलकुल ही नहीं छुपा पावेगा | 


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वृद्ध भ्रान्ति : अंतर्राष्ट्रीय वरिष्ट नागरिक दिवस पर विशेष

       प्रत्येक वर्ष १ अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय वरिष्ट नागरिक दिवस का आयोजन किया जाता है | इस अवसर पर अपने वरिष्ट नागरिको का सम्मान करने एवं उनके सम्बन्ध मे चिंतन करना आवश्यक होता है | मेरी समझ मे एक दिन के सम्मान से अधिक वरिष्ट नागरिकों के बारे मे चिंतन करना अपेक्षाकृत उपयोगी होता प्रतीत होता है | आज का वरिष्ट समाज अत्यधिक कुंठा ग्रस्त है और सामान्यतया इस बात से सर्बाधिक दुखी है कि जीवन का विशद अनुभव होने के बावजूद कोई उनकी राय न तो लेना चाहता है और न ही उनकी राय को महत्व ही देता है | इस प्रकार अपने को समाज मे एक तरह से  निष्प्रयोज्य समझे जाने के कारण हमारा वृद्ध समाज सर्बाधिक दुखी रहता है | वृद्ध समाज को इस दुःख और संत्रास से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी जरुरत है | मेरा उद्देश्य इसी दिशा मे प्रयास करना है | 

                      बृद्ध समाज सामान्यतया एक बीमारी का शिकार है , जिसका इलाज करना आवश्यक है | इस बीमारी का नाम है वृद्ध भांति | प्रत्येक वृद्ध के मन मे यह विचार बैठा हुआ होता है कि उसके बाल धूप मे नहीं सफ़ेद हुए हैं अर्थात अपने सुदीर्घ जीवन मे उन्होंने बहुत सारा अनुभव अर्जित एवं संग्रहीत कर रखा हैं , जो बहुत मूल्यवान एवं उपयोगी है और जिसे वह अपने परिवार तथा समाज को निःशुल्क देना चाहता है | पर वह तब बहुत निराश व दुखी महसूस करता है , जब उसे पता चलता है कि कोई यहाँ तक कि परिवार वाले भी उनके इस अनुभव का कोई लाभ नहीं उठाना चाहता , जबकि अनुभव का यह विशाल आगार घर मे ही संग्रहीत और सहज ही सुलभ होता है  | यही प्रत्येक वृद्ध के मन की पीड़ा होती है और इसी पीड़ा से वह आजीवन कुंठाग्रस्त रहता है |
                      इस परिप्रेक्ष्य मे हमें इस प्राकृतिक एवं नैसर्गिक तथ्य का समुचित संज्ञान लेना आवश्यक प्रतीत होता है कि त्रिगुणात्मिका शक्ति की अवधारणा प्रकृति का सबसे बड़ा सिद्धांत है और तदनुसार गुण श्रेष्टता भी स्वतः प्रमाणित  है | सत्वगुण श्रेष्टतम , रजोगुण श्रेष्ट्रतर तथा तमोगुण श्रेष्ट होता है | भोजन भी तदनुसार तीन श्रेणियों मे विभक्त किया जा सकता है और भोजन के अनुसार ही गुण विकसित होता है | दूध सात्विक भोजन होता है और दूध का सेवन करने वाला बच्चा सत्वगुण संपन्न यानि श्रेष्टतम होता है | थोड़ा बड़ा होकर वही बच्चा अनाज का राजसिक भोजन करने लगता है और तदनुसार रजोगुण संपन्न यानि क्रियाशील हो जाता है | जवानी तक यही क्रम चलता रहता है , यानि सत्वगुण घटता और रजोगुण बढ़ता जाता है | प्रौढ़ावस्था के बाद तमोगुण यानि निष्क्रियता की स्थितियां प्रारंभ हो जाती है | इस दौरान सत्वगुण तो समाप्तप्राय हो जाता है , रजोगुण उत्तरोतर कम होता जाता है और तमोगुण का वर्चश्व बढ़ता जाता है | बालक , युवा तथा वृद्ध की तदनुसार स्थितियां होती है , जिसे लोग समझ नहीं पाते |  इस नैसर्गिक तथ्य से हमें वृद्ध भ्रान्ति को समझने मे सहूलियत होगी |   
            जीवन मे और वरिष्ट नगरको की दृष्टि मे विशेषकर अनुशासन का बहुत महत्व होता है | वरिष्ट के आदेशों व निर्देशों का स्वयमेव कनिष्ट द्वारा पालन करना ही अनुशासन होता है | वरिष्टता क्रम उपरोक्तानुसार नैसर्गिक नियम के अनुसार स्वतः निर्धारित हो चुका है कि बच्चा वरिष्तम , युवा श्रेष्ट्तर तथा वृद्ध श्रेष्ट होते हैं | इस प्रकार निम्न श्रेणी (बृद्ध ) द्वारा उच्च श्रेणी के युवा व बच्चों की भावनाओं व अपेक्षाओं को दृष्टिगत रखते हुए उनके निर्देशों का अनुपालन किया जाना चाहिए , ताकि अनुशासन का वातावरण बन सके और नैसर्गिक नियमो का  पालन भी हो सके | अन्यथा अनुशासनहीनता की स्थिति उत्पन्न होगी , जिसका सम्पूर्ण उत्तरदायित्व बृद्ध समाज पर ही होगा | इस प्रकार वृद्धों को युवा तथा बच्चों की भावनाओं तथा अपेक्षाओं को भली भांति समझकर तदनुसार कार्यविधि अपनाना चाहिए | तदनुसार दायित्व बोध से अधिक उन्हें कोई अपेक्षा नहीं करनी चाहिए | तभी अपने को सबसे श्रेष्ट समझने की बृद्ध समाज के त्रुटिपूर्ण चिंतन मे सुधार आ सकेगा और तभी बृद्ध भ्रान्ति समाप्त हो सकेगी | मात्र  इससे ही उनकी कुंठा तथा संत्रास का निवारण और अनपेक्षित मनस - विकार भी दूर हो सकेगा |                       
--          इसके साथ साथ अपने अर्जित और संग्रहीत वेशकीमती अनुभवों को कूड़ेदान मे फेकने के बजाय उन्हें उपयोग मे लाने की दिशा मे चिंतन करते हुए क्रियाशील हो जाना चाहिए | बृद्ध समाज अपने आप मे इस दिशा मे अपनी सक्षमता को पहचानना चाहिए और इस नए परिवार को शक्तिसंपन्न करने की दिशा मे सक्रिय हो जाना चाहिए | वृद्ध समाज  इसे ही अपने वर्तमान का संकल्प बना लेना चाहिए , तभी यह अति मूल्यवान तबका समाज मे अपना वर्चश्व व उपादेयता पुनः स्थापित कर पायेगा |  


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Thursday, September 30, 2010

चिकित्सा का अधिकार बनना चाहिए मौलिक अधिकार

     घरेलु कामगरों , मजदूरों तथा ग्रामीणों के संपर्कों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि ९०% जनता का न तो कोई चिकित्सक होता है और न ही उन्हें किसी प्रकार की चिकित्सकीय सुविधा ही मुहैया हो पाती है | यह बेचारे सामान्यतया झोला छाप डाक्टरों तथा नीम हकीमो से अपना इलाज कराने को विवश होते हैं | यही उनके एकमात्र सहारा होते हैं और गंभीर बीमारियों मे यही उनकी जान लेवा भी साबित होते हैं | अधिकांश निजी चिकित्सक शहरों मे ही रहकर इलाज करते हैं और उनकी मरीजों को देखने की फीस भी बहुत अधिक होती है | उनकी फीस देने और उनके परामर्श पर दवा खरीदने की क्षमता इन ९०% लोगों के सामर्थ्य से बाहर होती है | सरकारी अस्पतालों पर लोगो का विश्वास नहीं बन पा रहा है और वे लोगो की अपेक्षाएं पूरी करने मे सफल होते नहीं दिखाई देते हैं | 

                   अभी कुछ महीनो पहले शिक्षा के अधिकार का अधिनियम बना था और इस समय खाद्य सुरक्षा पर और बड़ी गंभीरता से बहस चल रही है और निकट भविष्य मे खाद्य सुरक्षा पर अधिनियम  बन जाने की उम्मीद है | बस्तुतः सबसे ज्यादा जरुरत स्वास्थ्य सुरक्षा की है , क्योकि स्वास्थ्य के लिए व्यक्ति पूर्णतया चिकित्सक पर निर्भर होता है , जबकि उत्पादक होने के कारण  खाद्य सुरक्षा के सन्दर्भ मे व्यक्ति काफी हद तक स्वावलंबी होता है | हकीकी यह भी है कि बिमारिओं  से मरने वालों की सख्या सबसे अधिक होती है , जबकि भूख से मरने वालों की संख्या नाम मात्र की ही होती है | इस प्रकार खाद्य सुरक्षा से पहले स्वास्थ्य सुरक्षा के सन्दर्भ मे कार्यवाही किये जाने की आवश्यकता है | आम व्यक्ति को सरकार से सबसे बड़ी अपेक्षा स्वास्थ्य सुरक्षा की है , अन्यथा उनके लिए सरकार की कोई खास जरुरात नहीं है | अतयव आम आदमी की सबसे बड़ी जरुरत पर विशेष और सबसे पहले ध्यान देना चाहिए |  

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Tuesday, September 28, 2010

रचनाकारों , रचनाधर्मिता तथा हिंदी को नुकसान पहुचाते प्रकाशक

   आज साहित्यकार विशेषकर कवि हताशा के दौर से गुजर रहा है , क्योंकि उसका लेखन उस तक ही सिमट कर रह जाता है | कोई प्रकाशक कविता संग्रह को प्रकाशित करने को इस कारण  तैयार नहीं होता कि कविता का कोई बाज़ार ही  नहीं है | उनके कहने मे सत्यता कम बहानेबाजी ज्यादा  प्रतीत होती है | क्योकि प्रकाशकों द्वारा सरकारी खरीद के लिए कविता की पुस्तकों का मूल्य बहुत अधिक रख दिया जाता है और अकेले सरकारी खरीद से प्रकाशकों की पुस्तक- प्रकाशन का निहितार्थ पूरा हो जाता है | अतयव प्रकाशकों की रूचि आम पाठक को पुस्तक बेचने मे होनी प्रतीत नहीं होती | इस प्रकार प्रकाशकों के इस कथन से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि कविता का बिलकुल खरीददार नहीं है | वस्तुतः  कविता के खरीददार और पाठकों की कमी नहीं है | सत्य यह है कि प्रकाशकों द्वारा व्यावसायिक नज़रिए से पुस्तक का मूल्य अधिक रख देने मात्र के कारण इसे महगा बना देने से कविता की महगी पुस्तकों  के खरीदार कम होते जा रहे हैं | इस प्रकार कविता के पाठक कम होने के पीछे कविता की पुस्तकों का महगा होना है और इसके लिए सरकारी खरीद व प्रकाशकों की व्यावसायिक दृष्टि उत्तरदायी है |
          जयपुर का बोधि प्रकाशन इस दिशा मे अत्यधिक सराहनीय पहल कर रहा है | यह प्रकाशन ८० से १२० पृष्ट की कहानी और कविता की पुस्तक का मूल्य मात्र दस रुपया रखा जाता है | इसी प्रकार अन्य प्रकाशन भी हो सकते हैं | इसके बिपरीत अन्य प्रकाशकों द्वारा इस आकार की पुस्तक का मूल्य सामान्यतया १५० व २०० रुपया रखा जाता है | पुस्तकों के मूल्य मे इतना अधिक अंतर होने की क्या वजह हो सकती है ? बोधि प्रकाशन का यह प्रयास रचनाकारों , साहित्य व हिंदी के लिए बेहद हितकारी तथा पुस्तकों को महगा करके प्रकाशित करने वाला प्रकाशकों का कृत्य रचना , रचनाकार तथा हिंदी को बेहद नुकसान पहुचाने वाला होता है | यदि देश के सभी प्रकाशक छपाई की लागत के अनुसार पुस्तक का मूल्य रखने लगे तो साहित्य की गंगा फिर से बह सकती है | सरकार को भी बोधि प्रकाशन सरीखे सस्ता प्रकाशन करने वालों को प्रोत्साहन देने पर भी विचार करना चाहिए |   

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Tuesday, September 21, 2010

अयोध्या मे " राम दर्शन " मंदिर का निर्माण

  इस समय सारा देश सशंकित और स्तंभित है कि २४ सितम्बर को उच्च  न्यायालय का क्या फैसला होगा और फैसले के बाद क्या होगा ? यह कुछ दिन बड़े कठिन व  संवेदनशील तथा भारत के लिए परीक्षा की घडी के समान है | यह बड़े संतोष की बात है कि संघ परिवार तथा बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी दोनों  का  अभी तक का रुख सकारात्मक व सुर भी बदले हुए प्रतीत होते हैं | यह भी बड़ा सुखद है कि आम हिन्दू व मुसलमान इस बार भावावेश मे आने वाला नहीं है , इस तथ्य को दोनों वर्गों के नेता समझते हैं कि इस बार अफवाहों का बाज़ार ठंढा रहेगा | पर धर्म व राजनीति की रोटी सेकने वालों तथा अमेरिका मे अँगरेज़ पादरी द्वारा पवित्र कुरान को जलाने की घोषणा के बाद कश्मीर दुनिया भर मे सबसे अधिक  प्रतिक्रिया कश्मीर के मुसलमानों मे होने वाली घटना के परिप्रेक्ष्य मे  इस विशाल  भारत मे कुछ भी होने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है |
                        खैर यहाँ मै कुछ और कहने जा रहा हूँ जो प्रासंगिक तो है ही उपयोगी भी है | भगवान राम मर्यादा पुरुषोतम तो थे ही , वे  समाज के प्रत्येक क्षेत्र मे आदर्श स्थापित करने वाले एक व्यवस्थाकार भी थे | भगवान राम ने आदर्श पुत्र , आदर्श भाई , आदर्श शिष्य , आदर्श पति , आदर्श शासक , आदर्श मित्र , आदर्श शत्रु के प्रतिमान स्थापित किये थे और व्यावहारिक जीवन मे इन समस्त आदर्शों को चरितार्थ किये थे | ऐसे सैकड़ों प्रसंगों से राम चरित मानस भरा पड़ा है | भगवान राम के जीवन के इन प्रसंगों , जिनसे राम के आदर्श , राम की शिक्षाएं तथा राम के दर्शन की जानकारी लोगों को हो सके , ऐसा प्रयास करने की आवश्यकता है | ताकि अयोध्या , जहाँ कोई युद्ध नहीं होता , मे आने वाले लोगों को राम के दर्शन हो सके और उन्हें राम के दर्शन की वास्तविक जानकारी मिल सके | अयोध्या मे ऐसा राम दर्शन मंदिर निर्मित कराये जाने की अत्यधिक उपयोगिता और  आवश्यकता है | यह उपयोगितावाद पर आधारित अवधारणा है और इससे किसी का विरोध हो ही नहीं सकता |
                मै चित्रकूट मे जिलाधिकारी था और संयोगवश नानाजी देशमुख के साथ बैठा था | उसी समय कुछ लोग नाना जी से मिलने आ गए | उन लोगो ने नाना जी से पूछा कि अयोध्या मे राम मंदिर कब बनेगा ? नानाजी ने उनसे पूंछा कि तुम सब चित्रकूट भ्रमण कर चुके हो , तो क्या तुम्हे राम के दर्शन हुए ? मै चाहता हूँ कि चित्रकूट मे आने वाले प्रत्येक श्रद्धालु को राम के दर्शन हों और राम के दर्शन की जानकारी हो सके | अतयव मै ऐसा मंदिर बनवाने जा रहा हूँ , जिसका नाम होगा "राम दर्शन " | राम दर्शन के शिल्पकार थे सुहाश बहुलकर और वास्तुकार थे पुनीत सुहैल | मै तो केवल राम दर्शन के निर्माण का प्रत्यक्षदर्शी मात्र  था कि नाना जी कैसे रामायण के महत्वपूर्ण और शिक्षाप्रद  प्रसंगों को चयनित करते थे ? उन्होंने अपने कुशल  निर्देशन मे विभिन्न पगोडा मंदिरों मे रिलीफ , पेंटिंग और डायोरमा के माध्यम से राम दर्शन को निर्मित कराया था | नाना जी की सोच बहुत व्यापक थी और उसी सोच से प्रभावित होकर मैं इस मत का हूँ कि अयोध्या मे भी विशाल राम दर्शन बनवाये जाने की बहुत बहुत आवश्यकता है , ताकि अयोध्या आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को राम के दर्शन हो सके और उन्हें राम के दर्शन की सम्पूर्ण जानकारी हो सके | यह दक्षिण भारत के मंदिरों की भांति बहुत विशाल और भव्य हो और इसकी व्यवस्था भी तदनुसार हो |


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बाढ़ : दैवी आपदा से अधिक मानव कृत समस्या

 इधर काफी बड़ा भूभाग तथा क्षेत्र बाढ़ से परेसान चल रहा है | बाढ़ग्रस्त लोगों की तकलीफों की कल्पना केवल वही व्यक्ति कर सकता है जो ऐसी स्थिति से गुज़र चुका हो | बाढ़ प्रलय की स्थिति का थोड़ा बहुत आभास देता है , क्योकि बाढ़ के दौरान ऐसा लगता है कि अब सब कुछ समाप्त होने ही  वाला है , घर -परिवार के लोग तथा जानवरों से नाता छूटने वाला है तथा जीवन लीला बस समाप्त होने वाली है | मुझे भी इस सम्बन्ध मे थोड़ा -बहुत अनुभव इस कारण है कि यस ड़ी यम , ए ड़ी यम , सी ड़ी ओ तथा ड़ी यम के रूप मे मेरी तैनाती गोरखपुर , सिद्दार्थनगर ,कुशीनगर तथा सीतापुर अत्यधिक बाढ़ग्रस्त जनपदों मे रही है और इन सभी जनपदों मे मेरी तैनाती के दौरान भयंकर बाढ़ आई थी और मै बाढ़ राहत व बचाव कार्य से गंभीरता से जुड़ा था | इस प्रकार से बाढ़ की भयावहता , राहत तथा बचाव कार्य का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ |
           प्रकृति हमारे ऊपर सदा सर्वदा मेहरबान रही है | यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हम इन मेहरबानियों से अनजान बने हुए रहते  हैं | प्रकृति ने पृथ्वी पर इस प्रकार की ढलान रखी है  कि कहीं जल भराव की स्थिति न उत्पन्न होने पाये | सर्बे आफ़ इंडिया ने बड़ी मेहनत करके विभिन्न स्थलों की  ढलान को दर्शाते हुए कंटूर लाइन मैप बनाया गया है | यदि इस नक़्शे का उपयोग सड़कों , नहरों , भवनों के अलायमेंट के समय किया जाता तो जल निकासी की समस्या से बचा जा सकता था , पर दुर्भाग्य की बात यह है कि किसी के पास सर्वे आफ इंडिया का मैप ही नहीं होता | जिले के अधिशाषी अभियंता लोक  निर्माण विभाग के पास ऐसा एकमात्र मैप अवश्य होता है जो उनकी  तिजोरी मे सुरक्षित रखा जाता है , ताकि वी आई पी के आगमन  के समय हेलीकाप्टर का अक्षांश का पता लगाने के लिए उक्त मैप तिजोरी से बाहर निकाला जाता है और काम के बाद उसे फिर तिजोरी मे रख दिया जाता है | इसके अलावा इस अत्यधिक उपयोगी मैप का कभी भी कोई अन्य उपयोग सड़क  , नहर तथा भवन निर्माण हेतु नहीं होता | इसका परिणाम यह होता है कि पूरे देश की ही जल निकासी की व्यवस्था बद से बदतर हो जाती है | यह भी जल भराव तथा बाद की स्थितियां उत्पन्न कर देता है |      
           इस सम्बन्ध मेरा दृढ़ मत रहा है कि बाढ़ दैवी आपदा नहीं है , वरन यह मानवीय कृत्यों का प्रतिफलन है और एक तरह से बाढ़ के लिए मनुष्य ही जिम्मेदार है | पहले भी बाढ़ आती थी , पर शीघ्र ही  बाढ़ का पानी उसी रफ़्तार मे उतर जाता था , जिस रफ़्तार मे बाढ़ आती थी | नदियाँ जहाँ एक ओर बाढ़ लाती थी , वही दूसरी ओर नदियाँ ही जल निकासी का श्रोत भी साबित होती थी | पर आज बाढ़ का पानी कई कई दिनों तक ठहरा रहता है और नदियाँ अब जल निकासी का पहले की तरह काम नहीं कर पाती | मानवीय प्रयासों ने इस दृष्टि से भी नदियों को बहुत अक्षम बना दिया है |
           नदियों पर बांध निर्माण करके मनुष्य द्वारा  नदी को पालतू बनाने जैसा कार्य किया जाना प्रतीत होता है | बांध निर्माण का मुख्यतः दो उद्देश्य होता है | बांध बना कर वस्तुतः नदी  का अधिकांश जल बांध के जलाशय मे रोक लिया जाता है , जिससे नहरे निकाली जाती है  और बिजली पैदा की जाती है | जिससे विकास का मार्ग तो अवश्य प्रशस्त होता है , परन्तु इस प्रकार होने वाले   विकास की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है |
            बांध निर्माण से होता यह है कि नदी का अधिकांश जल जलाशय मे रोक लिया जाता है और नदी मे नाम मात्र का ही जल आ पाता है | इसके परिणाम स्वरूप नदी मे तेज प्रवाह व बहाव लायक जल तो आ ही नहीं पाता | इससे नदी का पेटा पटने लगता है | परिणाम स्वरूप दस लाख क्यूसेक धारक क्षमता वाली नदी की धारक क्षमता घटते घटते दस साल मे मात्र दो लाख क्यूसेक रह जाती है | वर्षा काल मे बांध को बचाने के लिए मजबूरन २ ० सी ५ ० लाख क्यूसेक पानी नदी मे छोड़ना पड़ता है | नदी की धारक क्षमता घट जाने के कारण नदी का यह पानी दूर दराज़ क्षेत्रों मे फ़ैल जाता है और काफी देर तक पानी रुका रहता है , क्योकि धारक क्षमता घटने के कारण नदी जल निकासी का काम भी नहीं कर पाती | इस प्रकार हम नहर से सिचाई करके तथा बिजली बनाकर जितना लोगों को लाभान्वित कराते हैं ,  बाढ़ का हर दृष्टि से तकलीफ झेलकर लोग उक्त लाभ की कई  कई गुनी कीमत चुकाते हैं | इस प्रकार बांध  निर्माण एक घाटे का सौदा सिद्ध होता है |
            प्रकृति सर्बशक्तिमान एवं सर्बभौम सत्ता है और प्रकृति यह नहीं बर्दास्त कर सकती कि  मनुष्य प्रकृति को पालतू बनाये | ऐसा होने पर प्रकृति की प्रतिकूल प्रतिक्रिया का होना स्वाभाविक है | आज अनेक अवसरों पर हम महसूस करते हैं कि प्रकृति हमसे नाराज है और हम प्रायः इसे  दैवी आपदा अथवा प्रकृति का कोप समझ बैठते हैं | यह दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति है कि हम अपने को इस बात के लिए दोषी नहीं मानते हैं कि अपने कारनामो की वज़ह से कहीं हमने प्रकृति को कुपित तो नहीं कर दिया  है ? बाढ़ , सूखा , अवर्षण , ग्लोबल वार्निंग , सुनामी तथा भूकंप आदि के लिए कदाचित मनुष्य ही जिम्मेदार होते हैं | आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य को  तात्कालिक लाभ के लिए प्रकृति का अप्राकृतिक और अनियंत्रित दोहन करके प्राकृतिक संतुलन को बिगड़ कर प्रकृति को  कुपित करने का काम नहीं करना चाहिए , ताकि उसके गलत कार्यों की वज़ह से पूरी मनुष्यता को प्रकृति का कहर न झेलना पड़े |
               बांध निर्माण के बाद अब नदियों को जोड़ने की योजना पर विचार हो रहा है जो मनुष्यता के लिए आत्म हत्या करने जैसा कार्य है , क्योकि यह प्राकृतिक व्यवस्था मे बहुत बड़ा हस्तक्षेप माना जाना चाहिए | मनुष्यों को प्रकृति के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिए और प्रकृति का आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए और ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए , जो प्रकृति के प्रतिकूल हो |           



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Tuesday, September 14, 2010

हिंदी दिवस का आयोजन पितरपक्ष की तरह

प्रति वर्ष १४ सितम्बर को हिन्ही दिवस तथा पूरे पक्ष हिंदी पखवारे का आयोजन किया जाता है | १४ सितम्बर को ही संबिधान सभा मे हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप मे अंगीकार करते हुए इसे १५ वर्ष तक के लिए संपर्क भाषा बनाया गया था | इसी उपलक्ष मे हिंदी दिवस मनाया जाता है और पूरे पखवारे तक समस्त कार्यालयों , विशेषकर केन्द्रीय कार्यालयों व सार्बजनिक उपक्रमों मे अनेक आयोजन होते हैं | ऐसे आयोजन का मुख्य अतिथि सामान्यतया ऐसा व्यक्ति होता है जो प्रायः हिंदी बोलने व हिंदी मे काम करने से परहेज करता है और अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों मे पढ़ाता है | ऐसा लगता है कि हिंदी दिवस व पखवारा एक रश्म अदायगी के तौर पर मनाया जाता है , जिसमे हिंदी के पक्ष मे भाषणबाजी  व बयानबाजी तो खूब होती है किन्तु हिंदी के हित मे कुछ भी नहीं होता |
             राष्ट्र भाषा किसी देश मुख होता है , जिसे सजा - संवार कर रखा जाता है | राष्ट्र भाषा प्रेम का एक सजीव उदाहरण हमारे समक्ष है | तुर्किस्तान  के आजाद होने पर वहाँ के शासक कमाल पाशा ने जब लोगो की इस सम्बन्ध मे राय ली तो सभी ने तुर्की को १० से ५० वर्ष तक राष्ट्र भाषा बनने की सम्भावना जतायी थी , परन्तु कमाल पाशा ने अपने मत्री भाषा प्रेम तथा दृढ़ इच्छा शक्ति के चलते घोषित किया कि कि दूसरे दिन सूर्योदय से ही तुर्की  राष्ट्र भाषा घोषित कर दिया था | इतना ही नहीं उन्होंने एक वर्ष तक सारे कार्यालय व शिक्षण संस्थाएं बंद सारे देश वासियों को लोगों को तुर्की परगने के काम मे लगा दिया था | भारत मे भी इसी प्रकार की इच्छाशक्ति की दरकार थी | तभी तो आज़ादी के ६३ साल बाद भी अशिक्षा का बोलबाला आर अंगूठे का वर्चश्व बरक़रार है | भारत मे  न तो किसी को हिंदी से उतना प्यार ही था और न ही ऐसी कोई इच्छा शक्ति ही दृष्टिगोचर हुई है  | यही कारण है कि  हिंदी की स्थिति डांवाडोल बनी हुई है | बिना संज्ञा के कोई प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर सकता और देश की मजबूती के लिए भाषाई एकता बहुत जरुरी है , अतयव देश हित मे पूरे देश को एकजुट होकर भाषाई एकता को प्रदर्शित करना चाहिए और अपनी अपनी मातृभाषा का पुरजोर प्रयोग एवं विकास करना चाहिए | हिंदी से किसी भाषा को न तो कोई खतरा है और न ही कोई प्रतिद्वंदिता | तो फिर आखिर हिंदी का विरोध क्यों ?
               हिंदी को सबसे अधिक खतरा २% अंग्रेजी दा लोगों से है जो हिंदी को उसका असली हक़ दिलाने के कभी पक्षधर नहीं रहें हैं | आज़ादी के बाद आज भी हिंदी को सबसे ज्यादा खतरा अंग्रेजी और अंग्रेजों से ही है | अंग्रेज अंग्रेजी के जरिये भारत मे अब तक अपनी वापसी की उम्मीद लगाये बैठे हैं | अंग्रेजो का कुत्ता प्रेम प्रसिद्ध है और कदाचित इसी कारण उनमे श्वान वृति आ गयी प्रतीत होती है | कुत्ते की सूंघने का स्वभाव अद्भुत होता है और उसकी जीवन वृति इसी गुण से संचालित होता है | इसलिए कुत्ता जब भी कभी बाहर जाता है तो रास्ते की स्थायी बस्तुओं पर पेशाब करता हुआ जाता है , ताकि सूंघते सूंघते वह वापस आ सके | अंग्रेज भी इसी स्वभाव व विचार से लोक सभा , उच्चतम न्यायालय , लोक सेवा आयोग ,नौकरशाही तथा विश्व विद्द्यालयों मे अंग्रेजी को स्थापित कर गए थे , ताकि कुत्ते के स्वभानुसार उनका पुनरागमन संभव हो सके |  
                देश के गौरव की स्थापना तथा राष्ट्र -प्रेम का तकाजा है कि राष्ट्र भाषा को उसके वास्तविक स्वरूप मे स्थापित किया जाय और हर एक भारतवासी इस दिशा मे अपने दायित्व बोध का प्रदर्शन करे | तभी हिंदी दिवस के आयोजन की सार्थकता होगी |


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Monday, September 6, 2010

शिक्षक दिवस पर विशेष : शिक्षक तथा शिक्षाविदों के दायित्व

शिक्षक दिवस एक महत्वपूर्ण अवसर होता है , जब पूरा देश शिक्षकों का सम्मान कर रहा होता है | इस दिन कुछ चयनित शिक्षकों को उनके सराहनीय प्रयासों के लिए राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित भी किया जाता है | विभिन्न स्तरों पर अनेकानेक आयोजन होते हैं , जिसमे डा सर्ब्पल्ली राधाकृष्णन ,जिनके जन्मदिन को ही शिक्षक दिवस के रूप मे मनाया जाता है तथा गुरु शिष्य की गौरवशाली परंपरा का स्मरण करते हुए शिक्षकों के योगदान व उनकी समस्यायों पर चर्चा की जाती है और लम्बे चौड़े भाषण देकर शिक्षा दिवस का समापन कर दिया जाता है ,पर शिक्षा के स्वरूप व अपने मूल उद्देश्यों से भटकी मूल्यविहीन शिक्षा की सार्थकता तथा शिक्षा व शिक्षकों के गिरते स्तर पर कोई चिंता नहीं की जाती है | जबकि शिक्षा दिवस के आयोजन की सर्वाधिक प्रासंगिकता इसी बात की ही है | यहाँ हम कुछ इन्हीं विषयों पर चर्चा करेंगे |              
आज हमारी शिक्षा व्यवस्था अशिक्षा की ओर ले जा रही है ,क्योंकि आज का क्षात्र शिक्षा प्राप्त करता हुआ जैसे जैसे उच्च मानसिक अधिमान को प्राप्त करता जाता है ,वह तदनुसार अपनी भौतिक आवश्यकताओं को भी बढाता जाता है ,परन्तु शिक्षा व्यवस्था उसकी मनो - भौतिक जरूरतों को पूरा करती हुई प्रतीत नहीं होती | इस प्रकार शिक्षा प्राप्ति से उसे समस्या प्राप्त होती है , जिसके लिए उसे जीवन के यथार्थ मूल्यों (अनुशासन ,चरित्र ,नैतिकता ,विश्वास पात्रता  आदि मूल्य ) की कीमत चुकानी पड़ती है | इस प्रकार शिक्षा से मिलती है समस्या ,वह भी जीवन के यथार्थ मूल्यों को खोकर | यदि ऐसा है तो शिक्षा व्यवस्था मे कहीं न कहीं कोई खामी तो ज़रूर है और शिक्षक भी इसके लिए उत्तरदायी माने जायेंगे | तो क्या आज शिक्षक दिवस के महत्वपूर्ण अवसर पर इतने जीते जागते मुद्दे के बारे मे नहीं बिचार किया जाना चाहिए ?
             हमारी शिक्षा व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष यह है कि यह मानकर चलती है कि बच्चे को पढाया जाता है और सारा पाठ्यक्रम तथा शिक्षण पद्दतियां तदनुसार ही होता हैं | जबकि वास्तविकता इससे बिलकुल भिन्न है | वस्तुतः बच्चा पढाया नहीं जाता वरन वह पढता है | वह सबसे पहले अपनी मा को पढ़ता है , इसके बाद अपने पिता -भाई -बहन -परिवारजनों व संपर्क मे आने वालों को पढता है | इसके बाद वह अपने दोस्तों व पड़ोस को पढ़ता है और स्कूल जाने पर अध्यापक व सहपाठियों को पढ़ता है | सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि सभी इस तथ्य से अनजान रहते हैं कि बच्चा उन्हें या उनसे निरन्तर पढ़ रहा होता है | इस प्रकार वांछनीय व अवांछनीय जो भी उसके समक्ष आता है , बच्चा उसे पढ़ जाता है | इस परिप्रेक्ष्य मे पढ़ाने की आवश्यकता माता - पिता - अध्यापक - पड़ोसियों को है कि बच्चे के अनवरत पढने की प्रवृति के कारण सभी लोग ,जिन्हें बच्चा पढ़ रहा है , बच्चे के समक्ष कोई अवांछनीय बात व व्यवहार न करें , ताकि बच्चा उनसे अवांछनीयता न पढ़ जाय | वस्तुतः पढ़ाने की आवश्यकता बच्चे को बिलकुल ही नहीं है और अच्छा व स्वस्थ परिवेश मिलने पर वह स्वतः पढ़ जावेगा | व्यक्ति अपने बच्चे के बारे मे इस दिशा मे  अवश्य सतर्क रहता है और अपने बच्चे के समक्ष कोई अवांछनीय कार्य व्यवहार नहीं आने देता है ,पर वह अन्य सभी बच्चों के बारे मे बिलकुल उदासीन रहता है | यदि अध्यापक की हस्तलिपि ख़राब है तो ब्लेक्बोर्ड पर उसके लिखने पर बच्चे की हस्तलिपि ख़राब होना स्वाभाविक है | यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि शिक्षा जगत की लाखों सालों की यात्रा के बाद भी हम इतना नहीं समझ पाये हैं कि अध्यापक की ख़राब हस्तलिपि का खामियाजा बच्चा क्यों भुगते ? अभी तक हमारी शिक्षा व्यवस्था इतना निषेध नहीं लगा पायी है कि क्षात्र जब तक लिखना पूर्णतया सीख नहीं जाता है , अध्यापक को ब्लेकबोर्ड पर नहीं लिखना चाहिए |
              शिक्षा जगत मे छात्र - अनुशासन हीनता की बहुत सारी बातें होती रहती हैं , जबकि लोग अनुशासन का सही मतलब ही नहीं जानते | आटोमिक फालोइंग कमांड आफ द सुपीरियर बाई द इन्फीरियर इज अनुशासन | यहाँ जोर जबरदस्ती का कोई स्थान नहीं और स्वयमेव प्रक्रिया का स्थान प्रमुख है | अब यह विचार करना है कि कौन श्रेष्ट व कौन  निम्न है | वरिष्टता क्रम मे सत्वगुण  श्रेष्टतम , रजोगुण श्रेष्टतर व तमोगुण श्रेष्ट होता है | तदनुसार सत्वगुणी दूध का भोजन करने वाला बच्चा सबसे शक्तिशाली व श्रेष्टतम  होता है | राजसिक यानि अनाज का भोजन करने के कारण उसमे रजोगुण यानि क्रियाशीलता का प्रादुर्भाव हो जाता है ,पर वह श्रेष्टतम से श्रेष्ट्तर स्थिति मे पहुँच जाता है | जवानी के बाद रजोगुण यानि क्रियाशीलता मे कमी व तमोगुण मे अभिबृद्धि का दौर शुरू होता है और श्रेष्ट स्थिति को दर्शाता है | इस प्रकार अध्यापक को छात्रों की अपेक्षाओं का पूर्ण संज्ञान लेकर उन्हें पूरा करने का प्रयास करना चाहिए | ऐसा न करने पर अध्यापक को ही अनुशासनहीन माना जावेगा | ऐसी अवस्था मे अध्यापको द्वारा कभी कभी छात्रो पर   बलप्रयोग भी किया जाता है और कभी कभी छात्र समूह , जो शक्ति का आगार होता है , द्वारा उक्त बल प्रयोग के बिरुद्ध आक्रोश अभिव्यक्त कर बैठता है | जिसे लोग अनुशासनहीनता की संज्ञा दे बैठते हैं | बस्तुतः यह अनुशासन हीनता न होकर अनुशासनहीन लोगों द्वारा किये बलप्रयोग के बिरुद्ध आक्रोश का अभिप्रकाशन मात्र है |
             शिक्षको द्वारा आज शिक्षक दिवस पर डा सर्वपल्ली राधाकृष्णन , चाणक्य , डा कलाम , रविन्द्र नाथ टैगोर , विस्वामित्र ; संदीपनी आदि प्रमुख शिक्षकों का आदर्श अपनाने  और चन्द्रगुप्त , राम , कृष्ण सरीखे शिष्य तैयार करने की कोशिश करने का संकल्प लेना चाहिए |  
 
अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Thursday, August 19, 2010

स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का अपमान : जगन्नाथ सिंह

राष्ट्रकुल खेलों के परिप्रेक्ष्य मे नई दिल्ली तथा आसपास के क्षेत्रों को चमकाया जा रहा है, ताकि इस आयोजन के दौरान भ्रमण आने वाले विदेशी भारत के बारे मे अच्छी धारणा लेकर अपने देश वापस जांय | राष्ट्रीय गौरव और आत्म सम्मान के लिए ऐसा करना बहुत आवश्यक और औचित्यपूर्ण है | परन्तु इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि विदेशियों को अपनी गौरवशाली विरासत वाले  स्मारकों ही दिखाया जाना और गुलाम भारत के दौरान अंग्रेजी हुकूमत के कारनामो और उपलब्धियों को दिखाने से परहेज किया जाना चाहिए | यदि आजादी से पहले के  ब्रिटिश शासनकाल की गौरव गाथा व उपलब्धियों को दिखाया जाता है तो यह हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का घोर अपमान होगा |
       भारत मे इंडिया गेट एक ऐसा ही स्थल है, जिसे हम प्रत्येक विदेसी को सबसे पहले दिखाते हैं, क्योंकि स्थापत्य कला की दृष्टि से यह अत्यधिक सुन्दर एवं महत्वपूर्ण स्थल है | इंडिया गेट की दीवारों पर प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध मे शहीद हुए जवानो के नाम अंकित हैं जो गुलामी के दौरान अंग्रेज शासन की गौरव गाथा के अतिरिक्त कुछ नहीं कहते | इसे सबसे बड़ी गौरव गाथा के रूप मे दर्शाना स्वतन्त्र भारत मे कहाँ तक औचित्यपूर्ण है ? इस समय इंडिया गेट की दीवार पर अंकित नामो को और अधिक चमकाने और उभारने का काम भी चल रहा है जो निःसंदेह उचित नहीं प्रतीत होता है | वस्तुतः इंडिया गेट की दीवारों पर हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का नाम प्रदर्शित किया जाना चाहिए था | हमारे स्वतन्त्र भारत के लिए यह बड़े गौरव की क्या बात होती यदि इसपर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद , राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक, राजेंद्र लाहिड़ी, मदन लाल धींगरा, खुदी राम बोस तथा १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, मंगल पाण्डे, नाना फंडनवीश, गॉस खान आदि समस्त स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का नाम अंकित होता | यह हमारी अस्मिता, राष्ट्रीयता और देश प्रेम का तकाजा भी है | तब इंडिया गेट पहुँच कर इसे देखकर तथा विदेशियों को इंडिया गेट दिखाकर उन्हें इस सम्बन्ध मे बताने मे प्रत्येक भारतीय को गर्व होता | तभी हम राम प्रसाद बिस्मिल की इस ऐतिहासिक कविता को सही अर्थों मे सम्मानपूर्बक स्थापित कर सकते हैं :           
    " शहीदों  की मजारों पर  लगेंगे  हर बरस  मेले,
      वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशाँ होगा "|  
इंदिरा गाँधी द्वारा इंडिया गेट पर अमर जवान ज्योति की शुरुवात करके अज्ञात शहीदों की स्मृतियों को श्रधान्जली देने का सराहनीय प्रयास किया था , पर बिस्मिल की कविता को सार्थकता प्रदान करने के लिए इंडिया गेट से अच्छी दूसरी कोई जगह नहीं हो सकती है | 


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

नेताजी सुभाष के बलिदान का अपमान : जगन्नाथ सिंह

नागालैंड की राजधानी कोहिमा मे एक अत्यधिक एवं महत्वपूर्ण स्मारक है, पर्यटक जिसे देखने मे काफी रूचि लेते हैं | यह स्मारक बहुत सुन्दर तो है ही, इसके रख रखाव की व्यवस्था बहुत उत्तम कोटि की है | कोहिमा मे यह स्मारक दिल्ली के इंडिया गेट की तरह ही है | यहाँ एक बहुत बड़ी दीवार पर पीतल की बड़ी चादर पर इंडिया गेट की तरह शहीदों का नाम अंकित है, जिसे बराबर चमकाए रखा जाता है | इस स्मारक पर शहीदों के रूप मे उन सैनिकों के नाम अंकित हैं, जिन्होंने नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फ़ौज से हुई अंतिम लडाई मे लोहा लेकर उन्हें हराया था |
      यह बड़े दुःख और लज्जा का विषय है कि हमारी ही धरती पर नेताजी को उनके आखिरी युद्ध मे शिकश्त मिली थी और उन्हें पराजित करने वाले कोई और नहीं अपने ही भारतीय सैनिक थे, जिन्होंने अंग्रेज आकाओं के हुक्म पर  नेताजी से युद्ध किया था | आज अपने स्वतन्त्र भारत मे ऐसे स्मारक का होना नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तथा उनकी आज़ाद हिंद फौज के क्रांतिकारियों के बलिदान का घोर अपमान तो है ही, भारतीयों के दिलों पर राज्य करने वाले नेताजी के बलिदान और योगदान को ही मुह चिढ़ाता हुआ सा प्रतीत होता है |
        यह भी जानकारी मे आया है कि इस स्मारक का रखरखाव आज भी ब्रिटेन द्वारा ही होता है और इसके रख रखाव हेतु इंग्लॅण्ड से पौंड मे धन सीधे आता है | इससे यह भी प्रमाणित होता है कि आज़ादी से पूर्व अंग्रेजो द्वारा स्थापित परम्पराएँ आज भी यथावत निभायी जा रही है | ऐसी स्थिति मे इस सम्बन्ध मे संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि क्या हम वास्तविक अर्थों मे पूर्णतया स्वतन्त्र हो गए हैं अथवा नहीं ? कुछ भी हो एक स्वतन्त्र नागरिक के रूप मे हमारी सोंच अभी तक विकसित नहीं हो पाई है | 
      यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय सेना की बिभिन्न इकाईयों मे ऐसे अनेक विजय चिन्ह अनुरक्षित अथवा प्रदर्शित हैं जो ब्रिटिश शासनकाल मे उनके नज़रिए से गौरव के प्रतीक हो सकते थे , पर आज स्वतन्त्र भारत मे उक्त विजय चिन्ह राष्ट्रीय विरासत के रूप मे माने जायेंगे और उन्हें राष्ट्रीय संग्रहालयों मे होना चाहिए | एक उदाहरण से मै इसे स्पष्ट करना चाहूँगा |  गोरखा रेजीमेंट की रानीखेत इकाई मे रानी लक्ष्मीबाई की शिकस्त एवं अंग्रेजो के झाँसी विजय के प्रमाणस्वरूप झाँसी का राजदंड अनुरक्षित और प्रदर्शित है | यह रानी  लक्ष्मीबाई और समस्त क्रान्तिकारियों का घोर अपमान है |       
     इस दर्द को समझाने के लिए भारत के देश भक्त नागरिकों से पूछना चाहता हूँ कि जलियांवाला बाग मे जनरल डायर के हुक्म से चली गोलियों से मरने वालो के नामो का उल्लेख अब तक क्यों नहीं हुआ है ? यदि वहाँ जनरल डायर की भव्य मूर्ति बनवाकर उस पर फूल माला पहनाया जावे, तो भारत के राष्ट्र भक्तो को कैसा महसूस होगा | ऐसी स्थिति मे कोहिमा जैसे स्मारकों का ब्रिटिश सरकार के धन से रखरखाव हमारे देशवासियों को कैसे स्वीकार हो सकता है | राष्ट्र भक्तों को इस दिशा मे गंभीरता पूर्बक विचार करके सक्रिय होना आवश्यक है | 


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Tuesday, August 10, 2010

शाकाहार बनाम मांसाहार : जगन्नाथ सिंह

 सभ्यता के प्रारंभ से ही यह सवाल उठता आया है कि मनुष्य को शाकाहारी होना चाहिए अथवा मांसाहारी ? दोनों मे से सही क्या है ? यह प्रारंभिक तथा आदि प्रश्नों मे से एक रहा है | अलग अलग देश काल पात्रगत सापेक्षिक परिवेश मे इसके अलग अलग उत्तर आते रहें हैं | वैसे सापेक्ष जगत मे भी सार्बभौम उत्तर होते हैं ,जिनका भिन्न भिन्न देश काल पात्रगत परिवेश मे मतलब व व्याख्याएँ बदल जाती है |
       "जीव जीवस्य भोजनम " अर्थात जीव ही जीव का भोजन है | यह सृष्टि ही उपयोगितावाद पर अवस्थित है | सृष्टि मे कुछ भी अनपेक्षित नहीं है | एक का त्याज्य दूसरे का भोज्य है | प्रत्येक जीव एक दूसरे का भोजन है | मनुष्य केवल वही खाता है , जिनमे जीवन होता है और निर्जीव वस्तु को नहीं खाया जाता | जीव भी तीन श्रेणी मे आते हैं | 
       पहले श्रेणी मे वे जीव आते हैं , जिनमे केवल भौतिक अभिप्रकाशन होता है | अनाज इसी श्रेणी मे आता है | दूसरी श्रेणी मे वे जीव आते हैं , जिनमे भौतिक और मानसिक अभिप्रकाशन होता है | पशु इसी श्रेणी का जीव होता है | तीसरी श्रेणी मे वे जीव आते हैं , जिनमे भौतिक और मानसिक के अतिरिक्त आध्यात्मिक अभिप्रकाशन भी होता है | इस श्रेणी के जीव मे मनुष्य आता है | इन जीवो का वरिष्टताक्रम भी तदनुसार ही निर्धारित होता है , यानि मनुष्य श्रेष्ठ, जानवर निम्न तथा अन्न निम्नतर श्रेणी मे आते है | श्रृष्टि मे कोई जीव निकृष्ट व बेकार मे नहीं होता | इस प्रकार प्रत्येक जीव की कोई न कोई उपयोगिता अवश्य है | 
        अब प्रश्न उठता है कि अमुक श्रेणी का जीव किस श्रेणी के जीव को खाए और प्रकृति व श्रृष्टि का सिद्धांत इस सम्बन्ध मे क्या कहता है ? इस प्रश्न का सीधा और सरल सा उत्तर है कि अस्तित्व रक्षा के लिए भोजन आवश्यक होता है और यह शरीर का धर्म भी है | वस्तुतः उच्च श्रेणी का जीव अपने से निम्नतर श्रेणी के जीव को खा सकता है बशर्ते उससे निम्नतर श्रेणी का जीव उपलब्ध न हो | इस प्रकार जब तक निम्नतम श्रेणी का जीव यानि अन्न उपलब्ध रहता है, तब तक किसी मनुष्य को जानवर नहीं खाना चाहिए | किन्तु जहाँ अन्न पैदा ही नहीं होता या बिलकुल उपलब्ध ही नहीं होता, वहाँ अस्तित्व रक्षण के लिए मनुष्य पशु को खा सकता है | भोजन की आवश्यकता अस्तित्व रक्षण के लिए ही है और अपने अस्तित्व रक्षण के लिए यदि अपरिहार्य हो जाय तो एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को भी खा सकता है | युद्धों के दौरान बहुधा ऐसा देखने मे आ चुका है कि जनरल सिपाही को खा गया और यह पूर्णतया औचित्यपूर्ण भी ठहराया गया था , क्योंकि ऐसा न करने से जनरल , जिसका जीवन अधिक मूल्यवान होने के कारण श्रेष्ट्तर है, का जीवित रहना अपेक्षाकृत आवश्यक था |
     इस प्रकार भोजन के सम्बन्ध मे उपरोक्तानुसार सार्वभौम उत्तर व सिद्धांत मे इतना लचीलापन है कि विभिन्न देश काल पात्रगत सापेक्षिकता से इसका स्वतः समायोजन हो जाता है | इस प्रकार हमारे अनुत्तरित चले आ रहे इस आदि प्रश्न का उत्तर मिल जाता है |   

हिंसा बनाम अहिंसा : जगन्नाथ सिंह

मानव सभ्यता के आदि प्रश्नों मे से एक प्रश्न यह भी रहा है कि मनुष्य को किसे मारना चाहिए और किसे नहीं मारना चाहिए | अर्थात जीवन मे हिंसा का क्या स्थान होना चाहिए ? इस दिशा मे उत्तर खोजने के बहुत सारे प्रयास हुए ,पर सफलता नहीं मिलने से यह प्रश्न अभी तक अनुत्तरित है |
     इस प्रश्न का उत्तर तलाश करने की प्रक्रिया मे हम सबसे पहले समस्त जीवों को तीन श्रेणियों मे वर्गीकृत करते हैं | पहली श्रेणी मे वे सभी जीव आवेंगे जो मनुष्यों के मित्र हैं , जिन्हें हम जातिमित्र कह सकते हैं | जातिमित्र श्रेणी मे मनुष्य के अलावा वे पशु भी आ जावेंगे जो मनुष्य के लिए प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उपयोगी हैं | दूसरी श्रेणी के जीव जातिशत्रु कहलायेगे , क्योकि ये मनुष्य जाति के लिए खतरनाक होते हैं और जिनसे मनुष्य जाति को कभी व कही भी नुकसान पहुँच सकता है | इसके उदाहरण सांप ,शेर आदि जानवर तो है ही ,युद्धों मे दुश्मन भी इसी श्रेणी मे आते हैं | तीसरी श्रेणी के जीवों को हम निरपेक्ष जीव कह साकते हैं | ऐसे जीव सामान्यतया हमारे मित्र होते हैं , पर उनके कभी कभार हमारे शत्रु  बन जाने की सभावना बराबर बानी रहती है | ऐसे जीव जब तक हमारे लिए उपयोगी बने रहते हैं और जब तक मनुष्य जाति  को उनसे किसी प्रकार की हानि  होने की सम्भावना नहीं रहती , तब तक वे मनुष्य जाति के मित्रवत माने जावेंगे और जिस क्षण वे मनुष्य जाति को नुकसान पहुँचाने को उद्धत होते हैं तो उन्हें शत्रुवत माना जावेगा | कुत्ता जब तक पागल होकर लोगों को काटने की स्थिति मे नहीं होता ,वह जातिमित्र कहलायेगा ,इसके बिपरीत स्थिति मे वही कुत्ता जातिशत्रु माना जावेगा |
      अब इस प्रश्न का उत्तर स्वतः आ जाता है कि जातिमित्र को कभी और किसी भी  दशा  मे नहीं मारा जाना चाहिए | इसके अलावा जातिशत्रु को प्रत्येक दशा मे मार डालना चाहिए और किसी भी दशा मे उसे जीवित नहीं छोड़ना चाहिए , क्योकि उदासीनता या दयावश अपने को बचाते हुए जाति शत्रु को जीवित छोड़ दिए जाने पर वह जतिशत्रु आपकी जाति के किसी व्यक्ति को हंज पहुँचा सकता है | पर जातिशत्रु को उसके घर , जहाँ रहकर वह निरपेक्ष जीव की भांति रहकर न तो हमें नुकसान पहुँचाता है और न ही उससे किसी प्रकार के नुकसान की संभावना नही होती है | कहने का अर्थ यही है कि जंगल मे जाकर सारे शेरों को नहीं मार डालना चाहिए और न ही सपेरों की मदद से सारे साँपों को उनकी  बिलों से बाहर निकलवाकर मारना चाहिए | निरपेक्ष जीवों पर सतर्क दृष्टि रखते हुए उनका भरपूर लाभ लिया जाना चाहिए और उनके शत्रु रूप अख्तियार करते ही उन्हें मार देना चाहिए |
    यह एक सार्बभौम उत्तर है जो सर्बकालिक ,सर्बदेशिक तथा सर्बपात्रिक है और हिंसा व अहिंसा का वास्तविक मर्म स्पष्ट करता है |  
 

अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Friday, August 6, 2010

दहेज़ प्रथा के खात्मे की ओर पहल : जगन्नाथ सिंह

दहेज़ प्रथा भारतीय जनमानस का एक बहुत बड़ा अभिशाप है और इसके चलते हर बेटी के माता पिता परेशान एवं चिंताग्रस्त रहते हैं |सभी इसे सामाजिक कुरीति यहाँ तक कि इसे समाज का कोढ़ मानते हैं ,पर कोई इसके खिलाफ जेहाद छेड़ने का संकल्प लेने की हिम्मत कोई नहीं करता | भारत का प्रत्येक व्यक्ति इस परिप्रेक्ष्य मे दोहरा चरित्र जीता है | लड़की का बाप होने की हैसियत से वह दहेज़ प्रथा का घोर विरोधी होता है ,किन्तु लड़के के पिता के रूप मे वही व्यक्ति दहेज़ लेने से बिलकुल भी परहेज नहीं करता ,वरन दहेज़ लेने के सम्बन्ध मे वही पहल करता हुआ नज़र आता है | इस दहेज़ का वास्तविक अभिशाप महिलाओं को ही सबसे अधिक झेलना पड़ता है और इसका सीधा प्रभाव स्त्रियों पर ही होता है ,पर इस कुप्रथा के मूल मे स्त्रियाँ ही होती हैं | यदि गहराई से मंथन किया जाय , तो इस कुप्रथा के लिए सर्वाधिक यहाँ तक कि ८० % स्त्रियाँ ही जिम्मेदार हैं | इसी प्रकार महिला उत्पीडन के क्षेत्र मे भी पुरुषों के बजाय महिलाएं ही सर्वाधिक जिम्मेदार होती हैं | अतयव महिला वर्ग को ही सबसे पहले निर्णय लेना पड़ेगा कि उन्हें किसी महिला के उत्पीडन का कारण व माध्यम नहीं बनना है और स्वयं सहित किसी भी महिला के उत्पीडन को किसी दशा मे बर्दास्त नहीं करना है | केवल यही एक कदम दहेज़ प्रथा पर अंकुश लगाने हेतु पर्याप्त है | यदि ऐसा संभव हुआ तो इस कुप्रथा पर लगाम कसने के लिए कुछ और करने की जरुरत ही नहीं होगी |
      वैसे गहराई से बिचार करने से स्पष्ट होता है कि दहेज़ का मूल कारण आर्थिक है | इस वैश्य (captalist) युग मे भारतीय समाज भी पूर्णतया  व्यावसायिक बन गया है | यहाँ लड़के को एसेट और लड़की को लाइबिलिटी समझा जाता है | कमाने के कारण लड़के को कमाऊ पूत अर्थात एसेट और लड़की को गृहणी होने के फलस्वरूप तथा पति के ऊपर आर्थिक रूप पर पूर्णतया निर्भर रहने के कारण बोझ स्वरूप यानि लाइबिलिटी माना जाता है | यदि लड़कियां पढ़ लिखकर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन जाती हैं तो वे स्वतः एसेट बन जाएँगी और तब दहेज़ की सम्भावना नहीं होगी | इस दृष्टि से स्त्री शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता से दहेज़ की बुराई को समूल नष्ट किया जा सकता है | ऐसा देखा भी जाता है कि लड़की जब पढ़ कर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाती है तो उसकी शादी बिना दहेज़ के संपन्न हो जाती है |
     दहेज़ की इस कुरीति के विरुद्ध वातावरण बनाये जाने के उद्देश्य से इसे एक जनांदोलन के रूप मे  चलाये जाने की बहुत बड़ी आवश्यकता है | युवा शक्ति को एकजुट होकर दहेज़ के विरुद्ध  जेहाद छेड़ने का काम अपने हाथ मे लेना चाहिए | युवा पीढ़ी के ऊपर लगने वाले कई आरोपों के दाग को वे इस महान काम से मिटा सकते हैं | दहेज़ मागने , दहेज़ लेने , दहेज़ देने , दहेज़ के कारण उत्पीडन तथा दहेज़ हत्या आदि कार्यों पर युवा व युवती वर्ग समूह बनाकर काम करेगे और दहेज़ की कुप्रथा का खात्मा करके ही दम लेंगे |
   सामाजिक संगठन व संस्थाएं तथा स्वयं सेवी संस्थाएं अपने द्वारा किये जाने वाले कार्यों के अलावा इस पुनीत कार्य मे भी अपना योगदान दे | विभिन्न जाति समाजो द्वारा सामूहिक विवाह आयोजनों तथा दहेज़ लेने व देने वालों के विरुद्ध जाति व समाजगत प्रतिबंधों द्वारा दहेज़ प्रथा पर प्रभावी ढंग से नियंत्रण पाया जा सकता है |     
     मीडिया के इस काम मे लग जाने से तो सारा काम बड़ी आसानी से हो जावेगा | तमाम कानूनों के होते हुए सरकारी निष्क्रियता के कारण ही इस  कुरीति ने इतना  विकराल रूप धारण कर लिया है | अतः मीडिया , युवा - युवतियों तथा स्वमसेवी संस्थाओं द्वारा सरकारों को भी इस दिसा मे जाग्रत ; क्रियाशील तथा मजबूर करना पड़ेगा | तभी लक्ष्यानुसार वांछित परिणाम प्राप्त हो सकेगा | 


अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Monday, August 2, 2010

झाँसी का राजदंड : जगन्नाथ सिंह

हाल मे ही मेरे एक मित्र ने मुझसे सवाल किया कि आप झाँसी के जिलाधिकारी रह चुके हैं तो आपको पता होगा कि झाँसी का राजदंड कहाँ है ? मेरे द्वारा अनभिज्ञता व्यक्त किये जाने पर उनके द्वारा बताया गया कि झाँसी का राजदंड गोरखा रेजिमेंट की रानीखेत यूनिट मे एक वार मेमोरिअल (विजय चिन्ह )के रूप मे रक्खा है जो यह प्रमाणित करता है कि इस यूनिट ने झाँसी राज्य पर फतह हासिल किया था और झाँसी पर कब्ज़ा किया था | वार मेमोरियल सेना की सबंधित यूनिट के लिए अत्यधिक गर्ब की वस्तु हुआ करती है और उक्त यूनिट के जवान इससे उत्साहित होते हैं , अतयव इसे प्रदर्शन की वस्तु भी माना जाता है | मेरे मित्र को रानीखेत भ्रमण के अवसर पर उन्हें झाँसी का राज दंड इसी रूप मे  दिखाया गया था , जिससे वह काफी दुखी हुए थे |  
      आजाद भारत  मे अब तथ्यों तथा वस्तुओं के मायने बदल गए हैं | झाँसी राज्य पर विजय प्राप्त करना और राज दंड को कब्जे मे लेकर उसे वार मेमोरियल के रूप मे प्रदर्शित करना तथा इस कारनामे पर सेना की अमुक रेजिमेंट तथा यूनिट को गर्ब करना आज स्वतन्त्र भारत मे अराष्ट्रीय और राष्ट्रद्रोह के समान है | एक अन्य उदाहरण लेते हैं | जलियावाला बाग़ मे गोली चलाने का हुक्म जनरल डायर ने दिया था ,पर गोली चलाने वाले हाथ भारतीय थे | ऐसी बर्बरतापूर्ण कार्यवाही पर भारतीय सेना की संबंधित इकाई को गर्ब करना और वहाँ हासिल हुई वस्तुओं को विजय चिन्ह के रूप मे प्रदर्शित करना कहाँ तक उचित है ?    
       झाँसी के राज दंड की तरह सेना के पास बहुत सारे प्रतीक तथा बस्तुएं हो सकते हैं , जिन्हें आज विजय चिन्ह के रूप मे प्रदर्शित किया जाता है ,जबकि वे आज स्वतन्त्र भारत मे विजय चिन्ह के बजाय  कायरता ,बर्बरता ,अत्याचार और राष्ट्रद्रोह के प्रतीक ही माने जावेगे | अतयव सेना तथा संस्कृति विभाग को चाहिए कि वे ऐसे मामलों की गहन छानबीन करके उन्हें तलाशें और ऐसे राष्ट्रीय प्रतीकों को उनके उचित स्थानों पर रखवाने की व्यवस्था करे और संग्रहालयों मे उन्हें ससम्मान  प्रदर्शित किया जावे | अतयव यह उचित प्रतीत होता है कि झाँसी के राज दंड को झाँसी  संग्रहालय मे शीघ्रातिशीघ्र रखवा दिया जाय |   
 
अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

चित्रकूट का महातम्य

चित्रकूट धर्मावलम्बियों तथा सैलानियों दोनों के लिए सर्वथा उपयुक्त पर्यटन स्थल है | भगवान राम द्वारा चौदह मे से साढ़े ग्यारह वर्ष का बनवास यहीं बिताने के कारण चित्रकूट का महातम्य  स्थापित हुआ था | भगवान राम के समक्ष कहीं भी जाकर अपना बनवास  बिताने का विकल्प होने के बावजूद उन्होंने चित्रकूट को ही चुना था और चित्रकूट ही आये थे | इस प्रकार चित्रकूट का अपना कोई आकर्षण अवश्य रहा होगा , जिसके कारण भगवान राम चित्रकूट ही आये और अन्यत्र नहीं गए | चित्रकूट नाम मे ही यहाँ की विशेष विशिष्टता निहित है | चित्र से आशय यहाँ की मनोहारी व मनमोहक सुन्दरता से है | यहाँ की चित्रात्मकता हरियाली व मनोरम दृश्यों से रही है | कूट का अर्थ है पर्वत | यहाँ के पर्वत काफी सुगम हैं और उन पर आसानी से चढ़ा जा सकता है | आज का धन लोलुप मानव चित्र और कूट दोनों को नष्ट -भ्रष्ट करने पर अमादा है |  
          राम चरित मानस भारत तथा भारतवासियों की धमनी और भगवान राम आत्मा स्वरूप है | मानस के रचयिता तुलसीदास व कालिदास की कर्मस्थली तथा भगवान राम की क्रियास्थली होने के कारण चित्रकूट की महानता को स्वीकार करना ही पड़ेगा | पूरे चित्रकूट क्षेत्र मे भगवान राम की चरण रज बिखरी हुई है , ऐसा आम जनमानस का विश्वास है | कदाचित इसी कारण चित्रकूट भ्रमण पर आने वाला अधिकांश श्रद्धालु चित्रकूट क्षेत्र मे प्रवेश करते ही अपने जूते उतार कर अपने झोले मे रख लेता है | शायद उसकी सोंच यही होती है कि उनके आराध्य भगवान राम जब यहाँ नंगे पांव चले थे तो वे यहाँ जूता पहनने का पाप कैसे कर सकते हैं ?    
          देश निकाला होने पर रहीम भी चित्रकूट आये थे  | यहाँ वह गुमनामी का जीवन बिताते हुए जीवन यापन हेतु भाड़ झोकने का काम करते थे | एक बार राजा रीवाँ को चित्रकूट भ्रमण करते समय रहीम भाड़ झोकते नज़र आये | रहीम की मर्यादा का ध्यान लिहाज करते हुए कवि रूप मे वह रहीम से बोले " जा के अस भार है सो कत झोंकत भाड़ " इस पर रहीम मुस्कराए और कविता मे ही उत्तर दिया " भार झोंक कर भाड़ मे रहिमन उतरे पार "| रहीम की यह उक्ति भी जन जन मे व्याप्त है :
       ' चित्रकूट मे रमि रहे रहिमन अवध नरेश , जापर बिपदा पडत है सोई आवत यहि देश |'
रहीम और तुलसीदास से जुड़ा एक महत्वपूर्ण प्रसंग और भी है | चित्रकूट मे एक हाथी पागल हो गया था और उसे मारने का आदेश हो गया था | उस समय रहीम और तुलसीदास दोनों चित्रकूट मे ही थे और वे दोनों हाथी मारने सम्बन्धी फरमान से दोनों बहुत दुखी थे | उसी समय राजा का वहाँ आगमन हुआ | तभी इन पंक्तियों को सुनकर राजा द्वारा हाथी को मारने का फरमान वापस ले लिया गया था | 

         " धूरि उछारत सिर धरत केहि कारन गजराज ,
           जा रज से मुनि तिय तरी सोई ढुंढत गजराज |
 
       चित्रकूट मे रहकर भगवान राम ने त्याग ,तपस्या ,बलिदान ,दुष्टदलन ,जनसेवा तथा समाजसेवा का दृष्टान्त रक्खा था जो मनुष्यता के लिए अनुकरणीय है | भगवान राम ने साधन विहीनता की स्थिति मे सबसे रामराज्य स्थापित किया था और दुष्टदलन करके यहाँ के निवासियों को निर्भय किया था | भगवान राम समाज सेवियों के प्रथम पूर्बज भी थे | हिन्दुओं की चित्रकूट मे अपार श्रद्धा है | चित्रकूट मे प्रतिदिन हजारों तथा अमावस्या के मे लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं और परिक्रमा व दर्शन कर लाभ उठाते हैं | दीपावली की अमावस्या को यहाँ सबसे बड़ा मेला लगता है और कई दिन चलता है |
            

अपना बुंदेलखंड डॉट कॉम के लिए श्री जगन्नाथ सिंह पूर्व जिलाधिकारी, (झाँसी एवं चित्रकूट) द्वारा

Monday, July 26, 2010

मोक्ष की अवधारणा ; प्रास्थिति और प्रक्रिया

मोक्ष मानव जीवन यात्रा की अंतिम मंजिल और अध्यात्मिक क्षेत्र की चरम स्थिति है | इसे अलग अलग स्थानों पर अलग अलग नामो से समझा और पुकारा गया है| इसे निर्वाण , कैवल्य , ब्रह्मलीन ,परम गति ,मुक्ति और मोक्ष नामो से जाना जाता है | पर मोक्ष को समझना और समझाना दोनों ही  बहुत ही दुष्कर कार्य है | ब्रह्माण्ड मे सब कुछ तरंगवत है और ब्रह्म तरंग सबसे बड़ी तरंग है | प्रत्येक तरंग की तीन स्थितियां होती है | एक सामान्य तरंग की निम्नतम एवं प्रथम स्थिति है ठहराव | ठहराव की यह स्थिति क्रिया विहीनता का कालखंड होता है और इसी क्रिया विहीनता या ठहराव की स्थिति मे शक्ति संचयन होता है | क्रिया विहीनता की अवधि तथा इसकी सघनता यह निर्धारित करती है कि कितना शक्ति संचयन होता है | इस ठहराव के बाद तरंग का ऊर्ध्वगामी होना दूसरी स्थिति है | प्रथम चरण यानि ठहराव की स्थिति मे हुआ शक्ति संचयन यह तय करेगा कि यह ऊर्ध्वगामी क्रम कितनी दूरी और देर तक रहेगा | जहाँ यह संचित शक्ति समाप्त हो जाएगी ,वही से तीसरा अवरोही क्रम प्रारंभ होकर ठहराव की स्थिति तक चलेगा | तत्पश्चात तरंग का दूसरा क्रम पहले की तरह चलेगा और अनवरत तीसरी चौथी पांचवी .....तरंगो का क्रम चलता रहेगा |
         एक उदाहरण से इसे भलीभांति समझा जा सकता है | इस देश मे इमरजेंसी के बाद जनता दल सरकार द्वारा सत्ता से बाहर किये जाने के बाद इंदिरा गाँधी के लिए यह कालखंड ठहराव यानि क्रिया विहीनता का समय था | सौभाग्य से क्रिया विहीनता या शक्ति संचयन का यह कालखंड थोड़ा बड़ा हो गया था | इस दौरान हुए शक्ति संचयन के फलस्वरूप इंदिरा गाँधी और तेजी से उभरी और इस दौरान ही उन्होंने कई बड़े काम किये |
       ब्रह्म तरंग की स्थिति सामान्य तरंग से थोड़ी भिन्न है ,किन्तु ठहराव , अवरोह तथा आरोह की तीनो स्थितियां वहाँ भी विद्यमान रहती हैं | अंतर बस इतना ही है कि ब्रह्म तरंग मे  ठहराव की स्थिति के बाद अवरोह यानि परम सूक्ष्म (परम पुरुष ) से परम स्थूल (पृथ्वी तत्व ) तक का क्रम चलता है ,जबकि अन्य समस्त तरंगो मे ठहराव के बाद आरोह का क्रम पहले आता है | आरोह क्रम मे परम स्थूल (पृथ्वी) से परम सूक्ष्म (मोक्ष )तक का क्रम चलता है | इसे ही श्रृष्टि चक्र एवं ब्रह्मस्पंदन कह सकते हैं |
      मोक्ष को समझने के लिए विज्ञानं के नियमो का सहारा लेना पड़ेगा जो प्रकृति का भी नियम है | विज्ञानं का नियम है कि हर क्रिया की समान व बिरोधी प्रतिक्रिया होती है | जीवन मे क्षण प्रतिक्षण क्रियाओं का क्रम चलता रहता है | बिना क्रिया किये एक सेकण्ड भी हमारा अस्तित्व नहीं रह सकता |  जहा क्रिया संपन्न होती है , वहा प्रतिक्रिया का होना अवश्यमभाबी है | हम रोजमर्रा के जीवन मे देखते हैं कि कतिपय और सामान्यतया अधिकांश क्रियाओं के समक्ष समान और बिरोधी प्रतिक्रियाएं तत्काल अभिव्यक्त न होकर भविष्य के लिए स्थानांतरित हो जाती हैं | यह स्थगित प्रतिक्रियाएं अवचेतन स्तर पर बीज रूप में विद्यमान रहती हैं और अपने स्वभावानुसार धीरे धीरे परिपक्व होती रहती हैं | पूर्णतया परिपक्व होने पर यह तत्समय घटित होने वाली किसी समानांतर क्रिया की प्रतिक्रिया को समान व विरोधी प्रतिक्रिया नहीं रहने देता ,वरन अभिव्यक्त होकर उक्त प्रतिक्रिया के साथ सायुज्य स्थापित कर लेता है और इसमें घनात्मक अथवा ऋणात्मक प्रतिफलन ला देता है | अर्थात थोड़ा कर्म करके बहुत अधिक प्रतिक्रिया और बहुत अधिक क्रिया करके बहुत कम प्रतिक्रिया होने की स्थितियां बहुधा देखने को मिलती रहती हैं | प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने व अपनों के सदर्भ मे ऐसा होते देख चुका होता  है , क्योंकि ऐसा अक्सर होता रहता है और ऐसा पहले स्तगित प्रतिक्रिया के परिपक्व होने के बाद अभिव्यक्त होने के कारण होता है | स्थगित प्रतिक्रियाओं का कई जन्मो का संचित एक बहुत बड़ा स्टाक जमा रहता है और इस प्रतिक्रिया कोष को अभिव्यक्त करने के लिए अनेको जन्म लेने की आवश्यकता होगी | जीवित रहने तक प्रतिपल क्रिया संपन्न होते रहने के कारण प्रतिक्रिया का यह संचित स्टाक निरन्तर बढ़ता रहता है | जब तक यह पूरा स्टाक समाप्त नहीं होता ,हम सापेक्षिकता की स्थिति मे ही बने रहेगे और मुक्त नहीं हो सकेगे | 
      मोक्ष की दिशा मे दो समस्याओं का सामना करना होता है | पहली समस्या यह है कि जीवित रहने तक तथा जीवित रहने के लिए हमें कर्म करना ही पड़ेगा और कर्मफल भी भोगना पड़ेगा जो बंधनकारी होता है | अतयव कर्म की एक ऐसी तकनीक अपनानी होगी , जिसमे कर्म तो हो पर यह बंधनकारी न हो और हमें कर्मफल न भोगना पड़े | भगवान कृष्ण ने इसी समस्या के निराकरण के लिए ही गीता मे  कर्मयोग का उपदेश दिया था | ब्राह्मी भाव से कर्म करने यानि निष्काम कर्म करने से कर्मफल के सम्बन्ध मे चिंता करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए , क्योकि निष्काम कर्म की स्थिति मे कर्मफल ब्रह्म को ही स्वतः समर्पित हो जावेगा | दूसरे रूप मे इसे ही ब्रह्मचर्य भी कहा जा सकता है | ब्रह्मचर्य का तात्पर्य है ब्रह्म को चरना | चरने का मतलब होता है खाते खाते चलते रहना अर्थात ब्राह्मी भाव से कर्म करना | इस ब्रह्मचर्य की प्रक्रिया मे प्रत्येक कार्य मे ब्राह्मी भाव आरोपित करके  कार्य करना चाहिए | अर्थात कर्म समय यह भाव होना चाहिए कि ब्रह्म ही कर्ता हैं ,अतयव कर्मफल भी ब्रह्म के लिए ही होगा | 
        इसे दूसरी तरह से भी समझा जा सकता है | अभिव्यक्ति प्रतीकीकरण (symbalisation) के अलावा कुछ भी नहीं है | यह प्रतीकीकरण तीन स्तरों पर संपन्न होता है | प्रथम स्तर पर भौतिक प्रतीकीकरण है | समस्त घटित होने वाले  कर्म अथवा क्रियाएं इसी स्तर की मानी जावेगी | दूसरा स्तर मानस प्रतीकीकरण का है , जहाँ प्रतिक्रिया  या संस्कार जगत अवस्थित होता है | इस स्तर पर जन्म जन्मान्तरों की स्थगित प्रतिक्रियाएं अर्थात संस्कार संचित रहता है | तीसरा स्तर अध्यात्मिक प्रतीकीकरण है जो निरपेक्ष होने के कारण दुबारा अभिव्यक्ति नहीं पाता है | भौतिक प्रतीकीकरण का मानस प्रतीकीकरण होना अनिवार्यता है | कालांतर मे मानस प्रतीकीकरण का पुनः भौतिक प्रतीकी करण होना भी अपरिहार्यता है | गीता के उपदेश निष्काम कर्म अर्थात ब्रह्मचर्य के पालन द्वारा हम भौतिक प्रतीतीकरण को बिना मानस प्रतीकीकरण किये सीधे अध्यात्मिक प्रतीकीकरण मे स्थानांतरित कर दिया जाता है | सापेक्षिकता से परे इस अध्यात्मिक प्रतीकीकरण के पुनः अभिव्यक्त होने की सम्भावना नहीं होगी |
      मोक्ष की दिशा मे दूसरी समस्या है , अनगिनत जन्मो की संचित प्रतिक्रियाओं अर्थात संस्कारों के विपुल भंडार को समाप्त करना | यह सबसे कठिन काम है और इसमें कोई शार्टकट नहीं है | तीन तरह की  प्रक्रियाओं को अपनाकर यह अति दुष्कर कार्य संपन्न किया जा सकता है | सबसे पहले मनो आध्यत्मिक समानान्तरण प्रक्रिया अर्थात आध्यात्मिक साधना द्वारा मानस प्रतीकीकरण को आध्यात्मिक प्रतीकीकरण मे स्थान्तरण करने से उनका पुनः भौतिक प्रतीकीकरण संभव नहीं होगा | इसी साधनात्मक  प्रक्रिया के द्वारा ही मानस प्रतीकीकरण के भौतिक प्रतीकीकरण की प्रक्रिया को त्वरण देने से यह कार्य शीघ्रता से संपन्न होगा | तीसरा कदम विपस्सना को अपनाना होगा | इन तीनो कदमो का यह प्रतिफल होगा कि एक दिन स्थगित प्रतिक्रिया व संस्कार का सम्पूर्ण संचित कोष समाप्त हो चुका होगा | निष्काम कर्म योग से नई प्रतिक्रिया के सृजन व स्थगित होने की सम्भावना पर पहले ही सफलता प्राप्त की जा चुकी है | अतयव अब ऐसी स्थिति आ चुकी है ,जहाँ कुछ भोगने को शेष नहीं बचता और व्यक्ति सापेक्षिकता से ऊपर पहुँच चुका होता है | यही कैवल्य , निर्वाण , मुक्ति ,मोक्ष तथा ब्रह्मलीन होने की स्थिति है , जो व्यक्ति की परम गति तथा अंतिम मंजिल है | 


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Thursday, July 22, 2010

राजनीति और धन की वापसी ; समस्या का स्थायी समाधान

व्यक्ति ,समाज तथा देश की अधिकांश समस्याएं राजनीति और धन के अत्यधिक प्रभाव व वर्चस्व के कारण है | साधन के रूप मे इन दोनों की जरुरत अवस्य है , पर आज धन व राजनीति का वर्चस्व अत्यधिक बढ़ गया है और दोनों साधन से साध्य बनकर प्रत्येक क्षेत्र मे बुराइयाँ व समस्याएं ही  उत्पन्न कर रहें हैं | इससे आम आदमी तथा किसान सबसे अधिक प्रभावित हो रहा है और किंकर्तव्यमूढ़ बना हुआ है | वह आज महगाई से सर्बाधिक प्रभावित  तथा त्रस्त है और इस किसान व आम आदमी को महगाई से राहत दिलाना मेरा विशेष प्रयोजन है | वस्तुतः महगाई को बढ़ाने मे यही धन व राजनीति ही मुख्यतया जिम्मेदार है | अतयव महगाई और अधिकांश समस्याओं का समाधान पाने के लिए धन व राजनीति के प्रभाव को कम करने तथा इनकी साध्य से साधन के स्तर तक वापसी अत्यावश्यक है | 
      बढ़ते मुद्रा प्रसार ,नकली नोटों का बड़े पैमाने पर प्रचलन , काले धन की सामानांतर अर्थ व्यवस्था ,गलत आर्थिक नीतियाँ ,गैर ज़िम्मेदाराना राजनीतिक बयानबाजियां तथा शासको के अहम् व सनक भरी योजनाओं का कार्यान्वयन महगाई बढ़ाने वाले प्रमुख कारक सिद्ध हो रहे हैं | महगाई का कोई खास असर अमीरों पर नहीं होने के कारण वे तत्क्रम मे उदासीन रहते हैं | महगाई से सबसे ज्यादा परेशान आम आदमी और किसान असंगठित होने के कारण महगाई के बिरुद्ध एकजुट होकर अपना विरोध दर्ज नहीं करा पाते | विपक्ष द्वारा महगाई को सरकार के विरुद्ध प्रयोग किया जाने वाला केवल एक हथियार ही समझा जाता है | जिसके कारण महगाई निरन्तर बढती जा रही है और इस पर नियंत्रण किये जाने के विषय मे कोई कारगर एवं परिणामदायक उपाय नहीं हो रहे है | इसी कारण महगाई सर्बाधिक चिंता का विषय बनी हुई है | 
       आम आदमी और किसान हमारी प्राथमिकता का केंद्र बिंदु होने के कारण सर्बप्रथम हम ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लेते हैं | अभी तक सरकारे अमीन के माध्यम से लगान नगद वसूलती हैं और छोटे किसानो को लगान से छुट दी जाती है | ग्रामीण क्षेत्रों मे सीलिंग भी लागू है और किसानो को एक  निश्चित सीमा से अधिक भूमि रखने पर पाबन्दी है ,पर खेत के सदुपयोग न करने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है | सीलिंग का यह तरीका सही नहीं है | सीलिंग मे अधिकतम भूमि रखने की सीमा रखने के बजाय प्रति मानक बीघा न्यूनतम उत्पादन करने का प्रतिबन्ध लगाया जाना अधिक उचित है | इसका परिणाम यह होगा कि न्यूनतम उत्पादन का लक्ष्य प्राप्त करने हेतु कृषि उत्पादन व उत्पादकता बढ़ाने का एक स्वाभाविक वातावरण बनेगा और सकल कृषि उत्पादन मे बहुत ज्यादा बढ़ोत्तरी होने की सम्भावना होगी | इससे सीलिंग को एक कारगर एवं तर्कसंगत आधार मिल सकेगा ,क्योकि जो न्यूनतम उत्पादन नहीं करेगा ,उसकी कृषि भूमि सरकार द्वारा अपने कब्जे मे लेकर भूमिहीनों तथा खेतिहर मजदूरो मे बाँट दी जावेगी और खेतो पर वास्तविक किसानो का ही कब्ज़ा होगा | जब प्रति मानक बीघा न्यूनतम उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित हो जावेगा तो लगान व गल्ला वसूली भी उक्त आधार पर आसानी से हो सकेगी जो सामान्यतया न्यूनतम उत्पादन १० प्रतिशत होगा बिना किसी भेदभाव के सभी किसानो से वसूल किया जावेगा | इस प्रकार लगान तथा गल्ला वसूली स्वतः हो जाएगी | इस वसूल किये गए गल्ले से लगान सहित अन्य सरकारी देयों का समायोजन करने के बाद जो धन देय होगा उसे नकद न देकर खाद बीज आदि निवेश प्राप्त करने हेतु कूपन दे दिया जावेगा | इसके बाद का अवशेष नकद भुगतान कर दिया जावेगा | मानक बीघा का न्यूनतम उपज निर्धारण ,बोये गए फसल का व्योरा तैयार करने सहित लगान व गल्ला वसूली तथा गल्ले का भण्डारण आदि कार्य सरकारी कर्मचारियों के बजाय गाँव के ही एक ठेकेदार द्वारा किये जायेगे | इसके लिए इसे १ या २ प्रतिशत कमीशन भी दिया जावेगा | यह गाँव का सबसे महत्वपूर्ण व इमानदार व्यक्ति होगा | अतयव इसी व्यक्ति को ग्राम स्तर का राजनीतिक अधिकार भी सौंप दिया जावेगा | ऐसी स्थिति मे प्रधान का अलग से चुनाव कराने की आवश्यकता नहीं होगी और ग्राम स्तर पर राजनीति की स्वतः वापसी संभव हो जाएगी | यही सभी प्रधान मिलकर  क्रमशः न्याय पंचायत , ब्लाक ,जिला,राज्य तथा देश का प्रतिनिधि भी चुनेगे और सरकार बनाने का महत्वपूर्ण दायित्व निभायेगे | इससे चुनाव बिहीन राजनीतिक तथा धन विहीन आर्थिक व्यवस्था लागू हो सकेगी | तभी प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे के मेहता के आवश्यकता विहीनता की ओर ले जाने सम्बन्धी आर्थिक सिद्दांत पर अमल हो सकेगा| इससे मानव सच्चे अर्थों मे खुशहाली के रास्ते पर चल पड़ेगा और वास्तविक प्रजातंत्र तथा रामराज्य का सुख भोगेगा |    
     

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Wednesday, July 21, 2010

सम्यक राजनीति एवं अर्थ बोध

आजकल धन और राजनीति का वर्चस्व बहुत अधिक बढ़ गया है | धन के बढे हुए वर्चस्व के कारण आज यह युग वैश्य युग बन गया प्रतीत होता है ,क्योंकि आज धन ही मूल्यांकन की कसौटी बन गयी है और धनवान की ही समाज मे सर्बाधिक प्रतिष्ठा है | परिवार मे भी कमाऊ पुत्र का ही वर्चस्व रहता है | यहाँ तक मा का स्नेह भी निस्वार्थ न रहकर पैसे की तराजू मे ही तुलता है अर्थात मा भी उसी बच्चे को सर्बाधिक प्यार करती है जो सबसे ज्यादा पैसा कमाकर लाता है | कहने का तात्पर्य यही है कि यह अर्थ युग बन गया है और इसी कारण लोगो मे धन कमाने की होड़ सी लगी हुई प्रतीत होती है | आज धन मानवीय मूल्यों ,मानवीय संबंधों तथा सामजिक स्तरीकरण का स्थापित आधार बन गयाहै | इसके कारण व्यक्तिगत ,सामाजिक और नैतिक मूल्यों मे बहुत अधिक गिरावट देखने को मिल रही है | प्रत्येक क्षेत्र मे मे इसके बिस्तार एवं प्रभाव के कारण पूरी की पूरी व्यवस्था ही संक्रमित एवं दूषित हो गयी है |राजनीति का भी प्रभाव व प्रभुत्व धन की ही तरह सर्ब व्याप्त है | प्रत्येक क्षेत्र मे राजनीति ने अपनी पैठ बनाकर अपना वर्चस्व कायम कर रखा है | इससे कोई क्षेत्र अछूता नहीं रह गया है | यहाँ तक पति पत्नी के शयन कक्ष तक इसकी पहुँच संभव हो चुकी है | 
       उपरोक्त से यह स्वतः स्पष्ट है कि धन और राजनीति बर्तमान समय की सबसे बड़ी बुराईयां हैं और इन दोनों बुराईयों पर नियंत्रण पाना बहुत आवश्यक है | यह भी एक नंगा सच है कि व्यक्तिगत व सामाजिक क्षेत्र मे धन और राजनीति की साधन के रूप मे जरुरत होती है | जब तक यह दोनों साधन के रूप मे हैं हैं ,तब तक यह दोनों उपयोगी हैं | परन्तु धन व राजनीति जब साधन के बजाय साध्य बन जाती हैं ,तो ये व्यक्ति व समाज के लिए हितकर नहीं रह जाती हैं | अतयव आज इन पर नियंत्रण करना इस दृष्टि से आवश्यक है कि यह दोनों साधन के रूप मे इनकी उपयोगिता बनी रहें और यह साध्य न बनने पायें |
      व्यष्टि और समष्टिगत क्षेत्र से धन व राजनीति की वापसी लोकहित मे बहुत जरुरी है | पर यह अत्यधिक कठिन और चुनौतीपूर्ण काम है ,क्योंकि इन दोनों की जड़े बहुत गहरी हैं और सम्पूर्ण व्यवस्था को ही जकड रखा है |अतयव इन दोनों के विरुद्ध कार्यवाही होने पर व्यवस्था ही इनके साथ खड़ी हो जाएगी | अतयव इस प्रयोजन से एक नई व्यवस्था का प्रावधान करना होगा |
वैसे इस समस्या का वास्तविक समाधान है | राजनीति और धर्म की वापसी तथा साधन के रूप मे उनकी प्रतिष्ठा करना | यह एक अत्यधिक दुरूह कार्य है , क्योकि जब बुराइयों की जड़े काफी गहराई तक चली जाती हैं तो उन्हें जड़ समेत उखाड़ना बहुत कठिन हो जाता है |


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